राजनीतिक भविष्य सुरक्षित करने के लिए रघुवंश ने छोड़ा आरजेडी का साथ?

06:18 pm Sep 10, 2020 | समी अहमद - सत्य हिन्दी

रघुवंश प्रसाद सिंह लालू की पीठ के पीछे खड़े होने वाले नेता थे। हिसाब के प्रोफेसर लेकिन शायद ही कभी राजनैतिक रिश्तों में हिसाब-किताब किया। शुरू से समाजवादी सोच के साथ चले और केंद्र में मंत्री रहते हुए नरेगा, जो बाद में मनरेगा बना, उसमें ऐसा काम किया कि मज़ाक उड़ाने के बावजूद आज की सत्ता उसी मनरेगा के सहारे देश के करोड़ों मज़दूरों की हितैषी बनने का दावा करती है।

रघुवंश बाबू जब नाराज़ होते हैं तो होते हैं लेकिन राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) से अलग होने जैसा काम वे बेहद दुखी होकर ही कर सकते हैं। और इसलिए भी कि सम्मान देने के संभावित नामों में सबसे ऊपर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का नाम चल रहा है।

जगदानन्द सिंह को अहमियत

रघुवंश बाबू आरजेडी के मज़बूत राजपूत चेहरा थे मगर बताया जाता है कि पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव को अपनी पार्टी की राज्य इकाई के अध्यक्ष और दूसरे मज़बूत राजपूत नेता जगदानन्द सिंह का साथ इतना प्रिय है कि वे उनके लिए रघुवंश बाबू का साथ छोड़ने को तैयार थे। 

रघुवंश ने अपने हाथ से लालू को इस्तीफ़े की चिट्ठी लिखी लेकिन उन्होंने इसमें लालू का नाम नहीं लिखा। उन्होंने अपनी वायरल चिट्ठी में लिखा, ‘जननायक कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद 32 सालों तक आपकी पीठ पीछे खड़ा रहा। पार्टी, नेता, कार्यकर्ता और आमजन ने बड़ा स्नेह दिया, मुझे क्षमा करें।’

रघुवंश ने कर्पूरी ठाकुर का नाम इसलिए लिखा क्योंकि पहली बार एमएलए चुने के बाद वे कर्पूरी मंत्रिमंडल में मंत्री बने थे। 75 साल की उम्र में पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने सक्रिय चुनावी राजनीति से अलग रहने की इच्छा जताई तो 74 साल की उम्र में रघुवंश ने अपनी सबसे पुरानी पार्टी छोड़ने का एलान किया।

जीतन मांझी के पास परिवार को राजनीति में आगे बढ़ाने का अवसर है, रघुवंश की ऐसी कोई मंशा सामने नहीं आयी है। 

लड़ते-झगड़ते रघुवंश इसलिए आरजेडी में बने हुए थे क्योंकि उन्हें भरोसा था कि लालू प्रसाद उनके लिए लड़ेंगे। लालू शायद लड़े भी लेकिन अब जेल में रहकर हर फ़ैसले पर हावी होने की स्थिति में वह नहीं दिखते।

छोड़ने के पीछे कोई राजनीतिक गणित

रामा सिंह एलजेपी से सांसद रह चुके हैं और विवादास्पद हैं। वैशाली रघुवंश बाबू का कर्मक्षत्र रहा है, वहां रामा सिंह का आरजेडी में रहना उन्हें बर्दाश्त नहीं होगा लेकिन एक यही कारण उनके पार्टी छोड़ने का नहीं हो सकता। पिछले लोकसभा चुनाव में वे हार गए थे। अब आरजेडी के दम पर उनकी जीत की संभावना कम बन रही थी। ऐसे में अभी चार साल इंतज़ार करना उनके हिसाब-किताब में फिट नहीं बैठा होगा।

बिहार की राजनीति पर असर

रघुवंश बाबू के जाने का असर आरजेडी पर फौरी तौर पर यह होगा कि सभी लालू विरोधियों को यह बताने के लिए एक हथियार मिल गया कि देखिये, इतने वरिष्ठ समाजवादी नेता का क्या हश्र कर दिया। हो सकता है कि उनकी तरफ से लालू के एक और प्रिय और लंबे समय के साथी अब्दुल बारी सिद्दीकी को भी यह संदेश देने की कोशिश हो कि इधर आइए। 

रघुवंश बाबू का चुनावी राजनीति में वोट के लिहाज से शायद आरजेडी को कोई बहुत बड़ा नुकसान न हो लेकिन इमेज के हिसाब से यह बहुत बड़ा धक्का है।

पटना और मुजफ्फरपुर के सीनियर पत्रकारों का कहना है कि अगर वे जेडीयू में जाते हैं तो नीतीश कुमार के साथ खड़े होने ही भर से उन्हें उनकी छवि का लाभ तो होगा। उनका कहना है कि राजपूत वोटों का कुछ असर स्थानीय तौर पर हो सकता है लेकिन यह वर्ग तो पहले से ही लालू से दूर बताया जाता है। रघुवंश का जाना लालू और आरजेडी, दोनों के लिए एक परसेप्शन का नुक़सान है।

ध्यान देने की बात यह भी है कि लालू प्रसाद के दोनों पुत्र तेज और तेजस्वी वैशाली से ही चुनाव लड़ते हैं। कुछ असर उनके चुनाव पर पड़े तो किसी को ताज्जुब नहीं होगा। कुल मिलाकर नीतीश कुमार को लालू के दोनों बेटों की कथित राजनैतिक अपरिपक्वता को उजागर करने का एक और मौक़ा रघुवंश बाबू के रूप में मिल गया है।