बिहार का चुनाव महागठबंधन जीत सकता था। लेकिन, ऐसा नहीं हो सका। इसके कई कारण हैं और इन कारणों के मूल में हैं आरजेडी नेता तेजस्वी यादव। हालाँकि हमला सिर्फ़ राहुल गाँधी और कांग्रेस पर हो रहा है तो इसकी वजह भी साफ़ है। कांग्रेस देश में बीजेपी की सबसे बड़ी राजनीतिक दुश्मन है और अक्सर राहुल गाँधी ही निशाने पर होते हैं। वैसे भी, कांग्रेस को जो लोग हार का ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं उनमें मीडिया का एक धड़ा है तो दूसरे वे लोग हैं जो जीते हुए तबक़े की ओर ख़ुद का ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं। हार हो या जीत ज़िम्मेदारी गठबंधन के सभी घटक दलों की होती है और नेतृत्व करने वाले की ज़िम्मेदारी सबसे अधिक होती है।
चुनाव नतीजों के लिए ज़िम्मेदार ठहराने से पहले तेजस्वी यादव को इस बात का श्रेय देना होगा कि उनकी ही बदौलत महागठबंधन इस स्थिति में आया कि उसने एनडीए को काँटे की टक्कर दी। एक तरह से जीत की स्थिति तक पहुँचाया।
बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन को 37.2 प्रतिशत वोट मिले हैं और सरकार बना रहे गठबंधन एनडीए को 37.3 प्रतिशत। वोट लगभग बराबर मिले हैं दोनों गठबंधनों को। वोटों के तौर पर यह फर्क महज 12 हज़ार 270 का है। एनडीए को 57 लाख 27 वोट मिले हैं जबकि महागठबंधन को 56 लाख 88 हज़ार 458 वोट मिले हैं। इतना क़रीबी चुनाव बिहार में कभी देखा नहीं गया था।
आरजेडी का दावा है कि 15 सीटों पर जितने बैलेट पेपर रद्द किए गये हैं उससे कम अंतर से हार-जीत हुई है। इसे प्रशासन से मिलीभगत के ज़रिए धांधली का वे नाम दे रहे हैं। अदालत का दरवाज़ा भी खटखटाने जा रहे हैं। अगर यह बात सच साबित होती है तो आज जिस एनडीए को जीता हुआ बताया जा रहा है कल उसे हारा हुआ और इसी तरह आज जिस महागठबंधन को हारा हुआ कहा जा रहा है उसे कल जीता हुआ कहा जा सकता है। मगर, अदालत ही इसका निर्णय कर सकती है। यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि 41 सीटों पर 3500 से कम वोटों के अंतर से हार-जीत हुई है और 11 सीटों पर 1000 वोटों से भी कम का फ़ासला रहा है।
अगर चुनाव नतीजे को बगैर किसी चुनौती के मानें तो कम से पाँच ऐसे फ़ैक्टर हैं जो महागठबंधन के ख़राब प्रदर्शन की वजह माने जा सकते हैं-
- वीआईपी को महागठबंधन में बनाए रखने में नाकामी
- हम को भी साथ बनाए नहीं रख सके तेजस्वी यादव
- सीमांचल में मुसलिम वोट जोड़कर नहीं रख सका महागठबंधन
- 2015 का चुनाव प्रदर्शन सुधार नहीं सका आरजेडी
- कांग्रेस को ऐसी 43 सीटें दीं जहाँ वह पिछले चार चुनाव नहीं जीत सकी थी
वीआईपी-हम ने बदली स्थिति
वीआईपी और हम दोनों ही महागठबंधन का हिस्सा थीं मगर चुनाव से ठीक पहले इन दोनों ने महागठबंधन छोड़ने का फ़ैसला किया। वीआईपी ने तो तब गठबंधन छोड़ा जब तेजस्वी ने महागठबंधन की सीटें फ़ाइनल कर लीं और यह छिपाए रखा कि वीआईपी को कितनी सीटें वो देने वाले हैं। वीआईपी प्रमुख मुकेश सहनी ने इसे पीठ में छुरा घोंपने जैसा क़दम बताते हुए सीधे एनडीए का रुख कर लिया। वीआईपी और हम ने न सिर्फ़ एनडीए में जाकर 8 सीटें हासिल कीं बल्कि इन दोनों ने मिलकर कई सीटों पर महागठबंधन को नुक़सान भी पहुँचाया। आरजेडी को इन दोनों दलों की उपेक्षा महँगी पड़ गयी जिसका खामियाजा महागठबंधन को भुगतना पड़ा।
महागठबंधन को 110 सीटें और एनडीए को एक निर्दलीय समेत 126 सीटें मिली हैं। 16 सीटों के फर्क का मतलब है कि 8 सीटें भी उधर से इधर हो जाएँ तो सरकार बदल जाती है। ये 8 सीटें हम और वीआईपी के पास हैं।
मुसलिम वोटों के प्रति रवैया
सीमांचल में एआईएमआईएम को 5 सीटें मिलेंगी इसका आकलन महागठबंधन नहीं कर सका। मुसलिम वोटों को एकजुट रख पाने की रणनीति गंभीर नज़र नहीं आयी। नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस और आरजेडी दोनों दलों को सीमांचल में बड़ा नुक़सान हुआ। यह नुक़सान कांग्रेस को अधिक हुआ। यही पाँच सीटें अगर महागठबंधन अपने खाते में डाल पाती तो निर्दलीय समेत जो 126 का आँकड़ा एनडीए के पास है वह 121 बनकर अल्पमत में नज़र आता। मुसलिम वोटों को लेकर इतनी निश्चिंतता आरजेडी और कांग्रेस में दिखी कि वह घातक साबित हुआ।
आरजेडी का प्रदर्शन पहले से ख़राब
यह भी सच है कि अगर आरजेडी ने 2015 वाला अपना प्रदर्शन दोहरा दिया होता यानी वह 80 सीटें भी बचा पाती तब भी एनडीए को सरकार बनाने से वह रोकने की स्थिति में होती। महागठबंधन का नेतृत्व करती आरजेडी से कम से कम इतनी अपेक्षा तो की ही जा सकती थी। उसने सबसे ज़्यादा 143 सीटों पर चुनाव भी लड़ा और उसकी सीटें पहले से कम हो गयीं।
कांग्रेस पर थोपी गयीं मुश्किल 43 सीटें
महागठबंधन का नेतृत्व करते हुए तेजस्वी यादव ने कांग्रेस को कई ऐसी बातें मानने को विवश किया जिससे चुनाव से पहले ही कांग्रेस के लिए नतीजे तय हो गये थे। कांग्रेस को गठबंधन में जो 70 सीटें मिलीं उनमें से 43 पर कांग्रेस पिछले चार चुनावों में जीत हासिल नहीं कर सकी थी। मतलब यह कि बीते चुनाव में 27 सिटिंग सीट के अलावा जितनी भी सीटें कांग्रेस को दी गयीं उन पर कांग्रेस की जीत की संभावना बहुत कम थी। कांग्रेस को मिली 70 सीटों में 67 सीटों पर बीते लोकसभा चुनाव के दौरान एनडीए को बढ़त मिली थी।
कांग्रेस की कई परंपरागत सीटें भी वामदलों को दे दी गयीं। उदाहरण के लिए बेगूसराय ज़िले की मटिहानी सीट को लें। यह सीट सीपीएम कभी जीत नहीं सकती थी। कांग्रेस को नहीं मिली।
कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे बाहुबली कामदेव सिंह के बेटे राजकुमार सिंह ने यहाँ से लोजपा के टिकट पर चुनाव लड़ा और काँटे के मुक़ाबले में तीन बार के विधायक जेडीयू को 333 वोटों से हराया। एलजेपी के इकलौते विधायक अब कांग्रेस में जाने की तैयारी में हैं।
वैसे, वामदलों को साथ जोड़ना तेजस्वी का महत्वपूर्ण और बड़ा राजनीतिक क़दम था। ऐसा नहीं होता तो महागठबंधन में आरजेडी और कांग्रेस दोनों की सीटें घटने के बाद वह सत्ता के आसपास भी नज़र नहीं आती। ये वामदल ही हैं जिनकी 16 सीटों की बदौलत महागठबंधन चुनावी रेस में एनडीए से मुक़ाबला करता दिखा। मगर, इसके लिए कांग्रेस से कुर्बानी ली गयी यह बात भी सच है।
कांग्रेस के मुक़ाबले जेडीयू की बुरी स्थिति
कांग्रेस 70 सीटों पर चुनाव लड़कर 19 जीत सकी तो आरजेडी 143 सीटों पर चुनाव लड़कर पहले से घट गयी। 80 से 75 हो गयी। स्ट्राइक रेट ज़रूर कांग्रेस का कम है। मगर, यही स्थिति एनडीए में बीजेपी और जेडीयू के बीच भी है। यहाँ स्ट्राइक रेट का फर्क और भी ज़्यादा है। बीजेपी ने जेडीयू को दोष देने के बजाए मुख्यमंत्री का पद दे दिया। वहीं, महागठबंधन में कांग्रेस पर सवाल उठाए जा रहे हैं! यह चुनाव में हार के बाद की मनोवैज्ञानिक स्थिति का ही अंतर है।
वीडियो में देखिए, आरजेडी की हार के क्या कारण हैं
यही वजह है कि शिवानन्द तिवारी के बयान से आरजेडी ने ख़ुद को अलग कर लिया है। शिवानन्द तिवारी के बयान को इस नज़रिए से भी देखा जा सकता है कि वे समय देखकर और सिर्फ़ अपने लिए बयान देते हैं। आश्चर्य नहीं हो कि राहुल गाँधी पर निशाना साधते हुए शिवानन्द तिवारी एनडीए का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर रहे हों। मुमकिन है कि अपने बेटे को दूसरी बार आरजेडी विधायक बना लेने के बाद वे एक बार फिर पाला बदलने की सोच रहे हों। राज्यसभा सांसद नहीं बनने के कारण उन्होंने जेडीयू छोड़ी थी और आरजेडी में गये थे। मगर, आरजेडी ने ख़ुद जेडीयू के साथ महागठबंधन बना लिया था। तब से वे पार्टी में उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। शिवानन्द तिवारी के बयान से उन सभी लोगों को कांग्रेस के नेतृत्व पर उंगली उठाने का अवसर मिलेगा जो अवसर की तलाश में रहे हैं। मगर, बिहार विधानसभा चुनाव नतीजे की समीक्षा करते वक़्त कांग्रेस के साथ-साथ आरजेडी के फ़ैक्टर को ध्यान में रखने की ज़रूरत है। इसके बगैर समग्र और संतुलित समीक्षा नहीं हो सकती।