मुज़फ़्फ़रपुर में इंसेफेलाइटिस यानी चमकी बुखार का प्रकोप तो क़रीब एक पखवाड़ा पहले ही शुरू हो गया था, लेकिन स्वास्थ्य विभाग की टीमें अब जाकर सक्रिय दिख रही हैं। आसपास के क्षेत्रों से लेकर पटना और दिल्ली से मेडिकल टीमें पहुँची हैं। अतिरिक्त एम्बुलेंस और कर्मचारी भेजे गए हैं। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी, इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च, नेशनल सेंटर फॉर डिजीज़ कंट्रोल के डॉक्टर, महामारी के विशेषज्ञ, सूक्ष्म जीवविज्ञानी और स्वास्थ्य शोधकर्ता भी भेजे गए हैं। इस बीच शुक्रवार को ही पाँच और बच्चों की मौत भी हो गई। हालाँकि, स्थिति काफ़ी हद तक संभली है और शुक्रवार को क़रीब 100 बच्चों को छुट्टी भी दी गई है। लेकिन अफ़सोस की बात है कि जैसी तेज़ी अभी दिखाई जा रही है वह एक पखवाड़े पहले नहीं थी। हालाँकि चमकी बुखार से आधिकारिक तौर पर पहली मौत 29 अप्रैल को ही दर्ज कर ली गई थी। यह तब है जब इस क्षेत्र में इंसेफेलाइटिस का प्रकोप हर साल होता है।
बिहार में हर साल एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) यानी चमकी बुखार के कारण सैकड़ों बच्चों की जानें जाती हैं। इस बार भी बिहार के कई ज़िलों से एईएस के मामले सामने आए हैं। इस मौसम में अब तक इंसेफेलाइटिस के क़रीब 600 मामले आ चुके हैं और कम से कम 145 की मौतें हो चुकी हैं। 2012 और 2014 में तो मौतों की संख्या काफ़ी ज़्यादा रही। 2012 में 395 और 2014 में 372 बच्चों ने अपनी जान गँवा दी थी। 2012 में इसका प्रकोप मई से नवंबर तक रहा था। 2014 में यह मई से जुलाई तक था। इस बार इसका प्रकोप कितने समय तक चलेगा, यह कहना मुश्किल है। ज़िला प्रशासन के अधिकारियों और कुछ डॉक्टरों के बीच एक आम धारणा यह है कि बिहार में मानसून की बारिश शुरू होने के तुरंत बाद एईएस का प्रकोप ख़त्म हो जाता है। लेकिन ऐसा क्यों है? इसका कोई भी साफ़ जवाब नहीं देता है। यानी स्वास्थ्य महकमा और सरकारी तंत्र इस मामले में भी असफल साबित हुआ है।
तो यहाँ सवाल खड़ा होता है कि अस्पतालों में बदइंतज़ामी क्यों है? बेड कम क्यों पड़ जाते हैं। डॉक्टरों और स्टाफ़ की कमी क्यों है? जब यह बीमारी हर साल सैकड़ों मौतें निगल जाती है तो व्यवस्था दुरुस्त करने में ऐसी सरकारी लापरवाही क्यों?
श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (एसकेएमसीएच) के जनरल वार्ड के ऊपर पाँच आईसीयू हैं। इसमें से प्रत्येक आईसीयू में आठ बेड हैं। इनमें से हर बेड पर तीन-तीन बच्चे हैं। अस्पताल में संसाधनों की कमी के कारण ऐसी दिक़्क़तें आ रही हैं। शुरुआती मीडिया रिपोर्टों में कई ऐसी भी ख़बरें आई थीं जिसमें एसकेएमसीएच के डॉक्टरों ने ही दवाइयों की कमी की भी शिकायत की थी। हालाँकि बाद में अस्पताल प्रशासन ने दवाइयों की कमी से इनकार भी किया था और गोलमोल जवाब दे दिया था।
स्वास्थ्य महकमे में स्टाफ़ की कमी
चाहे एसकेएमसीएच हो या प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, सभी स्तरों पर कर्मचारियों की भारी कमी है। बुनियादी सुविधाओं या दवाओं की कमी से भी बड़ी समस्या डॉक्टरों, नर्सों, फ़ार्मासिस्टों, लैब तकनीशियनों और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की कमी है। हर तरह के और हर स्तर पर स्वीकृत पद मुज़फ़्फ़रपुर ही नहीं, सामान्य रूप से पूरे बिहार के स्वास्थ्य महकमे में खाली पड़े हैं।
‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ की रिपोर्ट के अनुसार, मुज़फ़्फ़रपुर से सटे वैशाली के एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से वरिष्ठ डॉक्टर ने कहा, ‘इस 24x7 स्वास्थ्य केंद्र में छह डॉक्टर होने चाहिए। हमारे पास केवल तीन हैं। सरकार ने एक आयुष (वैकल्पिक चिकित्सा), एक होमियो और एक दंत चिकित्सक को दिया है और कहा है- अब आपके पास छह हैं। लेकिन मरीज़ उनसे सलाह लेने से इनकार कर देते हैं। फिर वे किस काम के हैं?’
बता दें कि मुज़फ़्फ़रपुर में मेडिकल कॉलेज और ज़िला अस्पताल से जुड़े दो नर्स प्रशिक्षण केंद्र भी हैं। फिर भी, ज़्यादातर सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में नर्सों की भारी कमी है।
सरकारी तंत्र के क्रूर रवैए का नमूना
ऐसा भी नहीं है कि भारत में इस क़िस्म का मस्तिष्क ज्वर यानी चमकी बुखार पहली बार यूपी-बिहार में ही दर्ज किया गया हो। दरअसल, पहला मामला तमिलनाडु में 1955 के दौरान सामने आया था। पूर्वी उत्तर प्रदेश में तो 1978 के साल में हंगामा तब बरपा जब इस ज्वर ने 528 मरीजों को निगल लिया। आज भी इसके कुछ मरीज़ पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, झारखंड, असम, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में निकल आते हैं। लेकिन बदकिस्मती देखिए कि आंध्र और तमिलनाडु में जापानी मस्तिष्क ज्वर का आज नाम भी नहीं सुनाई देता, जबकि यूपी-बिहार में इसका तांडव बदस्तूर जारी है। क्या यह इलाक़े की घनघोर उपेक्षा और सरकारी तंत्र के क्रूर रवैए का नमूना नहीं है?