बिहार में लालू यादव का मुखर विरोध करने वाले भूमिहार लालू प्रसाद के बेटे तेजस्वी यादव के भी प्रिय हो गए हैं। भूमिहार-ब्राह्मण एकता मंच फाउंडेशन की ओर से आयोजित परशुराम जयंती पर तेजस्वी यादव ने कहा कि अगर भूमिहार समाज औऱ यादव एकजुट हो जाएं तो कोई हमें सत्ता से दूर नहीं कर सकता। तेजस्वी के इस अपील के बाद से बिहार की राजनीति में भूमिहारों का कद बढ़ने लगा।
भूमिहारों को अपना वोटर समझने वाली बीजेपी ने भी अपने रुख में परिवर्तन किया और उन्हें एक बार फिर से सम्मान देना शुरू कर दिया। तीन माह पूर्व बीजेपी ने सदन में विजय कुमार सिन्हा को विधायक दल का नेता बनाया। नेता प्रतिपक्ष विजय कुमार सिन्हा भी भूमिहार जाति से आते हैं। कांग्रेस ने ब्राह्मण की जगह भूमिहार जाति से आने वाले अखिलेश प्रसाद सिंह को अपना प्रदेश अध्यक्ष बनाया है। जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह भी
इसी जाति से आते हैं। लोजपा (रामविलास) प्रमुख चिराग पासवान ने भी भूमिहार जाति से संबंध रखने वाले डॉ अरुण कुमार को अपनी पार्टी में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष का पद दिया है।
क्यों खास हो गए भूमिहार
करीब तीन दशक तक बिहार की राजनीति में हाशिये पर रहने वाले भूमिहार हाल के दिनों में बिहार की राजनीति में क्यों खास हो गए। इस सवाल का जवाब देते हुए पूर्व मंत्री रामजतन सिन्हा कहते हैं कि बिहार में 90 के दशक में लालू प्रसाद ने सर्वणों के खिलाफ बिहार के दलित, पिछड़ा और अति पिछड़ा को एकजुट कर एक मजबूत फ्रंट बनाया, जो अब खंड-खंड में विभक्त हो गया। इसके विखरने के बाद सभी प्रमुख राजनीतिक दलों को लगने लगा है कि बिहार में सत्ता की कुर्सी पर काबिज होने के लिए एकजुट सवर्णों को अपने पक्ष में करना होगा। इसके बाद से ही बिहार में सभी राजनीतिक दल सवर्णों को अपने पक्ष में करने की कवायद शुरू कर दी है। चूंकि भूमिहारों ने सवर्णों में सबसे ज्यादा फ्रंट में रहकर लालू प्रसाद के 'भूरा बाल साफ करो अभियान' का विरोध किया इसलिए सभी राजनीतिक दलों की ये पहली पसंद बन गए हैं।
राजनीतिक विश्लेषक राजीव मिश्रा कहते हैं कि बिहार में चुनाव भले 2 साल के बाद होने है, लेकिन सभी राजनीतिक पार्टियां अपना समीकरण अभी से ही बनाने में जुट गई हैं। इस समीकरण को साधने के लिए अपने दल में शीर्ष पद पर सवर्ण को सेट करना शुरू कर दिया है। जेडीयू, आरजेडी, भाजपा, या फिर कांग्रेस इन चारों पार्टियों के शीर्ष पद पर किसी न किसी रूप में सवर्ण समाज के नेता शीर्ष पर हैं। इन सभी राजनीतिक दलों का टारगेट ऊंची जाति के वोटर हैं। पिछड़ों की राजनीति को बढ़ावा देकर स्थापित हुई यह पार्टियां अब सवर्ण वोटरों को रिझाने में लग गई है।
विरोध के बाद भी 21 सीटों पर कब्जा
बिहार विधानसभा के 243 में 21 सीटों पर भूमिहारों का कब्जा है। बात अगर सवर्णों की बात की जाए तो 243 सीटों वाली विधानसभा में 64 विधायक सवर्ण जाति से आते हैं। यह आकांडा तब है जब बिहार की कई प्रमुख राजनीतिक दल उनसे परहेज करती हैं। जहानाबाद के पूर्व सांसद डॉ अरुण कुमार कहते हैं कि हम अपने बल पर यह अंक प्राप्त करते हैं। क्योंकि हमारे अपने गांव में दलित- महादलित, पिछड़ा और अति पिछड़ा से आज भी काफी दोस्ताना संबंध है। सुख दुःख में हम एक दूसरे के साथ खड़े रहते हैं। यही कारण है कि वे हमें पार्टी और दल से ऊपर उठकर हमारा साथ देते हैं। जमीन पर हमारा यह काम ही बिहार की राजनीति में हमें दूसरों से अलग एक नयी पहचान देने का काम किया है। बिहार के राजनीतिक दल हमारे इस सरोकार को अपने वोट बैंक में बदलने के लिए हमें महत्व देने के लिए हमें पद और सम्मान देने का प्रयास कर रहे हैं।
बहरहाल किसी एक जाति की बात करें तो यादव जाति से सबसे ज्यादा 54 सदस्य विधान सभा पहुंचे हैं, जबकि पिछड़ा और अति पिछड़ी जाति से 46 सदस्य विधान सभा पहुंचे हैं। 39 दलित और महादलित जाति से हैं और सदन में मुस्लिम सदस्यों की संख्या 20 है। इससे साफ है कि अगर सवर्ण एकजुट होते हैं तो वो ही तय करेंगे कि बिहार में किसकी सरकार बनेगी। इसकी बानगी बिहार के कुढ़नी- बोचहां विधान सभा उपचुनाव में दिखी।
भूमिहार ही क्यों
कुढ़नी विधान सभा उपचुनाव में भूमिहारों ने जब बीजेपी को अपना समर्थन दिया तो यहां से बीजेपी हारी हुई बाजी जीत गई। वहीं बोचहां विधान उपचुनाव में भूमिहारों ने महागठबंधन को अपना समर्थन दिया तो यह सीट महागठबंधन ने जीत ली। यही कारण है कि प्रदेश की राजनीति में भूमिहारों का कद बढ़ा दिया है। आरजेडी ने भी बोचहां विधानसभा जीत के बाद इसे कैश करने का प्रयास किया था। एक नया नारा दिया था भूमाई (भूमिहार-मुस्लिम-यादव)। तेजस्वी यादव भूमिहारों को अपने पक्ष में करने के लिए उनकी सभा में जाने लगे तो बीजेपी ने अपने परंपरागत वोट बैंक को बचाने की कवायद शुरू की और वो इसमें सफल भी रही। बीजेपी को इसका कुढ़नी विधानसभा उप-चुनाव में लाभ भी मिला।