बीजेपी के दूसरे सबसे शक्तिशाली नेता अमित शाह ने डिजिटल रैली में एक बार फिर से दोहरा दिया कि एनडीए नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही विधानसभा का चुनाव लड़ेगा। शाह ये बात पहले भी कह चुके हैं और बीजेपी के दूसरे नेता भी इसे गाहे-बगाहे दोहराते रहते हैं। बिहार के मुख्यमंत्री सुशील मोदी ने हाल में कहा था कि जंग के बीच में कमांडर नहीं बदला जाता और हमारे कमांडर नीतीश ही रहेंगे। मगर बार-बार की घोषणाओं के बावजूद बिहार के चुनाव में अभी भी सब यही पूछ रहे हैं कि बीजेपी नीतीश को कब छोड़ेगी।
बीजेपी और नीतीश के साथ को लेकर संदेहों के कई कारण बताए जा रहे हैं। अव्वल तो ये कि नीतीश कुमार की अलोकप्रियता इस समय चरम पर है। बहुत से लोगों का तो यहाँ तक मानना है कि वे लालू यादव जितने अलोकप्रिय हो चुके हैं।
पंद्रह साल में नीतीश बिहार के लिए कुछ नहीं कर पाए हैं और उनके झूठे आँकड़ों का पर्दाफ़ाश हो चुका है। यानी जनता का उनसे मोहभंग हो चुका है और वे विकल्प की तलाश में हैं।
ख़ास तौर पर मुसलिम मतदाता तो इस बार कतई नीतीश को वोट देने के मूड में नहीं हैं, क्योंकि वे उसी बीजेपी के साथ खड़े हैं जो पूरे देश में मुसलमानों पर ज़ुल्म ढा रही है।
अमित शाह ने अपनी डिजिटल रैली में जिन मुद्दों को उठाया है, वे भी हिंदुत्व से जुड़े हुए हैं। ख़ास तौर पर सीएए और एनआरसी के। इसलिए तय है कि मुसलमान बीजेपी-जेडीयू गठबंधन से और दूर भागेंगे। ज़ाहिर है कि इससे जेडीयू का चुनावी समीकरण गड़बड़ा गया है और इसका असर चुनाव पर भी पड़ना लाज़िमी है।
बिहार में मुसलमानों की आबादी 16 फ़ीसदी है और वे 104 सीटों के नतीजों पर असर डालने की हैसियत रखते हैं। इनमें से 64 सीटों पर उनकी आबादी 25 से 30 फ़ीसदी तक है। माना जा रहा है कि इस बार मुसलिम मतदाता महागठबंधन के पक्ष में जाएंगे।
नीतीश भी कुछ समय से अनमने से दिख रहे हैं। मज़दूरों की वापसी और कोरोना से लड़ाई के मामले में ख़ास तौर पर वे नकारात्मक और सुस्त दिख रहे हैं। इससे अटकलें लगाई जा रही हैं कि दोनों के रिश्तों में कहीं तो कुछ गड़बड़ है, अंदर ही अंदर कोई तो खिचड़ी पक रही है।
अकेले नहीं लड़ सकती बीजेपी!
बीजेपी को भी इस बात का पता है, मगर उसे ये समझ में नहीं आ रहा कि नीतीश से कैसे पिंड छुड़ाए। वैसे भी अभी तक बीजेपी उन्हीं के कंधे पर सवार होकर सत्ता तक पहुँचती रही है। उसके नेताओं में इतना आत्मविश्वास नहीं दिख रहा कि पार्टी अकेले दम पर चुनाव लड़ने का जोखिम उठाए। नीतीश से अलग होने का सीधा ख़तरा उसे ये दिखता है कि राष्ट्रीय जनता दल या महागठबंधन को इसका लाभ मिल जाएगा।
नीतीश को साथ लेकर चलने के मामले में मोटे तौर पर दो तरह की राय सामने आ रही हैं। एक तो ये कि नेतृत्व के मामले में बीजेपी के पास कोई विकल्प नहीं है। इसीलिए कम से कम ये निर्णय तो उसने कर लिया है कि चुनाव नीतीश के नेतृत्व में ही लड़े। चुनाव के बाद अगर परिस्थितियाँ अनुकूल बन जाएं तो नीतीश की जगह बीजेपी के नेता को आगे करके उसके नेतृत्व में सरकार बनाई जाए। तब जेडीयू को तोड़ा भी जा सकता है और नीतीश को केंद्र में मंत्रिपद देकर रास्ते से अलग भी किया जा सकता है।
एक दूसरी राय ये कहती है कि बीजेपी के पास इस बार सुनहरा मौक़ा है जब वह पूरी तरह से अपनी सरकार बनाने का दाँव चल सकती है। पूरे उत्तर-पश्चिमी भारत में एक यही राज्य बचा है जहाँ बीजेपी की अगुआई वाली सरकार अभी तक नहीं बन पाई है।
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सहारा लेगी बीजेपी
इसलिए ये बहुत संभव है कि बीजेपी हिंदुत्व को आगे रखकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का खेल खेले और अगर सफलता मिले तो अपने दम पर और अगर कुछ कमी रहे तो दूसरे दलों को साथ लेकर सरकार बनाए। अमित शाह ने अपनी डिजिटल रैली में भी उन्हीं मुद्दों पर जोर दिया जो हिंदू मतदाताओं की भावनाओं को उभार सकते हैं।
दूसरे राज्यों, ख़ास तौर पर उत्तर प्रदेश में जातीय समीकरणों के आधार पर राजनीति करने वाले सपा-बसपा को पराजित करने में उसे इसी रणनीति के तहत सफलता मिली थी। जातियों में बँटे हिंदुओं को एक करने के लिए वह हिंदुत्व की छतरी का इस्तेमाल करने का ये फ़ॉर्मूला बिहार में नहीं आज़माएगी, इसमें संदेह लगता है।
तीसरे नंबर पर थी बीजेपी
ध्यान में रखने की बात है कि पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी सीटों के हिसाब से तीसरे नंबर पर थी मगर उसे सबसे अधिक करीब 24 फ़ीसदी वोट मिले थे। ये आरजेडी से 6 प्रतिशत और जेडीयू से आठ फीसदी ज़्यादा थे। ये तो तब था जब नीतीश कुमार महागठबंधन के हिस्सा थे और हिंदुत्व का प्रभाव अभी जैसा नहीं था। अगर इस बार वह वोटों में पाँच से सात फीसदी का इज़ाफ़ा कर ले तो सीटों में भी आगे निकल सकती है। ये मुश्किल तो है मगर नामुमकिन नहीं।
अभी चुनाव में तीन से चार महीने का समय है। इस दौरान बिहार में सांप्रदायिक राजनीति का बोलबाला रहने वाला है। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए हर हथकंडा आज़माया जाएगा। मुमकिन है कि कुछ जगहों पर दंगे भी करवाए जाएं। ऐसी सूरत में अगर किसी को फ़ायदा होगा तो बीजेपी को। एक बड़ा दंगा जातियों की गोलबंदी को ध्वस्त कर देता है और सांप्रदायिक राजनीति करने वाली पार्टियों के वारे न्यारे हो जाते हैं। उत्तर प्रदेश में मुज़फ्फरनगर दंगे के बाद यही हुआ था।
बहुत से लोगों का मानना है कि बीजेपी के पास नीतीश का कोई विकल्प नहीं है। सुशील मोदी या दूसरे बिहारी नेताओं में वह आकर्षण नहीं है कि वे मतदाताओं को लुभा सकें। रविशंकर प्रसाद और गिरिराज सिंह को केंद्र से लाकर प्रोजेक्ट किया जा सकता है, मगर उनमें भी वह जादू तो नहीं ही है।
वैसे, भावी मुख्यमंत्री के रूप में किसी को भी प्रोजेक्ट किया जाए, चुनाव तो मोदी और शाह ही लड़ेंगे। यानी चुनाव जिताने की ज़िम्मेदारी यही दो नेता अपने कंधों पर उठाएँगे। ऐसे में चुनावी खेल ही दूसरा रूप ले लेगा। उसमें मुख्यमंत्री पद का दावेदार कोई अहमियत नहीं रखेगा। फिर तो ये भी हो सकता है कि वह किसी को भावी मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट ही न करें।
नीतीश के पास विकल्प ही नहीं
सवाल उठता है कि क्या नीतीश जैसे चालाक नेता को बीजेपी की इन संभावित चालों का अंदाज़ा नहीं होगा ज़रूर होगा और वह उनकी काट के बारे में सोच भी रहे होंगे। लेकिन उनके सामने मुश्किल ये है कि कोई विकल्प ही नहीं बचा है।
नीतीश के पास विकल्प इसलिए नहीं बचा है क्योंकि वह राजद और काँग्रेस को धोखा दे चुके हैं, इसलिए उनकी कोई विश्वसनीयता भी नहीं बची है।
नीतीश बखूबी जानते हैं कि महागठबंधन में उनके लिए जगह नहीं बची है और अकेले चुनाव लड़ने का मतलब होगा पूरी तरह से सफाया। फिर ये भी माना जाता है कि मोदी-शाह उन्हें ब्लैकमेल कर रहे हैं। महागठबंधन को धोखा देकर बीजेपी के साथ उन्हें इसी वजह से जाना पड़ा था। अगर वह फैक्टर अभी भी काम कर रहा होगा तो बीजेपी की हाँ में हाँ मिलाना उनकी मजबूरी है।
ये भी हो सकता है कि नीतीश मुसलिम मतदाताओं को खिसकते देख बीजेपी के हिंदुत्व पर सवार हो जाएं। इससे उन्हें फ़ायदा हो सकता है और ऐसा वे अपनी तथाकथित सेकुलर छवि को बचाते हुए कर सकते हैं। चुनाव बाद भी वे अपनी रणनीति बना सकते हैं।
अलबत्ता इसकी संभावना कम ही लगती है कि वे एक अलग मोर्चा बनाकर चुनाव में उतरें, क्योंकि इससे उनका सफाया होना तय है। फिर लड़ाई बीजेपी और महागठबंधन के बीच हो जाएगी और वे सब कुछ गँवा देंगे।