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उर्दू को लेकर फरेब और नीतीश की छवि चमकाने की ऐसी कोशिश क्यों?

उर्दू को लेकर फरेब और नीतीश की छवि चमकाने की ऐसी कोशिश क्यों?

बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को अचानक उर्दू भाषा के हमदर्द के तौर पर पेश किया जा रहा है। हालांकि लंबे समय से नीतीश राज्य के सीएम हैं। बिहार के वरिष्ठ पत्रकार समी अहमद तथ्यों के साथ बता रहे हैं नीतीश के उर्दू फरेब की हकीकतः

बिहार में उर्दू हल्के की यह शिकायत रही है कि नीतीश कुमार की सरकार में उर्दू को पूरी तरह दरकिनार किया जा रहा है लेकिन इस हफ्ते एक फरेब भरी खबर में नीतीश कुमार की छवि चमकाने के लिए यह बताने की कोशिश की गई कि बिहार के सरकारी अधिकारियों को उर्दू सिखाई जाएगी।

यही नहीं जनता दल यूनाइटेड से जुड़े लोगों ने इसे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के उर्दू मुखालिफ बयान के मुकाबले में नीतीश कुमार के बड़े दिल के तौर पर सोशल मीडिया पर फैलाया और दावा किया कि योगी के उलट नीतीश कुमार उर्दू की कितनी भलाई चाहते हैं।

इस फरेब की वजह बनी उर्दू निदेशालय की वह खबर जिसमें सरकारी कर्मचारी और गैर सरकारी पेशेवरों के लिए उर्दू का कोर्स चलाया जाता है। इस कोर्स को करने के लिए कोई पाबंदी नहीं और यह कोर्स करने वाले की इच्छा पर निर्भर है कि वह करे या ना करे। इतना जरूर है कि कुछ गैर उर्दू तबके के लोग भी उर्दू का यह कोर्स करते हैं।

ऐसा लगता है कि जनता दल यूनाइटेड के सोशल मीडिया सेल ने इस खबर को प्लांट किया और मीडिया के बड़े हिस्से ने इसे बिना जांच पड़ताल के आगे बढ़ा दिया। असल में बिहार के मंत्रिमंडल सचिवालय विभाग के तहत उर्दू निदेशालय चलता है। यही उर्दू डायरेक्टरेट 2008 से गैर उर्दू भाषी सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों और विद्यार्थियों को उर्दू भाषा पढ़ने और लिखने की ट्रेनिंग देने के लिए प्रोग्राम चलाता है। तो जो काम इतने लंबे समय से चल रहा है उसे नीतीश कुमार के नए काम के तौर पर पेश किया गया और उनकी छवि चमकाने की कोशिश की गई।

दिलचस्प बात यह है कि उर्दू निदेशालय की वेबसाइट पर जो जानकारी दी गई है वह उर्दू में उपलब्ध नहीं है। यह जरूर है कि नीतीश कुमार की तस्वीर इस पर लगी हुई है। इसमें बस उर्दू डायरेक्टरेट, महकमा काबीना सेक्रेट्री, बिहार, पटना का लोगो ही उर्दू में है।

इस वेबसाइट पर यह जानकारी दी गई है कि बिहार राजभाषा संशोधन अधिनियम 1981 (बिहार अधिनियम-2 1981) के आलोक में विभिन्न चरणों में राज्य की द्वितीय राजभाषा के रूप में उर्दू के प्रयोग की स्वीकृति सभी 38 जिलों में दी गई है। इतने लंबे समय से बिहार में उर्दू द्वितीय राजभाषा है लेकिन उर्दू वालों का कहना है कि नीतीश सरकार में उर्दू की घोर उपेक्षा हो रही है।

उर्दू निदेशालय को मुख्य रूप से सात काम दिए गए हैं और उनमें से कोई काम होता हुआ नजर नहीं आ रहा है। इस फैसले के मुताबिक उर्दू में अर्जियां और आवेदन पत्रों की प्राप्ति और उर्दू में ही उनका उत्तर दिया जाना है लेकिन फिलहाल ऐसा काम नहीं हो रहा है। इसमें कहा गया है कि उर्दू में लिखित दस्तावेजों को निबंधन कार्यालय द्वारा स्वीकार किया जाएगा लेकिन हो इसके उलट रहा है और अब यह मांग की जा रही है कि जो उर्दू के लिखित दस्तावेज हैं उसे हिंदी में दिया जाए।

उर्दू भाषा अधिनियम के तहत सरकारी नियमों, विनियमों और अधिसूचनाओं का भी उर्दू में प्रकाशन होना है लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। इसी तरह कहा गया कि सार्वजनिक महत्व के सरकारी आदेशों और परिपत्रों को उर्दू में भी जारी किया जाएगा लेकिन यह घोषणा भी कागजों तक सीमित है।

इस अधिनियम में सरकारी विज्ञापनों को उर्दू में प्रकाशित करने की बात की गई है लेकिन सभी उर्दू अखबारों को आजकल केवल हिंदी में ही सरकारी विज्ञापन दिए जा रहे हैं। उर्दू अखबारों के संपादकों का कहना है कि अगर वह हिंदी में दिए गए विज्ञापनों को प्रकाशित नहीं करते हैं तो उन्हें उर्दू में विज्ञापन नहीं मिलता और इससे उन्हें आर्थिक घाटा हो सकता है।

उर्दू अधिनियम के तहत संकेत पट्टों का उर्दू में भी प्रदर्शन किया जाना है लेकिन कुछ जगहों को छोड़कर पूरे राज्य से शिलापट्टों और दूसरी जगह लगने वाले साइनेज से उर्दू को हटा दिया गया है। पहले अधिकारियों के नाम और पदनाम उर्दू में भी दिए जाते थे लेकिन अब उनके आवास और कार्यालय दोनों जगह से उर्दू को हटा दिया गया है। पटना में बने नए समाहरणालय में भी उर्दू का नामोनिशान नहीं मिलता। यहां तक कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जिन कार्यक्रमों में उद्घाटन और शिलान्यास करते हैं वहां भी उर्दू का नामोनिशान मिट चुका है।

उर्दू अधिनियम के तहत जिला गजट के उर्दू रूपांतरण के प्रकाशन की बात कही गई है लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं हो रहा है।

सरकारी कर्मचारियों को उर्दू भाषा सिखाने की जो फरेब भरी खबर फैलाई गई उससे कुछ ही दिनों पहले यह खबर भी आई थी कि बिहार सरकार ने राज्य के थानों में सहायक उर्दू अनुवादकों की भर्ती रद्द कर दी है। हालांकि इस फैसले को चुपचाप लागू किया गया और उसके बारे में कोई स्पष्टीकरण भी नहीं दिया गया। इसके तहत जो 1064 सहायक उर्दू अनुवादक थानों में बहस करने के लिए चयनित किये गए उनके बारे में अब कहा जा रहा है कि उन्हें सब डिवीजन और जिला मुख्यालय में रखा जाएगा। उर्दू तबके का कहना है कि थानों में जो आवेदन उर्दू में दिए जा सकते थे अब उसका रास्ता बंद हो चुका है।

बिहार सरकार के उर्दू निदेशालय की वेबसाइट पर उर्दू परामर्शदात्री समिति के गठन की बात भी कही गई है लेकिन वहां अभी ‘अंडर डेवलपमेंट’ लिखा हुआ है क्योंकि पिछले 6 सालों से इसका पुनर्गठन नहीं हुआ है। यही हाल 6 वर्षों से बिहार उर्दू अकादमी का भी है। बिहार के सरकारी स्कूलों में उर्दू शिक्षकों की घोर कमी है और जो छात्र उर्दू में पढ़ना चाहते हैं उन्हें उर्दू में किताबें नहीं मिल रही हैं। 

बिहार में दो केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं और उर्दू दूसरी राजभाषा होने के बावजूद इन दोनों जगह पर उर्दू की पढ़ाई नहीं कराई जाती है। हालांकि इसके लिए केंद्र सरकार जिम्मेदार है लेकिन बिहार सरकार द्वारा संचालित भागलपुर विश्वविद्यालय से भी खबर आई है कि उसके कई कॉलेजों में उर्दू की पढ़ाई की व्यवस्था नहीं है। दूसरे विश्वविद्यालयों में भी उर्दू विभाग में शिक्षकों की भारी कमी है।

कुल मिलाकर बिहार में नीतीश सरकार उर्दू का वही हाल कर चुकी है जो उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने किया है। फर्क केवल यह है कि नीतीश कुमार की चिकनी चुपड़ी बातों से इसकी चर्चा नहीं होती। बिहार में विधानसभा चुनाव को नजदीक आता देखकर तमाम तरह की गतिविधियों को अंजाम दिया जा रहा है। जेडीयू और नीतीश अपने उर्दू प्रेम से किनका वोट चाहते हैं, वो साफ हो गया है।

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