
अरुणाचल में धर्मांतरण विरोधी क़ानून पर विवाद क्यों?
बीते साल दिसंबर में अरुणाचल प्रदेश ने लंबे समय से निष्क्रिय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम यानी अरुणाचल प्रदेश फ्रीडम ऑफ़ रिलीजन एक्ट, 1978 को प्रभावी तरीक़े से लागू करने का फ़ैसला किया था। लेकिन अब खासकर ईसाई संगठन इसका बड़े पैमाने पर विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि इस क़ानून के ज़रिए धार्मिक आधार पर विभिन्न तबक़ों को बाँटने की कोशिश की जा रही है। इस पर विवाद बढ़ता ही जा रहा है। ईसाई संगठन इसका विरोध कर रहे हैं तो कई स्थानीय संगठन इसके समर्थन में हैं। दोनों गुट अपनी-अपनी मांगों के समर्थन में रैलियों का आयोजन करने में जुटे हैं।
इस मुद्दे पर बढ़ते विवाद को देखते हुए मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने कहा है कि सरकार इस मामले में जल्दबाजी में कोई फ़ैसला नहीं लेगी और संबंधित पक्षों से विचार-विमर्श के बाद ही इसका फ़ैसला किया जाएगा। इसके लिए सरकार अदालत से भी अतिरिक्त समय का अनुरोध करेगी।
मुख्यमंत्री ने विधानसभा में चर्चा के दौरान अपने भाषण में साफ़ कर दिया कि यह क़ानून किसी खास समुदाय को निशाना बनाने के लिए नहीं बना है। सरकार इस मामले में पूरी पारदर्शिता बरत रही है। लेकिन इसके बावजूद खासकर ईसाई संगठनों में इससे भारी नाराज़गी है। अरुणाचल क्रिश्चियन फोरम की दलील है कि यह अधिनियम ईसाइयों के लिए भेदभावपूर्ण है।
अरुणाचल प्रदेश सरकार ने हाईकोर्ट के निर्देश पर धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम को लागू करने की दिशा में पहल की है। वैसे, अरुणाचल प्रदेश फ्रीडम ऑफ़ रिलीजन एक्ट, 1978 नामक यह क़ानून तो विधानसभा ने वर्ष 1978 में ही पारित कर दिया था। लेकिन पी.के. थुंगन के नेतृत्व वाली तत्कालीन राज्य सरकार ने इसे लागू करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। दरअसल, उस समय राज्य में ईसाई मिशनरियां काफी सक्रिय थीं और बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हो रहा था। लेकिन सरकार को लगा कि इससे कहीं मिशनरियां नाराज़ न हो जाएँ। इसलिए इसे ठंढे बस्ते में डाल दिया गया था। मौजूदा मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने तब इस क़ानून को ईसाइयों को परेशान करने वाला क़रार देते हुए कहा था कि इससे आपसी सद्भाव को नुक़सान पहुंचेगा। क़रीब छह साल पहले तो सरकार ने इस क़ानून को खारिज करने की भी बात कही थी। लेकिन हाईकोर्ट के निर्देश के बाद उनके सुर बदल गए हैं।
द इंडीजीनस फेथ एंड कल्चरल सोसायटी ऑफ़ अरुणाचल प्रदेश यानी आईएफसीएसएपी नामक एक गैर-सरकारी संगठन ने इस क़ानून को लागू करने की मांग में गौहाटी हाईकोर्ट की ईटानगर पीठ में एक याचिका दायर की थी। इस पर सुनवाई के बाद अदालत ने सरकार को छह महीने के भीतर इसके नियम तय करने का निर्देश दिया था। यह समयसीमा इस साल जून में पूरी होगी।
इस अधिनियम में प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर धर्मांतरण कराने या इसकी कोशिश करने वालों को दो साल तक की सजा और 10 हजार तक के जुर्माने का प्रावधान है।
आज़ादी के बाद लंबे समय तक नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी यानी नेफा के नाम से परिचित सीमावर्ती राज्य अरुणाचल प्रदेश में वर्ष 1971 तक चर्च के क़दम नहीं पड़े थे। लेकिन 1971 में इसे नागरिक प्रशासन के तहत शामिल करने के बाद यहां बड़े पैमाने पर होने वाले धर्मांतरण की वजह से ईसाइयों की आबादी तेजी से बढ़ती रही और अब यह कुल आबादी में क़रीब 31 फ़ीसदी हैं।
अरुणाचल क्रिश्चियन फ़ोरम के महासचिव जेम्स टेची तारा का कहना है कि सरकार अदालती आदेश का हवाला देकर आम लोगों को गुमराह कर रही है। इसके ज़रिए सरकार राज्य में हिंदुत्व के अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रही है। फ़ोरम के मुताबिक़, यह अधिनियम असंवैधानिक है।
दूसरी ओर, आईएफसीएसएपी का दावा है कि राज्य के ग्रामीण इलाकों में अब भी बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन हो रहा है। तमाम जनजातियों को ईसाई बनाया जा रहा है। उसका कहना है कि राज्य की आदिवासी संस्कृति और स्थानीय आबादी की अस्मिता बचाने के लिए इस क़ानून को कड़ाई से लागू करना ज़रूरी है।
उधर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहयोगी संगठन अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम ने भी उक्त अधिनियम को शीघ्र अधिसूचित करने की मांग उठाई है। संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष सत्येंद्र सिंह ने कोलकाता में इस सप्ताह पत्रकारों से बातचीत में कहा था कि धर्मांतरण पर रोक लगाने वाले अधिनियम को अब तक अधिसूचित नहीं किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। उनका कहना था कि बीते 50 वर्षों के दौरान धर्मांतरण ने अरुणाचल की आदिवासी आबादी में से लगभग आधे को लील लिया है। उन्होंने राज्य की सांस्कृतिक पहचान को बचाने के लिए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से भी इस मामले में हस्तक्षेप की अपील की है।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि चार दशक पुराने उक्त अधिनियम के ज़रिए बीजेपी और आरएसएस अब इस ईसाई-बहुल राज्य में हिंदुत्व के अपने एजेंडे को आगे बढ़ा कर रहे हैं। राजधानी ईटानगर में एक राजनीतिक विश्लेषक टी. बसर कहते हैं कि यह क़ानून लोगों को धार्मिक आधार पर बाँटने का प्रयास है।