आधुनिक भारत के निर्माता बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर (14 अप्रैल 1891 से 6 दिसंबर 1956) ने भारत की एकता और अखंडता का सपना देखा। उनका मानना था कि जातिवाद और जातीय घृणा की वजह से देश का पतन हो रहा है और जब तक जातीय घृणा नहीं ख़त्म की जाती है, तब तक भारत का विकास संभव नहीं है। आम्बेडकर का मानना है कि जाति उन्मूलन से ही हिंदू एकता बनी रह सकती है। जाति के ख़ात्मे से ही सांप्रदायिकता ख़त्म होगी, क्योंकि जातिवाद और सांप्रदायिकता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण को सर्वोच्च मानने वाले आम्बेडकर का मानना है कि भारत में अनावश्यक व अनुपयोगी चिंतन हुए और भारतीय उसमें हज़ारों साल तक उलझे रहे। उसका कोई निष्कर्ष नहीं निकल सका। वहीं उनका यह भी मानना था कि कात्यायन, पाणिनि या कपिल के दर्शन भी वहीं अटक गए। उसके बाद उस पर कोई काम नहीं हुआ। डॉ. आंबेडकर प्रोफ़ेसर हरदयाल के हवाले से कहते हैं, ‘अध्यात्म विद्या भारत का कलंक रही है। उसने उसके इतिहास को चौपट किया है। उसे विनाश के गड्ढे में धकेल दिया है। उसने उसके महापुरुषों को दयनीय स्थिति में डालकर कोरा वितंडावादी बना दिया है और उन्हें निरर्थक जिज्ञासा और चेष्टा के गलियारों में भटका दिया है। उसने भारतीयों को इतना निकम्मा बना दिया है कि जिसमें वे सैकड़ों साल तक कोल्हू के बैल की भाँति उसी पुराने ढर्रे पर चलते रहें।’
आम्बेडकर को हमेशा इस बात का मलाल रहा कि भारत कुछ बुनियादी पारंपरिक ज्ञान से आगे नहीं बढ़ सका। मध्यकालीन और आधुनिक विश्व में बदलती तकनीकों से भारत अछूता रहा। जहाँ अन्य देशों में बारूद, तोपों का आविष्कार हुआ, भारत प्राचीन भाले-फरसे में ही उलझा रहा। मनुष्यों की सुविधाओं के लिए जहाँ बड़े पैमाने पर यूरोप में मिलों, मशीनों, विमानों, रेल इंजनों, मोटरवाहनों की खोज होती रही, भारत अपने दर्शन और अध्यात्म में ही लिप्त रह गया। भारतीय शोध और विकास पर आम्बेडकर का कहना था,
‘विज्ञान, कला और कौशल के क्षेत्र में हिंदू सभ्यता का योगदान अति आदिम स्वरूप का है। बुनाई, कताई आदि के कुछ क्षेत्रों को छोड़कर शेष में हिंदू सभ्यता ने कोई ऐसी तकनीक ईजाद नहीं की है, जो प्रकृति के विरुद्ध मानव के संघर्ष में उसकी मदद कर सके और वह ऐसा जीवनस्तर प्राप्त कर सके, जिसे बर्बर युग से ऊँचा कहा जा सके।’
आम्बेडकर भारत की इस दयनीय दशा के पीछे जाति और जातीय घृणा को ज़िम्मेदार मानते हैं। उनका साफ़ मानना था कि विभिन्न पेशों से जुड़े लोगों को सहूलियतें दी जानी चाहिए।
आम्बेडकर का मानना है कि देश का आर्थिक विकास तभी हो सकता है, जब संसाधनों का समुचित बँटवारा हो। जातीय आधार पर किसी का हक न तो छीना जाए, न किसी को जन्म के आधार पर हक दिया जाए।
उनका मानना है, ‘जाति भावनाओं से आर्थिक विकास रुकता है। इससे वे स्थितियाँ पैदा हो जाती हैं, जो कृषि तथा अन्य क्षेत्रों में सामूहिक प्रयत्नों के विरुद्ध हैं। जात-पात के रहते ग्रामीण विकास समाजवादी सिद्धांतों के विरुद्ध रहेगा। इसलिए जातिवाद के कारण जो बड़े-बड़े इजारे बन गए हैं, उन्हें तोड़ा जाए और ज़मीन उन लोगों में बाँट दी जाए जो उसे जोतते हैं या सामूहिक खेती कर सकते हैं, जिससे शहरों व गाँवों का तेज़ी से विकास हो।’
हिंदू होना...
हिंदुओं में तरह-तरह के विभाजन को वह विभिन्न धार्मिक समूहों के हमलों व उनकी विजय के लिए ज़िम्मेदार मानते हैं। आम्बेडकर का मानना है कि हिंदुओं की दृष्टि में हिंदू होना कोई अंतिम सामाजिक श्रेणी नहीं है। अंतिम श्रेणी है जाति या उपजाति। जब हिंदू आपस में मिलते हैं तो वे निश्चय ही पूछते हैं, ‘आपका परिचय’ अगर इस सवाल का जवाब दिया जाए कि मैं हिंदू हूँ तो वह संतोषजनक उत्तर नहीं होगा। निश्चय ही इसे अंतिम उत्तर के रूप में स्वीकार नहीं किया जाएगा। पूछताछ जारी रहेगी। निश्चय ही हिंदू उत्तर के बाद पूछा जाएगा, ‘कौन जात’ उसके बाद पूछा जाएगा, ‘कौन उपजात’ जब पूछने वाला अंतिम सामाजिक श्रेणी यानी जाति और उपजाति तक पहुँच जाएगा, तभी वह पूछताछ बंद करता है।
आम्बेडकर जातिवाद को सांप्रदायिकता से अलग करके नहीं देखते। वर्तमान में सांप्रदायिकता को देखें तो उसके आधार में जातिवाद नज़र आता है। ज़्यादातर मामलों में यह देखा जाता है कि अगर कोई व्यक्ति सांप्रदायिक है और किसी दूसरे धर्म का कट्टर विरोधी है तो वह जातिवादी होता है। आम्बेडकर ने जातिवाद को राष्ट्रवाद का शत्रु बताते हुए कहा था, ‘सही राष्ट्रवाद है जाति भावना का परित्याग। और जाति भावना गहन सांप्रदायिकता का ही रूप है।’
भारत का दर्शन, जातीय प्रणाली को श्रेष्ठ मानने वालों का एक बड़ा वर्ग है। इस वर्ग का मानना रहा है कि जाति व्यवस्था पेशों के मुताबिक़ बाँटी गई एक श्रेष्ठ व्यवस्था थी, जिसे बाद में जन्म से जोड़ दिया गया और उसमें छुआछूत आ गया।
वहीं आम्बेडकर का साफ़ कहना था कि जातीय घृणा भारतीय समाज के धार्मिक ढाँचे में ही मौजूद है। आम्बेडकर का कहना है कि जितनी ज़्यादा जातियाँ होंगी, उतना ही हिंदू धर्म में अलगाव-बिलगाव होगा। अगर हिंदू समाज जीवित रहना चाहता है तो उसे सोचना ही पड़ेगा कि वह संख्या में वृद्धि न करे, बल्कि अपनी एकात्मता में वृद्धि करे और इसका अर्थ है ‘जाति का उन्मूलन’।
भारत के विकास के मौजूदा सांप्रदायिक-धार्मिक-राजनीति के दौर में आम्बेडकर आज भी प्रासंगिक हैं, जिनका मानना था कि हिंदुओं में जब तक आपसी ऊँच-नीच और जातीय घृणा दूर नहीं की जाती और संसाधनों का उचित बँटवारा नहीं होता है, तब तक देश का विकास नहीं होगा। जनांदोलन चलाने वालों को भी विचार करना होगा कि केवल सांप्रदायिकता या धार्मिकता का विरोध किसी बड़े आंदोलन का आधार नहीं बन सकता। सामाजिक समता और आर्थिक समता की बात करना और ऐसे मसलों को उठाना जनांदोलनों की सफलता के लिए अनिवार्य है।