इतिहास के सीने में त्रासदी और उल्लास, दोनों समाये हुए हैं। किसका चयन करें, यह हमारी दृष्टि पर निर्भर है। ऐसा इस लेखक ने कहीं पढ़ा था।
“बांग्लादेश: संविधान से धर्मनिरपेक्ष शब्द हटाएंगे, मुज़ीब भी राष्ट्रपति नहीं रहेंगे, अंतरिम सरकार के अटॉर्नी जनरल ने समाजवाद शब्द भी हटाने को कहा है।“ (अमानुर रहमान, ढाका संवाददाता, भास्कर; 15 नवंबर, ‘24)
इस ख़बर से लेखक चिंतित है। कारण, 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम को महीनों कवर किया था और आज़ाद ढाका से ‘72 में लौटा था। भारत के कूटनीतिक व सैन्य सहयोग से ही तत्कालीन पूर्व पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) ने पश्चिमी पाकिस्तान से पूर्ण आज़ादी छीनी थी। अब वह फिर से ‘इस्लामी राष्ट्र’ बनने की राह पर है; जिस खंदक से वह निकला था, अब उसी में कूदने की कोशिश में है। निश्चित ही यह तक़लीफ़देह है। अब सम्भावी त्रासदी को बृहत् आकाश से देखा जाए।
हैरानी यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप की कोख से जन्म लेने वाले तीन स्वतंत्र राष्ट्र- भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश ‘ध्रुवीकरण, धार्मिक -मज़हबी कट्टरता, साम्प्रदायिक हिंसा और मध्ययुगीन प्रतिगामिता’ में झुलसने के लिए अभिशप्त हैं; पाकिस्तान विभाजन- 1947 से ही झुलस रहा है; भारत को लोकतंत्र व धर्मनिरपेक्षता के परिवेश में दशकों जीने के बाद उसे ‘बँटोगे तो कटोगे’ जैसे विषाक्त वायुमंडल में धकेला जा रहा है; और अब ढाका भी पुरानी खंदक में कूदने के लिए मचल रहा है। आख़िर ऐसा क्यों है?
इस लेखक ने पाकिस्तान की कई पत्रकारीय यात्रायें की हैं। भारत के कुछ बड़े साम्प्रदायिक दंगों (मुरादाबाद, मेरठ, नेल्ली हिंसा आदि) को भी कवर किया है। लेकिन, क़रीब आठ दशक की उपनिवेशवाद- मुक्त यात्रा करने के बावज़ूद तीनों देश मध्ययुगीन मानसिकता और ‘औपनिवेशिक हैंगओवर’ में धंसे रहना चाहते हैं। बेशक़, तीनों देशों का सांस्थानिक (संवैधानिक संस्थाएं), संरचनात्मक (स्ट्रक्चरल) और तकनीकी दृष्टि से आधुनिकीकरण हुआ है, लेकिन वैचारिक व व्यवहार की दृष्टि से वे जेन्युइन ‘आधुनिकता’ से दशकों -दूर हैं। तीनों देशों का नेतृत्व सुनियोजित ढंग से अपनी जनता को मिथकीय लोक की प्रजा मानसिकता में धकलने का षड्यंत्र रचता रहता है। जनता को चेतनशील नागरिक में रूपांतरित होने के मार्ग में धर्म-मज़हब, मंदिर-मस्ज़िद विवाद, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, अखंड भारत, विश्व गुरु, लव -भूमि- वोट जिहाद, दारुल -हरब (इस्लामी राज्य), दारुल -इस्लाम, दारुल अमन जैसे नारों के बैरिकेड खड़े कर दिए जाते हैं। नतीजतन, तीनों देशों की जनता फिर से पूर्व-औपनिवेशिक मानसिकता की चपेट में आने लगती है। निश्चित ही, यह स्थिति शासकों को सत्ता में बनाये रखने में सौ प्रतिशत मददगार साबित होती आ रही है।
निश्चित ही, भारत में पिछले एक दशक में इस मध्युगीन मनोदशा ने चमत्कारिक परिणाम सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा और उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पक्ष में दिलवाए हैं। इस प्रजा मानसिकता ने संघ परिवार के हाथों में एक नायाब शस्त्र को थमा दिया है; जब भी नाव संकट में लगे और चुनाव क़रीब हों- धार्मिक भाषा, प्रतीकों, उपमाओं, रूपकों और मुद्दों को उछाल दो; ध्रुवीकरण की रफ़्तार तेज़ कर दो; हिन्दू और हिन्दू धर्म संकट में हैं; वे भूमि, मवेशियों और मंगलसूत्र छीन ले जायेंगे। यह भी विचित्र संयोग है कि अगस्त में बांग्लादेश में शेख हसीना सरकार के पतन के बाद वहां के मुस्लिम बहुसंख्यकों का नज़ला अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर बरपा। इसी तरह पाकिस्तान में किसी भी अल्पसंख्यक को ‘ईश निंदा क़ानून’ के तहत फंसाया जा सकता है। उसे फांसी दिलवाई जा सकती है। अल्पसंख्यकों के विरुद्ध मुस्लिम बहुसंख्यक समाज के हाथों में ‘अचूक हथियार’ है। इसका भारतीय संस्करण है - लव जिहाद, गौरक्षा व भीड़ हिंसा, ‘बँटोगे तो कटोगे’। अब बांग्लादेश भी पाकिस्तान के नक़्शे क़दम पर चलने के लिए बेताब है। याद आया, जब यह लेखक जनवरी, 72 में ढाका से भारत लौटा था, तब कतिपय पत्रकारों ने कहा था कि इस्लामी कट्टरपंथी और अमेरिका मुजीबुर रहमान को ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे। चार साल बाद 15 अगस्त, 1975 को सैन्य विद्रोह में उनकी हत्या कर दी गई थी। विवरण लेखक की आत्मकथा ‘मैं बोनसाई अपने समय का’ में दर्ज़ है।
यह भी विचित्र संयोग है कि ढाका से बांग्लादेश के इस्लामीकरण की ख़बरें ऐसे वक़्त आ रही हैं जब भारत में कुछ राज्यों के चुनाव हो रहे हैं, और अगले साल भी होने जा रहे हैं। निश्चित ही ऐसी ख़बरों से भारत में हिन्दुओं और मुसलमानों के ध्रुवीकरण की प्रक्रिया में सहयोग मिलेगा।
‘बँटोगे तो कटोगे’ जैसा नारा पंचम स्वर में महाराष्ट्र, झारखण्ड सहित शेष भारत में गूंजेगा। अगले साल कई राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। गौरतलब यह है कि न तो पाकिस्तान और न ही बांग्लादेश अभी तक ’दारुल अमन’ बन सके हैं। दोनों ही मुस्लिम देशों में गहरी अशांति है। अब हमारे देश की चरम दक्षिणपंथी ताक़तें भारत को भी अशांत बनाने पर आमादा हैं। ये ताक़तें भूल रही हैं कि धर्म- मजहब के आधार पर किसी भी राष्ट्र को एकजुट रखा नहीं जा सकता। क्या पाकिस्तान एक रह सका? क्या अभी पाकिस्तान के बलूचिस्तान में बगावत नहीं हो रही है? क्या अफगानिस्तान में अमन चैन का दरिया बह रहा है? क्या औरतों को तालीम से दूर नहीं रखा जा रहा है? तीनों ही जगह सुन्नी समुदाय सत्ता में हैं। इसी तरह ईरान- इराक़ जंग नहीं हुई? करीब 8- 9 साल दोनों देश लड़ते रहे। लाखों लोग मरे। दोनों ही देशों में शिया लोग सत्ता में हैं। क्या इन दोनों शिया देशों में ’दारुल अमन’ है? इत्तफाक से यह लेखक ईरान और अफगानिस्तान की यात्राएं भी कर चुका है। सारांश में, धर्म -मजहब से राष्ट्र महान बना नहीं करते और न ही अखंड रहते हैं। जब तक जनता को ज्ञान, विवेक, सहमति, असहमति और सच्ची नागरिकता से समृद्ध नहीं किया जाता है, तब तक कोई देश महान नहीं कहलाता है।
क्या सत्तारूढ़ हिंदुत्ववादी शक्तियाँ इतिहास के इस कटु यथार्थ से कोई सबक़ लेंगी या सत्ता में बने रहने के लिए ’बँटोगे तो कटोगे’ का हथियार चलाते हुए देश को अशांति की अग्नि में झोंकती रहेंगी?
जनता को याद रखना चाहिए, शासक का एक ही धर्म होता है, और वह है सिंहासन या सत्ता। बाबर ने अपनी आत्मकथा ’बाबरनामा’ में इस सच्चाई को स्पष्टरूप से स्वीकार किया है। अपने हजारों सहधर्मियों का क़त्ल करने के बाद ही वह आगरा पहुंच सका था। क्या पाकिस्तान में शिया-सुन्नी हिंसा नहीं है? क्या कट्टरपंथी तंजीम ’इस्लामी स्टेट ऑफ इराक़ और सीरिया’ अपने ही सहधर्मियों को नहीं मार रहे हैं? क्या तुर्की और कुर्दिश मुसलमानों के बीच हिंसक झड़पें नहीं हो रही हैं? क्या कनाडा में फ्रेंच भाषी क्यूबेक के लोग स्वतंत्र देश की मांग नहीं कर रहे हैं, जबकि इंग्लिशभाषी भी ईसाई हैं। इस सदी में केवल धर्म या मजहब के आधार पर किसी भी देश को अखण्ड नहीं रखा जा सकेगा। राष्ट्र को एकताबद्ध रखने के लिए और भी कई फैक्टर हैं, जिनकी अनदेखी देश के लिए जोखिमभरी सिद्ध हो सकती है। अतः योगी आदित्यनाथ का नारा चुनावों में उपयोगी हो सकता है। लेकिन, देश की एकता, समतावादी लोकतंत्र और संविधान के राज के लिए ख़तरे का सूचक ही रहेगा। अब भारत की जनता और नेतृत्व पर निर्भर है कि उनका चयन त्रासदी है या उल्लास। दूसरे शब्दों में, देश को दुखांत पसंद है या सुखांत?