अयोध्या: 1886 तक मसजिद के बाहर वाला चबूतरा ही जन्मस्थान माना जाता था

10:55 am Nov 16, 2019 | नीरेंद्र नागर - सत्य हिन्दी

अयोध्या विवाद में हिंदू पक्ष का मुख्य दावा यह था कि बाबरी मसजिद वहाँ पहले से मौजूद राम जन्मस्थान मंदिर को तोड़कर बनाई गई थी। उनका यह भी दावा था कि जहाँ मसजिद का मुख्य गुंबद था, उसके नीचे ही राम ने जन्म लिया था। उन्होंने यह भी कहा कि हिंदू उस मसजिद के अंदर जाते थे और पूजा करते थे।

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में हिंदू पक्षों द्वारा पेश सबूतों पर ग़ौर किया और यह पाया कि धर्मग्रंथ इस मामले में कोई रोशनी नहीं डालते कि राम की जन्मस्थली ठीक-ठीक कहाँ है सिवाय इसके कि वह अयोध्या में है और सरयू नदी के किनारे है। हाँ, स्कंदपुराण के अयोध्या माहात्म्य में यह ज़रूर लिखा है कि जन्मस्थान के पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में कौन-कौनसे मंदिर या आश्रम हैं। लेकिन इससे कोई लाभ नहीं हुआ क्योंकि ये मंदिर या आश्रम आज कहीं नहीं हैं।

क्या कहा था विदेशी सैलानियों ने

इसके बाद कोर्ट ने उन विदेशियों के लिखे पर ग़ौर किया जो 1528 के बाद अयोध्या आए, यह जानने के लिए कि क्या उन्होंने अपने समय में उन मंदिरों-आश्रमों को देखा था। इस मामले में भी पता चला कि 1700 से पहले मैनुच्ची, फ़िंच आदि जो विदेशी आए, उन्होंने रामकोट नामक स्थान पर कुछ खंडहरों का ज़िक्र किया है। लेकिन वहाँ कोई मसजिद थी, ऐसा उन्होंने नहीं लिखा। यूरोपीय पादरी टीफ़ेनटेलर ने 1766-71 में पहली बार वहाँ मसजिद होने का ज़िक्र किया।

इन विदेशी सैलानियों के ब्यौरों से लगता है कि रामकोट इलाक़े में पहले कुछ मंदिरों के खंडहर थे और बाबर या औरंगजेब, जिसने भी मसजिद बनाई, वह इन खंडहरों के ऊपर बनी थी। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अनुसार ये मंदिर 12वीं शताब्दी के थे, लेकिन हिंदुओं का मत है कि यहाँ पहले राजा दशरथ का महल था और राम यहीं पैदा हुए थे। यह मान्यता इतनी प्रबल है कि आगे चलकर इस मसजिद को बाबरी मसजिद के बजाय जन्मस्थान मसजिद कहा जाने लगा और दस्तावेज़ों में भी यही लिखा जाने लगा।

1886 : ज़िला जज ने चबूतरे को राम जन्मस्थान बताया

लेकिन पेच फँसता है इसपर कि जन्मस्थान था कहाँ मसजिद के भीतर या बाहर 

टीफ़ेनटेलर ने राम जन्मस्थान जिस जगह को बताया, वह मसजिद की इमारत के बाहर बाईं तरफ़ था जहाँ एक चबूतरा बना हुआ था और जिसके बारे में उन्हें बताया गया था कि विष्णु भगवान ने राम के रूप में ‘इसी जगह’ जन्म लिया था।

जन्मस्थान मसजिद से बाहर था, इस मत को इस तथ्य से भी बल मिलता है कि उनकी यात्रा के 125 साल बाद यानी 1885 में जब चबूतरे वाले इलाक़े पर क़ाबिज़ महंत रघुबर दास ने अदालत में केस किया तो उनकी माँग यही थी कि उनको चबूतरे पर मंदिर बनाने से नहीं रोका जाए। उनकी माँग तब ख़ारिज हो गई थी लेकिन देखिए कि ज़िला जज ने विवादित स्थल का मुआयना करने के बाद जो रिपोर्ट दी थी, उसमें उन्होंने क्या लिखा था। 

जन्मस्थान मसजिद के आसपास वाले मैदान में है : कमिश्नर

अहाते में प्रवेश एक दरवाज़े के नीचे से है, जिसके ऊपर 'अल्लाह' लिखा हुआ है। इसके ठीक बाई तरफ़ एक ईंट-गारे का चबूतरा है, जिसपर हिंदुओं का क़ब्ज़ा है। इसके ऊपर तंबू के रूप में लकड़ी का बना एक ढाँचा है। यह चबूतरा रामचंद्र के जन्मस्थान को इंगित करता है।

ज़िला जज ने भी जब महंत रघुबर दास को मंदिर बनाने की इजाज़त नहीं दी तो उन्होंने अवध के न्यायिक कमिश्नर के पास अपील दायर की। देखिए, कमिश्नर उस चबूतरे के बारे में क्या लिखते हैं।

मामला बस इतना है कि अयोध्या के हिंदू अयोध्या के उस कथित पवित्र स्थान पर संगमरमर का एक नया मंदिर बनाना चाहते हैं जिसको वे श्री रामचंद्र का जन्मस्थान मानते हैं। अब यह जगह एक मसजिद के आसपास के मैदान के अंदर पड़ती है।

ध्यान दीजिए, वे यह नहीं लिख रहे कि हिंदू मसजिद के अंदर कोई मंदिर बनाना चाहते थे। उन्होंने साफ़ लिखा है कि हिंदू जिस स्थान को राम का जन्मस्थान मानते थे, वह मसजिद के बाहर के मैदान में पड़ता है। 

इसके साथ वे यह भी लिखते हैं -

हिंदुओं को मसजिद के आसपास के इलाक़े में बने कुछ स्थलों में प्रवेश का बहुत सीमित अधिकार है और वे कई सालो से इन अधिकारों में वृद्धि के लिए तथा (इन) दो स्थलों पर भवन बनाने का लगातार प्रयास कर रहे हैं। 1. सीता की रसोई, 2 रामचंद्र की जन्मभूमि।

1857 : हिंसा के बाद मसजिद परिसर का बँटवारा

कमिश्नर का यह कहना कि हिंदुओं को पिछले कई सालों से मसजिद के आसपास के इलाक़ों में प्रवेश का ‘सीमित अधिकार’ था, थोड़ा चौंकाता है। वह इसलिए कि कोई 30 साल पहले यानी 1856-57 में मसजिद और उसके आसपास के इलाक़े को एक रेलिंग से दो भागों में बाँट दिया गया था। मसजिद का इलाक़ा मुसलमानों को और उसके बाहर का इलाक़ा हिंदुओं को दे दिया गया था। इस बाहरी इलाक़े में ही राम चबूतरा और सीता की रसोई पड़ते थे।

कमिश्नर के कहे का अर्थ क्या यह है कि हिंदू विभाजन के बावजूद इन जगहों पर आसानी से आ-जा नहीं सकते थे। यदि ऐसा है तो सुप्रीम कोर्ट ने यह किस आधार पर कह दिया कि 1857 के बाद बाहरी अहाते में हिंदुओं का अबाध और लगातार क़ब्ज़ा था

यह विभाजन क्यों और किन हालात में हुआ था, इसकी जानकारी हमें 1870 में अवध के तत्कालीन प्रभारी कमिश्नर और सेटलमेंट ऑफ़िसर पी. कार्नेगी की रिपोर्ट ‘Histrorical sketch of Faizabad with old capitals Ayodhya and Fyzabad’से मिलती है जिसमें उन्होंने 1855 में हुई भीषण हिंसा के बारे में बताया है। 

अयोध्या के तीन धर्मस्थल

जन्मस्थान और दूसरे मंदिर - स्थानीय लोग बताते हैं जब मुसलमानों का क़ब्ज़ा हुआ तो अयोध्या में तीन हिंदू धर्मस्थल थे, हालाँकि तब यह लगभग उजाड़ ही था और ज़्यादा तीर्थयात्री नहीं आते थे। ये थे जन्मस्थान, स्वर्गद्वार मंदिर जिसे राम दरबार भी कहा जाता था और त्रेता का ठाकुर। इनमें से सबसे पहले शहंशाह बाबर ने मसजिद बनवा दी और इससे अब भी उनका नाम जुड़ा हुआ है। दूसरे में औरंगजेब ने वही किया और तीसरे में औरंगजेब ने या उनके पूर्ववर्ती ने मसजिद बनवाई।

स्पष्ट है कि कार्नेगी जो लिख रहे हैं, वह स्थानीय लोगों के हवाले से है। यानी किसने और कब मसजिद बनाई, उसपर भरोसा नहीं किया जा सकता। परंतु इससे यह पता चलता है कि उस दौर में मसजिद या मसजिद परिसर को ही जन्मस्थान कहा जाता था। यह बात उनकी आगे की रिपोर्ट से भी ज़ाहिर होती है।

1855 का हिन्दू-मुसलमान संघर्ष

जन्मस्थान हनुमान गढ़ी से सौ क़दमों की दूरी पर है। 1855 में जब हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बहुत बड़ा बवाल हुआ, हिंदुओं ने हनुमान गढ़ी पर क़ब्ज़ा कर लिया और मुसलमानों ने जन्मस्थान पर। उस समय मुसलमान हनुमान गढ़ी की सीढ़ियों तक पहुँच गए थे लेकिन उनको मुँह की खानी पड़ी और उन्हें भारी हानि भी हुई। इस सफलता के बाद हिंदुओं ने जन्मस्थान पर हमला बोल दिया और तीसरी कोशिश के बाद उसपर क़ब्ज़ा कर लिया। जन्मस्थान के दरवाज़े पर 75 मुसलमानों को दफ़ना दिया गया। इस जगह को गंज-ए-शहीदाँ कहते हैं। राजा की कई टुकड़ियाँ हालात पर निगाह रखे हुए थीं। लेकिन उनको हस्तक्षेप न करने का आदेश था।

कहा जाता है कि उस समय तक हिंदू और मुसलमान दोनों इस मंदिर-मसजिद में पूजा-इबादत किया करते थे। ब्रिटिश शासन के बाद वहाँ एक बाड़ लगा दी गई, ताकि दोनों में कोई विवाद न हो। मसजिद के भीतर मुसलमान नमाज़ पढ़ते हैं, जबकि बाड़ के बाहर हिंदुओं ने एक चबूतरा बना दिया है, जिसपर वे उसपर पूजा-अर्चना करते हैं।

कार्नेगी की यह रिपोर्ट हिंसा की उस घटना के पंद्रह साल बाद ही लिखी गई है इसलिए माना जा सकता है कि वह सच्चाई के काफ़ी क़रीब रही होगी (देखें नक्शा)।

1855 में यह हिंसक मुठभेड़ हुई थी। अगले साल यानी 1856 में अंग्रेजों ने अवध राज्य को हथिया लिया और 1857 में बाड़ लगाने का काम हुआ। कार्नेगी ने (लोगों के हवाले से) कहा है कि 1855 के झगड़े से पहले हिंदू-मुसलमान दोनों इस मंदिर-मसजिद में जाते थे।

यह जानकारी बहुत महत्वपूर्ण है और इसी के आधार पर संभवतः सुप्रीम कोर्ट ने मुसलिम पक्ष का यह दावा ठुकरा दिया कि 1528 में मसजिद बनने के बाद मुसलमानों का मसजिद पर लगातार, अबाध और शांतिपूर्ण क़ब्ज़ा रहा है। उसने माना कि 1857 से पहले दोनों पक्ष बाबरी मसजिद जिसे हिंदू जन्मस्थान कहते थे, जाते थे।

कैसे होता था साझा इस्तेमाल

लेकिन कार्नेगी के इस विवरण से यह नहीं पता चला कि 1857 से पहले संपत्ति का यह साझा इस्तेमाल किस तरह होता था। क्या हिंदू और मुसलमान दोनों तीन गुंबदों वाले मुख्य भवन में जाते थे या हिंदू केवल राम चबूतरे पर पूजा करते थे और मुसलमान मसजिद में जाते थे टीफ़ेनटेलर ने मसजिद के बाहर स्थित जिस चबूतरे की बात की थी और लिखा था कि वहाँ विष्णु ने राम के रूप में जन्म लिया था, हो सकता है, हिंदू उसी जगह पर जाते हों और मुसलमान मसजिद के भीतर। अंग्रेज़ी शासन ने रेलिंग लगाकर दोनों के बीच जो बँटवारा किया था, वह भी इसी तरह से था कि मुसलमान मसजिद में जाएँ और हिंदू बाहर चबूतरे और सीता रसोई पर पूजा करें।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा नहीं माना। कोर्ट ने सबूतों के आधार पर ये संभावनाएँ देखीं कि हिंदू 1857 से पहले भी मसजिद परिसर में जाते थे और इससे उनको कोई अंतर नहीं पड़ता था कि वह भवन मसजिदनुमा है। त्यौहारों के मौक़ों पर वहाँ होने वाले जमावड़े और हिंदुओं द्वारा पूजास्थलों की परिक्रमा करने के विवरणों के आधार पर जजों ने यह अनुमान लगाया। 

परिक्रमा मसजिद की या राम चबूतरे की

लेकिन वे किसकी परिक्रमा करते थे क्या विवादित भवन की या राम चबूतरे और सीता रसोई की टीफ़ेनटेलर ने अपने विवरण में सबसे पहले सीता रसोई का ज़िक्र करते हुए लिखा है - एक जगह जो ख़ास तौर पर विख्यात है, वह है सीता रसोई जो मिट्टी के एक टीले पर स्थित है।

इसके बाद वे औरंगजेब द्वारा राम के क़िले को ढहाने की बात करते हैं और आगे चलकर मसजिद के बाहर के चबूतरे की। चबूतरे पर राम और उनके भाइयों के जन्म के बारे में प्रचलित मान्यता के ठीक बाद वह लिखते हैं - 

बाद में औरंगज़ेब ने या कुछ के अनुसार बाबर ने इस जगह को तुड़वा दिया ताकि कुलीन लोग अपनी आस्था का पालन न कर सकें। लेकिन इसके बावजूद यहाँ तथा कहीं और भी कुछ धार्मिक रीतियाँ जारी हैं। मसलन जिस जगह पर राम का मूल निवास था, वहाँ वे तीन बार परिक्रमा करते हैं और साष्टांग दंडवत् करते हैं। ये दोनों स्थान नीची दीवार से घिरे हुए हैं जिनमें प्राचीर भी बना हुआ है। सामने के कक्ष में दाख़िल होने के लिए एक अर्धवृत्ताकार द्वार से प्रवेश करना पड़ता है।

हिंदू पक्ष का मत है और सुप्रीम कोर्ट के जज भी उनसे सहमत लगते हैं कि जिस जगह के चारों तरफ़ परिक्रमा की बात की गई है, वह बाबरी मसजिद ही है और जिस स्थान के सामने साष्टांग दंडवत् करने का उल्लेख किया गया है, वह राम जन्मस्थान है।

इसके समर्थन में वे 1950 के मुक़दमे में कोर्ट द्वारा तैयार किए गए उस नक़्शे का भी हवाला देते हैं जिसमें मसजिद के चारों तरफ़ परिक्रमा मार्ग दिखलाया गया है। लेकिन यह बात भी ग़ौर करने की है कि उससे पहले के किसी भी नक़्शे में 'परिक्रमा मार्ग’ नहीं दिखलाया गया है। मसलन 1885 के मुक़दमे में तैयार किए गए नक़्शे में परिक्रमा मार्ग का कोई ज़िक्र नहीं है न ही उस मुक़दमे में किसी भी पक्ष ने मसजिद के चारों तरफ़ होने वाली किसी परिक्रमा का हवाला दिया है।

कब बना था चबूतरा

बल्कि जैसा कि हमने ऊपर देखा, उस केस के ज़िला जज और न्यायिक कमिश्नर दोनों ने स्पष्ट किया था कि हिंदू मसजिद के बाहर स्थित राम चबूतरे को ही राम का जन्मस्थान मानते थे और इसी कारण वहाँ मंदिर बनवाने को उतारू/उत्सुक थे।

बात घूम-फिरकर फिर से चबूतरे पर आ गई।

चबूतरा 1857 में बना या 1766 के पहले से था

चबूतरे का महत्व सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है और रोचक तथ्य यह है कि ‘मसजिद के बाहर’ बाईं तरफ़ स्थित इस चबूतरे के आधार पर ही उसने निष्कर्ष निकाला है कि राम का जन्मस्थान 'मसजिद के अंदर’ गुंबद के नीचे था। आइए, देखें कैसे।

कोर्ट का मानना है कि 1857 में रेलिंग के निर्माण के बाद मसजिद के बीच वाले गुंबद से क़रीब 100 फुट की दूरी पर रेलिंग के ठीक पास इस चबूतरे के निर्माण को इमारत के भीतर पूजा करने के हिंदुओं के अधिकार की अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाना चाहिए। 

दूसरे शब्दों में कोर्ट यह मानता है कि चूँकि 1857 में हिंदुओं को पहले की तरह मसजिद में प्रवेश करने से रोक दिया गया, इसीलिए उन्होंने प्रतीकात्मक तौर पर तब मसजिद के बाहर लेकिन रेलिंग के निकट यह चबूतरा बनवाया।

लेकिन कोर्ट ने, लगता है, यहाँ एक भारी चूक कर दी है। वह यह कैसे कह सकता है कि यह चबूतरा 1857 में या उसके आसपास रेलिंग बनने के बाद बना है जबकि योज़ेफ़ टीफ़ेनटेलर 1766-71 में ही लिख गए थे कि मसजिद के बाईं ओर एक वर्गाकार चबूतरा है जिसे हिंदू राम का जन्मस्थान मानते हैं

स्पष्ट है कि चबूतरे के निर्माण काल के बारे में कोर्ट का अनुमान ग़लत है। चबूतरा 1857 में नहीं, 1766 से पहले बना था।

मसजिद के बाहर चबूतरा क्यों

अब आख़िरी लेकिन सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह कि 1857 से पहले यदि विवादित इमारत हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों के द्वारा इस्तेमाल की जाती थी जैसा कि कार्नेगी लिखते हैं और जिसे कोर्ट ने भी स्वीकार किया है। फिर क्या वजह थी कि हिंदुओं ने 1766 से पहले मसजिद के बाहर यह चबूतरा बनवाया यदि हिंदू शुरू से गुंबद के नीचे वाली जगह को ही राम जन्मस्थान मानते थे और वहाँ आसानी से प्रवेश और पूजा-पाठ कर पा रहे थे (जैसा कि सुप्रीम कोर्ट मानता है) तो उनको मसजिद के बाहर चबूतरा बनाने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी चबूतरा बनाने की ज़रूरत तो तभी पैदा हो सकती थी यदि उनको मसजिद में प्रवेश करने की अनुमति नहीं रही होती जैसा कि सुप्रीम कोर्ट 1857 में चबूतरा बनाने की आवश्यकता के पीछे की वजह देखते हुए कह रहा है।

ऐसे में इन दोनों में कोई एक बात ही सही हो सकती है।

1766 से पहले हिंदुओं ने मसजिद के बाहर चबूतरा इसलिए बनवाया कि वे मुख्य इमारत में नहीं जा पा रहे थे, हालाँकि उसी को वे राम का असली जन्मस्थान मानते थे।

हिंदू मसजिद के बाहर वाले चबूतरे को ही जन्मस्थान मानते थे, और इस कारण मसजिद के भीतर जाने की उनको कोई ज़रूरत नहीं थी, न ही वे जाते थे।

सच चाहे जो हो, दोनों ही स्थितियों में निष्कर्ष यही निकलता है कि (कम-से-कम) 1776 से पहले हिंदू मसजिद में नहीं जा पा रहे थे या नहीं जा रहे थे क्योंकि उनको जाने की ज़रूरत ही नहीं थी।

इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने यह अनुमान लगा लिया कि 1857 से पहले हिंदू न केवल विवादित भवन में जा रहे थे, बल्कि बिना किसी रोकटोक के, आसानी से जा रहे थे। यही नहीं, मुसलमानों से ज़्यादा उस भवन का उपयोग कर रहे थे और इस आधार पर विवादित संपत्ति हिंदुओं के हवाले कर दी।

यह सही है और अच्छी बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपना फ़ैसला इस आधार पर नहीं दिया है कि राम जन्मस्थान मसजिद के अंदर या बाहर। उसने फ़ैसला क़ब्ज़े के आधार पर दिया है कि 1949 में मसजिद में मूर्तियाँ रखे जाने से पहले उस पूरे मसजिद परिसर पर किसका ज़्यादा नियंत्रण होने की संभावनाएँ नज़र आती हैं।

लेकिन जब क़ब्ज़ा या नियंत्रण तय करने का आधार ही ग़लत हो तो क़ब्ज़े का अनुमान कैसे सही हो सकता है और जब क़ब्ज़े का अनुमान ही ग़लत हो तो उसके आधार पर दिया गया फ़ैसला कैसे सही हो सकता है

सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला सरमाथे। लेकिन कुछ सवाल हैं जो अनुत्तरित रह गए हैं और हमेशा ही अनुत्तरित रहेंगे।