असम में चुनाव होने वाले हैं। राज्य में सर्बानंद सोनोवाल के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की सरकार है। कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में आए और राज्य के शिक्षा मंत्री हिमंत बिस्व शर्मा ने घोषणा की है कि जनवरी के अंत तक अंडरग्रेजुएट और पोस्टग्रेजुएट विद्यार्थियों के खातों में क्रमशः 1,500 रुपये और 2,000 पहुँच जाएँगे, जिससे वे किताब-कॉपी खरीद सकें। इसके अलावा उन्होंने घोषणा की है कि लड़कियों को स्कूल में हर उपस्थिति पर रोज़ाना 100 रुपये मिलेंगे। राज्य बोर्ड की पिछली परीक्षा में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होने वाली लड़कियों को स्कूटर दिया जा रहा है।
चुनाव के पहले घोषणापत्र लाना, सरकार आने के पहले विकास का खाका खींचना, लुभावने वादे करना विभिन्न राजनीतिक दलों की परंपरा रही है। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को छोड़कर देश का क़रीब हर दल इस परंपरा को निभाता रहा है। चुनाव के पहले सरकार द्वारा मतदाताओं को किसी न किसी बहाने नकदी बाँटना अब नया राजनीतिक ट्रेंड बन गया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले शौचालय बनाने के लिए नकदी देकर और आख़िरकार हर किसान के खाते में 2,000 रुपये नकद जमा कराकर महफिल लूट ली थी। किसानों ने भुला दिया कि उनके पूरे खेत छुट्टा जानवर चर जा रहे हैं। उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि सरकार ने किस तरह से नोटबंदी की और उन्हें महीनों तक पैसे-पैसे के लिए मोहताज रहना पड़ा और अपना ही धन पाने के लिए घंटों लाइनों में खड़े रहना पड़ा, जो वक़्त वे अपने किसी और काम में लगा सकते थे।
बर्ट्रेंड रसेल ने ‘न्यू होप्स फॉर ए चेंजिंग वर्ल्ड’ में लिखा है, ‘हमारे महान लोकतंत्रों को अभी भी लगता है कि एक चतुर आदमी की तुलना में एक बेवकूफ के ईमानदार होने की अधिक संभावना है, और हमारे राजनेता इस पूर्वाग्रह का फ़ायदा उठाते हैं कि प्रकृति ने उन्हें बेवकूफ बनाया है।’
चुनाव के पहले करदाताओं से एकत्र किए गए निधि का इस तरह से इस्तेमाल मतदाताओं को लुभाने के काम आ रहा है। इसकी कोई दीर्घकालीन योजना नहीं है कि बच्चियों को स्कूल न जाने देने की वजहें दूर की जाएँ। शिक्षा का स्तर सुधारा जाए।
उन बच्चियों के परिवार वालों की आमदनी बढ़ाई जाए या जनसंख्या पर ही नियंत्रण किया जाए। यह सुविधाजनक तरीक़ा है कि इस तरह के सामाजिक घावों पर चुनाव के पहले मरहम लगा दिया जाए, जिससे उस घाव पर मक्खियाँ न भिनभिनाने पाएँ और पीड़ितों को कम से कम चुनाव के 6 महीने पहले और चुनाव बीत जाने तक घाव महसूस न होने दिया जाए।
दिलचस्प है कि मौजूदा बीजेपी सरकारों का सबसे बड़ा समर्थक निम्न मध्य वर्ग और मध्य वर्ग है। इस वर्ग के लिए सरकार ने केवल चुनावी वादे किए थे कि उनसे कर कम लिया जाएगा। वह अब तक नहीं हो पाया। यह तबक़ा महानगरों में बड़े पैमाने पर रहता है और घास-फूस की तरह उगे निजी विद्यालयों में बच्चों को पढ़ाता है। इन बच्चों के लिए कोई प्रोत्साहन योजनाएँ नहीं होती हैं। इन्हें कोई राहत नहीं दी जाती है, न कोई स्कॉलरशिप होती है। अगर ये बच्चे बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करके जाते हैं तो देश या विदेश में पढ़ाई के लिए कोई प्रोत्साहन योजना नहीं होती है जिससे कि प्रतिभाशाली बच्चे देश-विदेश में मुफ्त पढ़ाई कर सकें।
असम के शिक्षा मंत्री हिमंत बिस्व शर्मा कहते हैं कि यह घोषणा या स्कूटर वितरण का काम चुनावी फायदे के लिए नहीं किया जा रहा है, बल्कि यह योजना पिछले साल ही बनी थी, लेकिन कोरोना के कारण इसे मूर्त रूप नहीं दिया जा सका।
अब सवाल यह है कि अगर चुनावी फायदे के लिए स्कूटर नहीं बांटे जा रहे हैं तो सरकार ने क्या कार्ययोजना और क्या रणनीति बनाई है स्कूटर बांटने की? क्या सरकार ने ऐसा कोई अध्ययन कराया है कि कितने साल तक स्कूटर बांटे जाने पर राज्य में लड़कियों की शिक्षा को प्रोत्साहन मिलेगा?
स्वाभाविक है कि न तो कोई ऐसा अध्ययन कराया गया है, न सरकार के पास कोई स्थाई रणनीति है, न उसे यह पता है कि स्कूटर बांटने से शिक्षा के क्षेत्र में कौन सा बदलाव होने जा रहा है। हाँ, इस तरह के फ़ैसले से राजनीतिक प्रचार ज़रूर हो जाएगा कि प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण छात्राओं को स्कूटर दिया जाता है। इससे मिलती जुलती योजना उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते अखिलेश यादव भी पेश कर चुके हैं, जब उन्होंने हाई स्कूल पास करने वालों को टैबलेट और इंटर पास करने वाले विद्यार्थियों को लैपटॉप देने की घोषणा की थी।
शिक्षा क्षेत्र या रोज़गार की स्थिति में सुधार तो सरकार की प्राथमिकता में ही नहीं है। सुरक्षित और नियमित नौकरियाँ लगातार ख़त्म की जा रही हैं। नए श्रम क़ानून में काम के घंटे बढ़ा दिए गए। इसके अलावा सरकारी संस्थानों को लगातार बेचने की कवायद चल रही है। सरकार द्वारा इसी महीने निजीकरण पर क़ानून लाए जाने की संभावना है, जिसमें निजीकरण के नियम तय होंगे। सरकार की योजना है कि बैंकिंग, रक्षा आदि जैसे रणनीतिक क्षेत्रों में एक से चार सार्वजनिक उपक्रम होंगे और इससे ज़्यादा उपक्रमों को या तो निजी हाथों में बेच दिया जाएगा, या किसी अन्य सार्वजनिक उपक्रम में मिला दिया जाएगा।
वहीं ग़ैर रणनीतिक क्षेत्रों के सार्वजनिक उपक्रमों को पूरी तरह से बंद किए जाने की योजना पर सरकार काम कर रही है। इन सरकारी संस्थानों में बड़े पैमाने पर लोगों को बेहतर रोज़गार मिलते हैं, जो अपने बच्चों को बेहतरीन शिक्षा और बेहतर ज़िंदगी दे पाने में सक्षम होते हैं। अब सरकार नौकरियों को निजी हाथ सौंप रही है और निजी कंपनियों को कैजुअल वर्कर्स रखने के लिए प्रोत्साहित कर रही है।
स्वाभाविक है कि अपने बच्चों को पढ़ा-लिखाकर उन्हें बेहतर जिंदगी दे पाने का सपना भी छिनने जा रहा है। सरकार इसी रणनीति पर काम भी कर रही है कि ज़्यादातर लोग थोड़ी पढ़ाई करके फ़ैक्टरियों में मज़दूर बन सकें।
एक और वैश्विक अमेरिकी लेखक जेम्स फ्रीमैन क्लार्क कहते हैं, ‘राजनीतिज्ञ और राजनेता में अंतर यह है कि राजनीतिज्ञ अगले चुनाव के बारे में सोचता है, जबकि राजनेता अगली पीढ़ी के बारे में सोचता है।’ भारत का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि अब राजनीतज्ञों की संख्या बहुत बढ़ गई है और राजनेता ग़ायब होते जा रहे हैं।