निर्देशक आशुतोष गोवारिकर की फ़िल्म 'पानीपत' को लेकर एक राजनैतिक लड़ाई शुरू हो गई है जो जाट समुदाय के लोगों द्वारा फ़िल्म मीडिया में लड़ी जा रही है। इस समुदाय का आरोप है कि इसमें भरतपुर के जाट राजा सूरजमल के चरित्र को जिस तरह पेश किया गया है वह ग़लत और वास्तविकता के विपरीत है। राजस्थान में यह बड़ा मुद्दा बन गया है और वहाँ की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे भी इस लड़ाई में कूद पड़ी हैं और भरतपुर राज परिवार से जुड़े राजस्थान के मंत्री कुंवर विश्वेंद्र सिंह भी। और मजाक़ में तो कहा ही जा सकता है कि पानीपत की चौथी लड़ाई शुरू हो गई है। इस फ़िल्म पर प्रतिबंध लगाने की माँग राजस्थान में शुरू हो गई है।
इस मसले को दो तरह से देखा जाना चाहिए। एक तो यह कि क्या प्रतिबंध लगाने की माँग जायज़ है। जो लोग अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्षधर हैं वे कभी नहीं चाहेंगे कि `पानीपत’ या कोई और फ़िल्म प्रतिबंधित हो। प्रतिबंध एक लोकतांत्रिक समाज के चरित्र के ख़िलाफ़ होता है इसलिए राजनैतिक नेता या किसी ख़ास जाति या समुदाय के लोग किसी फ़िल्म या साहित्यिक रचना पर प्रतिबंध की माँग करें तो उसे जायज़ नहीं ठहराया जा सकता। वैसे भी गोवारिकर की यह फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर झंडे नहीं गाड़ रही है और इतिहास भी नहीं बदलने जा रही है।
लेकिन इस मुद्दे पर चर्चा होनी चाहिए कि क्या सच में गोवारिकर ने अपनी फ़िल्म में जाट राजा सूरजमल के चरित्र और छवि को जिस तरह पेश किया है वह इतिहास सम्मत नहीं है पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों की हार क्यों हुई थी, इस पर इतिहासकारों के बीच लगातार बहस हो रही है। यहाँ उस सबमें जाने का वक़्त नहीं है, लेकिन जहाँ तक राजा सूरजमल वाला मसला है उसके बारे में कई बातें साफ़ हैं। प्रथम दृष्टया गोवारिकर पर आरोप सही लगता है।
पानीपत के युद्ध में मराठा सेना की वास्तविक कमान सदाशिव राव भाऊ के पास थी। हालाँकि काग़ज़ पर यानी आधिकारिक कमान विश्वास राव के पास थी जो बाजीराव का पुत्र था और बहुत ही कम उम्र यानी सत्रह साल का था। इसमें भी शक नहीं कि सदाशिव राव वीर था और उदगिर की लड़ाई में हैदराबाद को हराने में उसकी बड़ी भूमिका थी। पर सदाशिव राव छापामार युद्ध में प्रवीण था जो मराठों की ख़ास शैली रही है। शिवाजी के समय से मराठा अपनी ज़मीन पर छापामार लड़ाई चलाते थे जिसके कारण औरंगज़ेब भी मराठों पर काबू नहीं कर सका। लेकिन सदाशिव राव के पास मैदानी युद्ध का तजुर्बा नहीं था। वह पेशवाओं में रघुनाथ राव के पास था। यह दीगर बात है कि रघुनाथ राव भी मैदानी युद्ध में राजपुताना को नहीं हरा सका था। फिर भी उसके पास अनुभव था। फ़िल्म में यह दिखाया गया है कि रघुनाथ राव पेशवाओं के दरबार में कहता भी है कि सदाशिव राव के पास मैदानी युद्ध का अनुभव नहीं है। लेकिन रघुनाथ राव को अब्दाली के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए मराठा सेना की कमान नहीं दी गई, क्योंकि उसने युद्ध में ख़र्च के लिए ज़रूरी पैसे भी माँगे थे।
ख़ैर इस मामले को यहीं छोड़ दें और सूरजमल की तरफ़ लौटें तो कई इतिहासकार यह मानते हैं कि मराठों की हार की वजह मराठी सेना के साथ चल रहे असैनिक लोग थे जिसमें ज़्यादातर तीर्थयात्री थे। महिलाएँ और बच्चे भी थे। मराठी सेना के पास रसद की कमी इसलिए भी पड़ गई थी कि उनकी खाद्य सामग्री का बड़ा हिस्सा इन असैनिकों और तीर्थयात्रियों पर ख़र्च होता था। फ़िल्म में यह तो दिखाया गया है कि मराठी सेना के पास रसद की इतनी कमी हो गई थी कि आख़िरी युद्ध में लड़ने के पहले सदाशिव राव को सिर्फ़ गुड़ का शरबत मिला था और सेना लगभग भूखे-प्यासे लड़ रही था। सूरजमल ने सदाशिव राव को सुझाव भी दिया था कि असैनिक जत्थे यानी असैनिकों को आगरा, ग्वालियर आदि के क़िलों में छोड़ दें, सिर्फ़ सेना ही पहले दिल्ली और बाद में पानीपत की तरफ़ कूच करे। लेकिन सदाशिव राव ने यह सलाह नहीं मानी। उल्टे कहा यह जाता है कि सूरजमल को गिरफ़्तार करने की कोशिश की। वो तो तत्कालीन सिंधिया और होल्कर शासकों की वजह से सूरजमल को पहले से सूचना मिल गई थी और वह बच कर निकल गया। गोवारिकर ने फ़िल्म में यह भी ग़लत दिखाया है कि सूरजमल ने सदाशिव राव से आगरा के क़िले की माँग की थी। आगरा तो पहले से ही सूरजमल के क़ब्ज़े में था। इस दौर का इतिहास लिखने वाले रामवीर वर्मा ने भी यह बात कही है। इस बारे में कई ट्वीट भी आए हैं।
इसमें संदेह नहीं कि गोवारिकर ने सदाशिव राव की छवि को बेहतर बनाने के लिए सूरजमल की छवि को ग़लत तथ्य के साथ पेश किया है। माना कि इतिहास पर आधारित फ़िल्मों में भी कई जगह कल्पना का सहारा लिया जाता है। लेकिन ऐसे में यह तो कहना पड़ेगा कि इतिहास ठीक ढंग से नहीं दिखाया गया है। गोवारिकर की इस फ़िल्म में और भी कई कमज़ोरिया हैं लेकिन अभी यहाँ उनकी चर्चा का वक़्त नहीं है।