नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ हुए प्रदर्शनों के दौरान भड़की हिंसा का जायजा लेने जब मैं निकला तो उपद्रव ग्रस्त इलाकों में कोई भी बोलने के लिए तैयार नहीं था। आप उन इलाकों के किसी भी वाशिंदे से पूछिए तो उसका कुछ ऐसा जवाब होता है- ‘हम तो साहब यहां थे ही नहीं...हमारे मोहल्ले के लोग नहीं थे, पता नहीं वे लोग कहां से आए थे।’ एक-दो आदमी यह भी कहते मिले, ‘साहब, हुकूमत से कोई जीत पाया है...इन हुड़दंग मचाने वाले लौंडों को पिट-पिटाकर ही बात समझ में आती है।’
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ, मुज़फ़्फरनगर, बिजनौर सहित अनेक जिलों में आप जब जाएंगे तो आपसे अनजान लोग इसी तरह की बात करेंगे। वर्दी और डंडे का ख़ौफ़ यहां इतना है कि उपद्रवग्रस्त इलाकों में कोई यह कहता नहीं मिलता कि वह भी प्रदर्शनकारियों में शामिल था या वह नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण तरीक़े से किए गए किसी विरोध-प्रदर्शन में शरीक हुआ था।
इन इलाकों में उपद्रवियों की धरपकड़ जारी है। नामजद लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेजा जा चुका है या पुलिस उनके घरों में या उनके ठिकानों पर दबिशें दे रही है। हर रोज कुछ कथित संदिग्ध लोग थाने लाए जाते हैं और पूछताछ या तहक़ीक़ात के बाद उन्हें निर्दोष पाए जाने पर छोड़ दिया जाता है। अगर उनका दोष पाया जाता है तो उन पर क़ानूनी कार्रवाई होती है।
मुज़फ़्फरनगर के एक पत्रकार से जब मैंने पूछा कि अब जिले की क्या स्थिति है उपद्रव के बाद सामान्य स्थितियां बहाल हो गईं या लोग भीतर-भीतर सुलग रहे हैं तो मुझे जो जवाब मिला उसे सुनकर आप को भी हैरानी होगी। पत्रकार साथी ने जवाब दिया- ‘अब हिम्मत नहीं होगी इनकी कुछ करने की। इन उपद्रवियों को विरोध में सड़कों पर आने का फल मिल चुका है। अगर उस दिन पुलिस ने सख्ती न दिखाई होती तो कई दिन तक मामला शांत नहीं होता क्योंकि जितनी संख्या में ये सड़कों पर उतरे थे, उतने लोग तो शहर ही फूंक देते। पर अब…अपनी जेबें फूंक रहे हैं।’
पत्रकार साथी के आख़िरी वाक्य को लेकर कहा जा सकता है कि जो लोग पुलिस की कार्यप्रणाली को जानते हैं उन्हें ऐसे मुहावरों और सच्चाई का भान पहले से ही होता है लेकिन कभी इस तरह के तथ्यों की पुष्टि नहीं होती। मुज़फ़्फरनगर में 20 दिसंबर, 2019 को हुए उपद्रव के बाद करीब 6000 ज्ञात-अज्ञात उपद्रवियों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज हुईं है, जिनमें से पुलिस अब तक 78 उपद्रवियों को गिरफ्तार कर जेल भेज चुकी है। 20 दिसंबर से ही अनेक संदिग्धों को संबंधित थानों पर पकड़ कर लाए जाने का सिलसिला जारी है जिनमें से जो स्वयं को थाने में 'निर्दोष' साबित कर पाते हैं या पुलिस संतुष्ट हो जाती है, उनको वापस घर भेज दिया जाता है।
आज हालात यह हैं कि मोहल्लों में कोई ऐसा व्यक्ति जो पुलिस के नजदीक समझा जाता है, यदि किसी से चुपचाप कह दे कि लिस्ट में तेरा भी नाम है या पुलिस की जांच में वह संदिग्ध है तो दूसरा आदमी दहशत में आ जाता है। इसी में लगकर कई कथित दलाल अपनी पौ-बारह करने में लगे हुए हैं। यह कहने में अतिश्योक्ति नहीं है कि उपद्रव के बाद यह एक तरह का कुटीर उद्योग चल निकला है।
अब मुज़फ़्फरनगर में जिस दिन (20 दिसंबर, 2019) हिंसा हुई, उस दिन के घटनाक्रम पर एक नज़र डालते हैं। मीनाक्षी चौक पर हजारों लोग जमा थे जो एक घंटे से अधिक समय तक ज्ञापन लेकर खड़े रहे लेकिन पुलिस-प्रशासन का कोई अधिकारी उनका ज्ञापन लेने नहीं आया। इसी बीच प्रदर्शनकारियों का एक जत्था कच्ची सड़क से मीनाक्षी चौक की तरफ आ रहा था, जहां दो वर्गों ने आमने-सामने आकर पथराव शुरू कर दिया और जब यह सूचना मीनाक्षी चौक पर जमा लोगों के पास पहुंची तो वहां भी कुछ लोगों ने पत्थर फेंके और देखते ही देखते भीड़ हिंसक हो गई। कई वाहन फूंक दिए। आगजनी हुई और फायरिंग में एक शख़्स की मौत हो गई।
ख़ास बात यह है कि पब्लिक ने जितनी सरकारी वाहन या कारें फूंकीं, उनमें से अधिकांश निजी वाहन पुलिस और होमगार्ड के जवानों के थे। थानों में दर्ज रिपोर्टों में ज्यादातर मामले इन्हीं लोगों ने दर्ज कराये हैं। मेरठ की तरह ही मुज़फ़्फरनगर में भी पुलिस बल पर्याप्त संख्या में नहीं था जबकि विरोध-प्रदर्शन करने वाले लोग हजारों में थे। पुलिस के मुताबिक़, उपद्रवियों के हाथों में पत्थर और दूसरे हथियार मौजूद थे। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि पुलिस का ख़ुफ़िया तंत्र फ़ेल हुआ या पुलिस उपद्रव होने का इंतजार कर रही थी।