बंगाल में रामनवमी के मौके पर हिंसा क्यों?

09:56 am Apr 02, 2023 | प्रभाकर मणि तिवारी

पश्चिम बंगाल में यूं तो त्योहार से सियासत का नाता राज्य में भाजपा के उभार से बहुत पहले से रहा है. लेकिन तब त्योहार का मतलब सिर्फ दुर्गापूजा ही होता था. भाजपा के उभार के बाद खासकर जिस तरह रामनवमी के जुलूस के मुद्दे पर सत्तारूढ़ पार्टी के साथ टकराव तेज हुआ है, उसकी कहानी बहुत पुरानी नहीं है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सहयोगी संगठन राज्य में बहुत पहले से ही सक्रिय रहे हैं. लेकिन वर्ष 2014 से पहले कभी रामनवमी के मौके पर बड़े पैमाने पर जुलूस और हथियार रैलियों का आयोजन राज्य के लोगों ने नहीं देखा था. यह परंपरा वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद शुरू हुई और वर्ष 2018 के पंचायत चुनाव से ठीक पहले जिस तरह रामनवमी के जुलूस पर कथित हमले के बाद आसनसोल के कई इलाको में सांप्रदायिक हिंसा हुई उसने इस आयोजन के मकसद को तो उजागर किया ही, त्योहारों की सियासत में हिंसा का एक नया अध्याय भी जोड़ दिया.

बंगाल में सियासत और त्योहारों के आपसी संबंधों की तलाश के लिए अतीत की ओर लौटना होगा. राज्य सबसे बड़े त्योहार दुर्गा पूजा पर सियासत रंग तो कोई 22-23 साल पहले से ही घुलने लगा था. तब ममता बनर्जी ने कुछ साल पहले ही कांग्रेस ने नाता तोड़ कर तृणमूल कांग्रेस नामक नई पार्टी बनाई थी और खुद को सीपीएम के मजबूत विकल्प के तौर पर जमाने का प्रयास कर रही थी.

बंगाल में वाममोर्चा सरकार के 34 वर्षों के शासनकाल में दुर्गा पूजा राजनीति से काफी हद तक परे थी. पूजा में वामपंथी नेता सक्रिय हिस्सेदारी से दूर रहते थे. हां, आयोजन समितियों में सुभाष चक्रवर्ती जैसे कुछ नेता ज़रूर शामिल होते थे। लेकिन उनका मक़सद चंदा और विज्ञापन दिलाना ही था। दुर्गा पूजा में सीपीएम भले प्रत्यक्ष रूप से कभी शामिल नहीं रही, लेकिन इस त्योहार के दौरान वह भी हजारों की तादाद में स्टॉल लगाकर पार्टी की नीतियों और उसकी अगुवाई वाली सरकार की उपलब्धियों का प्रचार-प्रसार करती थी. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद अब उसकी जगह भाजपा ने ले ली है.

वर्ष 2011 में तृणमूल कांग्रेस के भारी बहुमत के साथ जीत कर सत्ता में आने के बाद इस त्योहार पर सियासत का रंग चढ़ने लगा. धीरे-धीरे महानगर समेत राज्य की तमाम प्रमुख आयोजन समितियों पर तृणमूल कांग्रेस के बड़े नेता काबिज हो गए. अब हालत यह है कि करोड़ों के बजट वाली ऐसी कोई पूजा समिति नहीं है जिसमें अध्यक्ष या संरक्षक के तौर पर पार्टी का कोई बड़ा नेता या मंत्री न हो.

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि दरअसल, रामनवमी और हनुमान जयंती उत्सवों के बहाने विहिप और संघ ने वर्ष 2014 से ही राज्य में पांव जमाने की कवायद शुरू की थी. हर बीतते साल के साथ आयोजनों का स्वरूप बढ़ने के साथ इन संगठनों के पैरों तले की जमीन भी मजबूत होती रही. वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने अगर तमाम राजनीतिक पंडितों के अनुमानों को झुठलाते हुए 42 में से 18 सीटें जीत ली तो इसमें इन आयोजनों की अहम भूमिका रही है. उसके बाद साल दर साल इस मौके पर आयोजन और उसकी भव्यता बढ़ती ही जा रही है. बीते लोकसभा चुनावों में बीजेपी के मजबूत प्रदर्शन के बाद इस त्योहार पर सियासत का रंग और गहरा हुआ है. 

अब जल्दी ही होने वाले पंचायत चुनावों को ध्यान में रखते हुए विहिप और हिंदू जागरण मंच जैसे सहयोगी संगठनों ने इस साल भी बड़े पैमाने पर रैलियां निकालने और राम महोत्सव मनाने का एलान किया था. विश्व हिंदू परिषद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सहयोगी संगठनों ने इस साल रामनवमी यानी 30 मार्च से हनुमान जयंती (छह अप्रैल) तक पूरे राज्य में सप्ताह-व्यापी राम महोत्सव आयोजित करने का एलान किया है. वर्ष 2019 के बाद भाजपा भी अब अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए दुर्गा पूजा का ठीक उसी तरह इस्तेमाल करने का प्रयास कर रही है जैसा तृणमूल ने सत्ता में आने के बाद किया था.

दिलचस्प बात यह है कि अब तृणमूल कांग्रेस व भाजपा एक-दूसरे पर दुर्गा पूजा का सियासी इस्तेमाल करने का प्रयास करने के आरोप लगाती रहती हैं. तृणमूल कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा दुर्गा पूजा का सियासी इस्तेमाल करना चाहती है. तृणमूल कांग्रेस दुर्गा पूजा के नाम पर राजनीति नहीं करती. लेकिन भाजपा ने अब धर्म और दुर्गा पूजा के नाम पर सियासत शुरू कर दी है.

लेकिन दूसरी ओर, भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष का आरोप है कि तृणमूल कांग्रेस ने ही इस उत्सव को अपनी पार्टी के कार्यक्रम में बदल दिया है. उनका कहना है कि ममता बनर्जी के सत्ता में आने से पहले तक दुर्गा पूजा महज एक धार्मिक और सामाजिक उत्सव था. लेकिन मुख्यमंत्री ने इसे एक राजनीतिक मंच में बदल दिया है.

दुर्गापूजा के सियासी इस्तेमाल के आरोप तमाम दलों पर भले लगते रहे हों, इस दौरान हिंसा की कोई बड़ी मिसाल नहीं मिलती. लेकिन त्योहारों के सियासी इस्तेमाल के मामले में बीते कुछ वर्षों से रामनवमी ने दुर्गापूजा को भी पीछे छोड़ दिया है. वर्ष 2018 के बाद के आंकड़ों को ध्यान में रखे तो कोई साल ऐसा नहीं बीता है जब इन रैलियों और शस्त्र जुलूस के मुद्दे पर हिंसा या सत्तारूढ़ पार्टी के साथ भाजपा का टकराव नहीं हुआ हो.


पश्चिम बंगाल से सटे हावड़ा इलाके में इस साल रामनवमी और उसके अगले दिन रैली पर कथित पथराव के बाद दो समुदाय के लोगों के बीच जिस कदर हिंसा और आगजनी हुई, वह भी कोई नई बात नहीं है. राज्य सचिवालय नवान्न से महज एक-डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर स्थित उसी अल्पसंख्यक बहुल मोहल्ले में इसी मुद्दे पर बीते साल भी हिंसा हुई थी. अंतर सिर्फ यही था कि इस बार आगजनी और नुकसान ज्यादा हुआ.

अब हिंसा की इस आंच पर राज्य की राजनीति उबलने लगी है. तृणमूल कांग्रेस और भाजपा ने इस हिंसा के लिए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराते हुए आरोप-प्रत्यारोप तेज कर दिए हैं तो दूसरी ओर बहती गंगा में हाथ धोने के लिए वामपंथियां पार्टियां भी कूद पड़ी हैं.

रामनवमी के जुलूस पर कथित पथराव के बाद दो गुटों के बीच भड़की हिंसा शुक्रवार को लगातार दूसरे दिन भी जारी रही. हालांकि शुक्रवार को भारी तादाद में सुरक्षाबलों के तैनात होने के कारण आगजनी की घटना नहीं हुई. लेकिन कुछ इलाकों में पुलिसवालों और पत्रकारों पर पथराव किए गए और भीड़ को तितर-बितर करने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा. भाजपा ने इस हिंसा पर कलकत्ता हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर इसकी जांच राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) से कराने की मांग की है. इस हिंसा में अब तक 36 लोगों को गिरफ्तार किया गया है.

इस बीच, इस हिंसा के मुद्दे पर मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी और प्रदेश भाजपा नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर तेज हो गया है. ममता ने इस हिंसा के लिए भाजपा और बजरंग दल को जिम्मेदार ठहराया है और भाजपा ने इसके लिए ममता और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस को. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सुकांत मजूमदार ने तो ममता पर गलतबयानी करने का भी आरोप लगाया है.

मुख्यमंत्री ने कहा है कि इस हिंसा के लिए दोषी लोगों को बक्शा नहीं जाएगा. एक निजी टीवी चैनल से बातचीत में उनका कहना था, ‘‘हावड़ा की घटना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. हावड़ा में हिंसा के पीछे न तो हिंदू थे और न ही मुस्लिम. बजरंग दल और दूसरे ऐसे संगठनों के साथ भाजपा हथियारों के साथ हुई इस हिंसा में शामिल थी.’’

इस हिंसा के बाद पुलिस और प्रशासन की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं. खुद मुख्यमंत्री ने भी पुलिस की भूमिका पर नाराजगी जताते हुए कहा है कि इस लापरवाही के लिए दोषी अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी. इसके साथ ही सरकार पीड़ितों को हुए नुकसान की भी भरपाई करेगी. ममता का सवाल है कि आखिर रामनवमी के जुलूस का रास्ता क्यों बदला गया? जुलूस में कुछ लोग रिवाल्वर लेकर भी शामिल थे. इससे साफ है कि उनकी मंशा क्या थी. 

दूसरी ओर, भाजपा ने मुख्यमंत्री पर झूठ बोलने का आरोप लगाते हुए दावा किया है कि विश्व हिंदू परिषद को रामनवमी का जुलूस निकालने के लिए पुलिस और प्रशासन से जरूरी अनुमति मिली हुई थी. पार्टी ने कहा है कि जुलूस का रास्ता नहीं बदला गया था. इस बारे में तृणमूल कांग्रेस के दावे झूठे और निराधार हैं.

प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सुकांत बनर्जी ने अपने ट्वीट में कहा है कि रामनवमी के जुलूस पर हमला और हिंसा आयोजकों के खिलाफ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भड़काऊ बयानों का नतीजा है. हिंसा के दौरान पुलिस दंगाइयों के साथ कड़ी तमाशा देख रही थी.

भाजपा विधायक और विधानसभा में विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी ने शुक्रवार को कलकत्ता हाईकोर्ट में दायर एक जनहित याचिका में इस हिंसा की जांच राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को सौंपने और प्रभावित इलाकों में केंद्रीय बल तैनात करने की मांग की है. इस पर सोमवार को सुनवाई होगी.दोनों दलों के बीच लगातार तेज होते आरोप-प्रत्यारोप के बीच पुलिस के एक अधिकारी ने कहा है कि आयोजकों ने सभी जरूरी कागजात जमा नहीं किए थे. इसलिए जुलूस निकालने की अनुमति नहीं दी गई थी.

इस मामले पर राज्यपाल सी.वी. आनंद बोस की सक्रियता की भी चर्चा हो रही है. शुक्रवार को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने फोन पर उनसे घटना के बारे में जानकारी ली थी. उसके बाद बोस अचानक सक्रिय हो गए. उन्होंने हावड़ा की परिस्थिति पर निगाह करने के लिए जहां एक स्पेशल सेल का गठन कर दिया वहीं मुख्यमंत्री से भी फोन पर बात की और साथ ही मुख्य सचिव से इस मामले पर विस्तृत रिपोर्ट भी मांग ली. राजभवन की ओर से जारी एक बयान में इसकी जानकारी दी गई. जानकारों के मुताबिक स्पेशल सेल का गठन एक अभूतपूर्व कदम है. इससे पहले नंदीग्राम और सिंगुर के आंदोलन और हिंसा के दौरान भी कभी राजभवन में ऐसे किसी सेल का गठन नहीं किया गया था.

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि मुर्शिदाबाद के सागरदीघी सीट पर उपचुनाव के नतीजे से साफ है कि अल्पसंख्यक वोटर सीपीएम और कांग्रेस के पाले में लौट रहे हैं. ऐसे में हिंदू वोटरों को एकजुट करने के लिए ही शायद भाजपा, संघ और उसके सहयोगी संगठनों ने इस साल बड़े पैमाने पर रामनवमी और राम महोत्सव मनाने का फैसला किया था.