हाल ही में अमेरिका की प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी और दिल्ली की एक संस्था के शोधकर्ताओं ने सुझाव दिया है कि भारत को कोरोना वायरस से मुक्त करने का सर्वश्रेष्ठ तरीक़ा यह है कि इसकी आधी से ज़्यादा आबादी को कोरोना वायरस से संक्रमित करा दिया जाए।
पहली नज़र में यह सुझाव बड़ा अटपटा लगता है और लोग इसे एक भद्दा मज़ाक समझ सकते हैं लेकिन ऐसा है नहीं। महामारी विज्ञान में इस तरीक़े को हर्ड इम्यूनिटी या झुंड प्रतिरक्षण कहा जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार यदि किसी झुंड या समूह में वैक्सीन या किसी दूसरे तरीक़े से अधिकतर लोगों को किसी संक्रामक बीमारी से ग्रस्त कर दिया जाए तो कुछ समय के बाद संक्रमण ख़ुद-ब-ख़ुद ख़त्म हो जाता है।
अब चूँकि कोरोना वायरस का कोई वैक्सीन यानी टीका अभी बना नहीं है, इसलिए इस टीम का सुझाव है कि यदि एक नियंत्रित तरीक़े से अगले सात महीनों में भारत के 60% लोगों को इस बीमारी से ग्रस्त होने दिया जाए तो नवंबर तक भारत में यह स्थिति आ जाएगी कि यह वायरस किसी नए व्यक्ति को संक्रमित नहीं कर सकेगा क्योंकि इतने सारे लोगों के संक्रमित हो जाने के बाद वायरस को ऐसे असंक्रमित लोग नहीं मिलेंगे जिनपर वह हमला कर सके और अपनी संख्या बढ़ा सके।
शोधकर्ताओं के अनुसार भारत के 93% लोग 65 साल से कम उम्र के हैं और जैसा कि अब तक का अनुभव रहा है, 50 साल से कम उम्र के लोगों पर इस बीमारी का हल्का-फुल्का असर होता है और वे सब कुछ ही दिनों में ठीक हो जाते हैं। बाक़ी जो लोग गंभीर रूप से बीमार हों, उनका अस्पतालों में इलाज हो सकता है। लेकिन इसका फ़ायदा यह है कि इस दौरान न तालाबंदी करनी पड़ेगी, न लोगों की नौकरियाँ छिनेंगी, न अर्थव्यवस्था चौपट होगी।
भारत के लिए यह सिद्धांत कितना कारगर हो सकता है, इसकी जाँच करने से पहले हम समझ लें कि यह हर्ड इम्यूनिटी या झुंड प्रतिरक्षण क्या है और इससे किस तरह से किसी संक्रामक बीमारी को रोका जा सकता है।
हम जानते हैं कि जब कोरोना वायरस किसी स्वस्थ व्यक्ति पर हमला करता है तो उसके शरीर में प्रवेश करके अपने-आपको दोगुना-चौगुना-लाख गुना करने लगता है। उस व्यक्ति के भीतर मौजूद प्रतिरक्षक कोशिकाओं की फ़ौज उनका मुक़ाबला करती है और अधिकतर मामलों में कुछ दिनों में उसे नष्ट भी कर देती है। लेकिन इस बीच लाखों की संख्या में बचे हुए वायरस उसके शरीर से निकलकर बाहर पहुँच जाते हैं और दूसरे लोगों को संक्रमित कर देते हैं। एक अंदाज़े के अनुसार एक संक्रमित व्यक्ति से एक से तीन लोग तक संक्रमित हो सकते हैं। यानी एक से तीन, तीन से नौ और नौ से सत्ताइस और इसी तरह बहुत कम समय में ही बड़ी संख्या में लोगों के संक्रमित होने की आशंका रहती है।
अभी भारत सरकार ने यह रणनीति अपनाई है कि संक्रमित लोगों से असंक्रमित लोगों को मिलने ही मत दो। दोनों को अलग-अलग कर दो। इस तरह संक्रमित व्यक्ति के शरीर से निकलने वाले वायरसों को कोई नया शिकार मिलेगा ही नहीं और समय के साथ वे ख़त्म हो जाएँगे।
नतीजा यह कि अलगाव की इस नीति की मदद से देश की बड़ी आबादी संक्रमण से बच जाएगी।
फ़िलहाल यह रणनीति कारगर रही है लेकिन बदले में हमारी अर्थव्यवस्था बहुत बड़ा नुक़सान झेल रही है। फ़ैक्ट्रियाँ बंद हैं, दुकानें बंद हैं, नौकरियाँ जा रही हैं, रोज़गार ख़त्म हो रहे हैं, लोग भूखे मर रहे हैं। इस साल की विकास दर शून्य होने जा रही है। इसलिए शोधकर्ता हर्ड इम्यूनिटी का रास्ता सुझा रहे हैं। उनका कहना है कि भारत जैसा बड़ी आबादी, सीमित संसाधनों वाला देश लंबे समय तक कामबंदी और अर्थबंदी नहीं झेल सकता और उसके लिए झुंड प्रतिरक्षण की रणनीति बेहतर हो सकती है। इससे काम का भी नुक़सान नहीं होगा और वायरस भी कुछ महीनों में समाप्त हो जाएगा।
हर्ड इम्यूनिटी की रणनीति
हर्ड इम्यूनिटी की रणनीति के तहत हर किसी को, ख़ासकर ग़ैर-बुज़ुर्ग आबादी को बाहर निकलने की, आपस में मिलने-जुलने की, काम करने की छूट रहेगी। अगर कोई संक्रमित व्यक्ति दूसरे को संक्रमित करता भी हो तो कोई चिंता की बात नहीं होगी क्योंकि कुछ दिन सर्दी-ज़ुकाम से पीड़ित रहकर वह ठीक हो जाएगा या कई लोगों में तो कोई लक्षण ही नहीं पैदा होंगे (जैसा कि अभी ही देखा जा रहा है - 70-80% कोरोना-संक्रमितों में कोई लक्षण नहीं पाए जा रहे)। इस तरह देश में धीरे-धीरे ठीक हो चुके संक्रमितों की संख्या बढ़ जाएगी और एक समय ऐसा आएगा जब देश के 10 में से 6 लोग कभी-न-कभी इस बीमारी से संक्रमित हो चुके रहेंगे। ये 60% संक्रमित लोग ही कोरोना वायरस को बाक़ी लोगों में फैलने से रोकेंगे।
लेकिन ये संक्रमित लोग इस बीमारी को शेष लोगों में फैलने से कैसे रोकेंगे, इस बात को वैज्ञानिक तरीक़े से समझना हो तो नीचे का चित्र देखिए जो ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के साथ छपा है। इसमें नारंगी रंग में रंगे आकार वे हैं जिनको कोरोना वायरस संक्रमित कर सकता है, धारीदार आकार वे हैं जो पहले संक्रमित हो चुके हैं और भविष्य में नहीं हो सकते क्योंकि वे प्रतिरक्षक क्षमता पा चुके हैं।
फ़ोटो साभार: ब्लूमबर्ग
पहली तसवीर तब की है जब किसी समूह में कोई भी प्रतिरक्षक क्षमता वाला न हो। दूसरी तस्वीर तब की है जब संक्रमण या टीके की वजह से कुछ लोगों में प्रतिरक्षक क्षमता आ चुकी हो। तीसरी तसवीर तब की है जब बड़ी संख्या के लोग प्रतिरक्षक क्षमता पा चुके हों। यही हर्ड इम्यूनिटी की स्टेज है जब नए असंक्रमित लोग नहीं मिलने के कारण वायरस अपनी संख्या बढ़ा नहीं पाता और ख़त्म हो जाता है।
यदि ऊपर के चित्र और विवरण से आपको मामला क्लियर नहीं हुआ हो तो मैं एक और तरीक़े से समझाने की कोशिश करता हूँ।
मान लीजिए, एक मैदान में कई सूखे गड्ढे (असंक्रमित लोग) हैं। उन गड्ढों में से एक गड्ढे में कोई रबड़ की एक गेंद (कोरोना वायरस) उछलकर आती है। इस गेंद में यह क्षमता है कि जब वह किसी गड्ढे में गिरती है तो ख़ुद को दो गेंदों में बदल देती है औरे वे 2 गेंदें उछलकर फिर दो और गड्ढों में जा पहुँचती हैं और वहाँ से 4 गेंदें बनकर और चार गड्ढों में पहुँचती हैं। इस तरह 4 से 8 , 8 से 16, 16 से 32, 32 से 64, 64 से 128 और इसी तरह सैकड़ों, हज़ारों और लाखों की संख्या में गेंदों की तादाद बढ़ती चली जा सकती है।
लेकिन ये गेंदें दुगनी-चौगुनी-आठ गुनी होते-होते अपनी संख्या लाखों में पहुँचा पाएँगी या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या हर नई गेंद किसी नए गड्ढे (असंक्रमित व्यक्ति) में ही जाती है या कुछ गेंदें पुराने गड्ढों (संक्रमित लोगों) में भी गिरती हैं।
यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है कि गेंद की तरह इन गड्ढों की भी एक विशेषता है। वह यह कि एक बार यदि कोई गेंद किसी गड्ढे में आती है और भले ही वह दुगुनी होकर बाहर निकल जाए लेकिन इस प्रक्रिया में उस गड्ढे में पानी भर जाता है (यानी संक्रमित व्यक्ति में प्रतिरक्षक क्षमता पैदा हो जाती है)। अगली बार अगर कोई गेंद ऐसे गड्ढों में आती है तो पानी (प्रतिरक्षक क्षमता) के कारण न तो वह बाहर निकल पाती है, न ही डबल हो पाती है।
यानी ये 32 गेंदें 64 में, 64 गेंदें 128 में और 128 गेंदें 256 गेंदों में तभी बदलेंगी अगर इन सबको हर बार नए सूखे गड्ढे (असंक्रमित लोग) मिलें। लेकिन गेंदें तो गड्ढे चुन नहीं सकतीं। उनका काम तो उछलना है। सो वे उछलकर नए गड्ढों में भी जा सकती हैं और पुराने गड्ढों में भी। नए में गईं तो डबल, पुराने में गईं तो वहीं छपाक और कुछ दिनों में ख़ल्लास।
शुरू-शुरू में तो गेंदों को नए गड्ढे ख़ूब मिलेंगे लेकिन समय के साथ पुराने (यानी पानी भरे) गड्ढों की संख्या बढ़ती चली जाएगी। नतीजा यह होगा कि एक समय के बाद जो नई गेंदें बनेंगी और उछलेंगी, वे ज़्यादातर पुराने पानी भरे गड्ढों (पूर्व-संक्रमित लोगों) में गिरेंगी और छपाक के साथ वहीं रह जाएँगी - न वे बाहर जा पाएँगी, न ही डबल हो पाएँगी। कुछ समय के बाद वे सब-की-सब सड़-गलकर ख़त्म हो जाएँगी।
दूसरे शब्दों में पूर्व-संक्रमितों की भारी तादाद नए पैदा होने वाले वायरसों को सोख लेगी जिससे वायरस न तो फैल पाएँगे न ही नए असंक्रमित लोगों को निशाना बना पाएँगे।
हर्ड इम्यूनिटी के पक्षधरों का कहना यह है कि हम संक्रमित लोगों से करोड़ों लोगों को बचाने के लिए जो तालाबंदी कर रहे हैं, उसके बदले में हमें बहुत भारी नुक़सान उठाना पड़ रहा है। अगर हम लॉकडाउन हटाकर सारा काम पहले की तरह होने दें तो अर्थव्यवस्था का भी भला होगा और कोरोना वायरस का ख़ात्मा भी हो जाएगा।
लेकिन इसके विरोधियों का मत है कि अव्वल तो यह काम बहुत जोखिम भरा है क्योंकि पता नहीं, बीमारी किस तरह लोगों पर असर करेगी, कितने इससे उबर पाएँगे, कितने गंभीर रूप से बीमार हो जाएँगे। अगर अगले सात महीनों में देश के 130 करोड़ लोगों में से 60% यानी 78 करोड़ लोग संक्रमित होते हैं और उनमें से 10-15% लोगों को अस्पतालों में दाख़िल करवाना पड़ता है (जैसा कि अभी का ट्रेंड है) तो वह संख्या क़रीब 8-12 करोड़ होगी। क्या हमारे पास इतनी बड़ी संख्या में लोगों को अस्पतालों में रखने की सुविधा है?
इसके साथ एक सवाल यह भी है कि यदि हम अगले सात महीने तक 65 साल से नीचे की उम्र के लोगों को मिलने-जुलने और काम करने की छूट देते हैं ताकि वे कोरोना से संक्रमित होकर कोरोनावायरस के प्रति अपनी प्रतिरक्षक क्षमता बढ़ाएँ तो क्या इस बीच 65 साल की उम्र से ऊपर के लोगों को उनसे बचाकर रख पाएँगे? अगर हाँ तो कैसे? क्या उनको क्वॉरंटीन करके?
आम तौर पर जब भी कोई संक्रामक बीमारी फैलती है तो कुछ समय बाद अधिकतर आबादी अपने-आप उससे संक्रमित होकर कुछ समय बाद रोगमुक्त हो जाती है और उस हर्ड इम्यूनिटी को प्राप्त कर लेती है जिसकी हमने ऊपर बात की। लेकिन जानबूझकर ऐसी रणनीति अपनाना एक ख़तरनाक क़दम साबित हो सकता है। ब्रिटेन ने भी कोरोना वायरस से लड़ाई में शुरू में यही रणनीति अपनाई थी लेकिन जब बीमारों की संख्या में एकाएक वृद्धि होने लगी तो उसने इसे त्याग दिया।