नयी संसदः लोकतंत्र की शीश-विहीन प्रतिमा स्थापित करेंगे मोदी!

10:31 am May 25, 2023 | पंकज श्रीवास्तव

हाल ही में दो हज़ार का नोट वापस लेने के फ़ैसले के बाद सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री मोदी की तुलना राजधानी दिल्ली को दौलताबाद ले जाकर वापस दिल्ली लाने वाले सुल्तान मोहम्मद बिन तुग़लक से करने की बाढ़ आ गयी थी। लेकिन पीएम मोदी जिस तरह विपक्ष के विरोध को दरकिनार करके राष्ट्रपति की जगह खुद संसद की नयी इमारत का उद्घाटन करने पर आमादा हैं, उससे फ्रांस के शासक लुई चौदहवें से तुलना करना ज़्यादा बेहतर होगा। अपने ‘दिव्य होने के आत्मविश्वास’ से भरा सम्राट लुई चतुर्दश ख़ुद को हर क़ानून से ऊपर मानता था। उसकी अहंकारभरी घोषणा इतिहास की किताबों में आज भी गूँज रही है-‘मैं ही राज्य हूँ!’

भारत की संसद किसी इमारत का नाम नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 79वें में कहा गया है कि ‘संघ के लिए एक संसद होगी जिसमें राष्ट्रपति और दो सदन- राज्य सभा और लोकसभा शामिल होंगे।’ यानी राष्ट्रपति के बिना संसद की कल्पना नहीं की जा सकती। लेकिन न इस नयी संसद के शिलान्यास का अवसर तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को दिया गया और न ही इसका उद्घाटन मौजूदा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु से कराया जा रहा है। शिलान्यास भी पीएम नरेंद्र मोदी ने किया था और अब उद्घाटन भी वही करेंगे। यह अलग बात है कि बीजेपी की ओर से रामनाथ कोविद को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाते वक़्त उनके दलित होने और द्रौपदी मुर्मु को उम्मीदवार बनाते वक़्त उनके आदिवासी और महिला होने को बड़ी ज़ोर-शोर से प्रचारित किया गया था। राष्ट्रपति को दरकिनार करने की हरक़त पहली बार नहीं हो रही है। दिल्ली में बनाये गये ‘राष्ट्रीय युद्ध स्मारक’ का भी उद्घाटन प्रधानमंत्री मोदी ने ही किया था जबकि तीनों सेनाओं के सुप्रीम कमांडर का दर्जा राष्ट्रपति के पास है।

ऐसे में कांग्रेस समेत 20 राजनीतिक दलों की ओर से उद्घाटन समारोह के बहिष्कार का फ़ैसला राष्ट्रपति पद की सर्वोच्चता और संसदीय परंपराओं के महत्व को रेखांकित करने वाला क़दम है। उद्घाटन समारोह में राष्ट्रपति की अनुपस्थिति का अर्थ संसद का शीशविहीन होना है। यानी प्रधानमंत्री मोदी लोकतंत्र के मंदिर में एक खंडित प्रतिमा में प्राणप्रतिष्ठा करना चाहते हैं। इस अनुष्ठान के केंद्र में लोकतंत्र नहीं वे स्वयं हैं और उनका मक़सद अपनी सर्वोच्चता को प्रतिष्ठित करना है। विपक्षी दलों द्वारा जारी संयुक्त बयान में ठीक ही कहा गया है कि राष्ट्रपति को उद्घाटन अवसर पर न बुलाना ‘अपमानजनक, अशोभनीय और संविधान की भावना का उल्लंघन है।’ विपक्ष ने इसे लोकतंत्र पर सीधा हमला बताया है जिसका ‘उचित जवाब दिये जाने की ज़रूरत’ है।

प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल मे जिस तरह से बिना बहस के विधेयकों को पारित कराने या स्थायी और प्रवर समितियों को बेमानी बनाने के प्रयास हुए हैं, उससे स्पष्ट है कि सरकार की नज़र में विपक्ष या विचार-विमर्श का कोई महत्व नहीं है।


बिना राय-मशविरा के तीन कृषि क़ानूनों को लागू करने और उसे वापस लेने का फ़ैसला इसका गंभीर उदाहरण है। राहुल गाँधी के विदेश में दिये गये एक वक्तव्य को लेकर जिस तरह सत्तापक्ष ने ही आश्चर्यजनक रूप से संसद नहीं चलने दी, उसने भी यह बात और साफ़ कर दी है। विपक्ष को साथ लेने या उसके साथ संवाद करने में अरुचि का ही परिणाम है कि नयी संसद के उद्घाटन अवसर पर विपक्ष के ज़्यादातर दल मौजूद नहीं होंगे। यानी जो घटना इतिहास में भारत की एकजुटता का प्रतीक बन सकती थी, वह विभाजित भावना की बानगी के रूप में याद की जाएगी। बिना विपक्ष के लोकतंत्र का कोई भी समारोह फ़ीका ही कहलाएगा चाहे उसकी भव्यता के कितने भी जतन किये जायें।

मोदी सरकार का यह रुख़ उन मान्यताओं के बिल्कुल उलट है जिस पर भारतीय गणतंत्र की बुनियाद रखी गयी थी।


आज़ादी की लड़ाई की एकमात्र दावेदार कांग्रेस थी फिर भी  ज़िला ‘कांग्रेस कमेटियों’ को प्रशासनिक ‘सोवियतों’ में नहीं बदला गया था। इसके उलट ऐसे लोगों को भी पहले मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था जो कांग्रेस के घोषित विरोधी, यहाँ तक कि अंग्रेज़ों के साथ थे। आरएसएस और बीजेपी पाँत के बीच बेहद सम्मानित माने जाने वाले श्यामा प्रसाद मुखर्जी तो 1942 के आंदोलन के विरोध में अग्रणी भूमिका निभा रहे थे। वे बंगाल की उस फ़जलुल हक़ सरकार में मंत्री थे जिसमें मुस्लिम लीग भी शामिल थी। फिर भी उन्हें नेहरू मंत्रिमंडल में कैबिनेट दर्जा दिया गया।

इसी तरह डॉ.आंबेडकर भी महात्मा गाँधी और कांग्रेस का लगातार विरोध कर रहे थे। फिर भी उनके द्वारा उठाये जाने वाले सामाजिक-आर्थिक सवालों के महत्व को कांग्रेस ने अच्छी तरह समझा। डॉ.आंबेडकर बंगाल के जिस इलाके से संविधानसभा में चुने गये थे, वो पाकिस्तान में चला गया। स्वाभाविक था कि वे संविधान सभा के सदस्य नहीं रह गये। ऐसे में डॉ.आंबेडकर को संविधानसभा में लाने के लिए बाम्बे प्रांत से चुने गये कांग्रेस सदस्य डॉ.एम.एल.जयकर ने इस्तीफ़ा दिया। कांग्रेस के समर्थन से चुनाव जीतकर डॉ.आंबेडकर संविधानसभा के सदस्य बने। उन्हें पहले संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया और बाद में देश का पहला कानून मंत्री। यह सब कांग्रेस ने किसी दबाव में नहीं किया था। वह वास्तव में वैचारिक असहमति रखने वलों को राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया में भागीदरा बनाना चाहती थी। बहुदलीय व्यवस्था वाली संसदीय प्रणाली उसकी प्रतिबद्धता का नतीजा था। इसमें सरकार और विपक्ष, दोनों का ही बराबर महत्व था। कांग्रेस का मानना था कि लोकतंत्र की ख़ूबी बहुमत के शासन में नहीं बल्कि अल्पमत को साथ लेकर चलने में है।

बहरहाल, पूर्ण बहुमत के नशे में डूबी बीजेपी की मोदी सरकार दूसरे कार्यकाल में अपने असली रूप में आती जा रही है। उसके विचारस्रोत आरएसएस की आस्था इस संविधान में कभी नहीं रही। वह प्राचीनकाल के राजतंत्रों में अपना गौरव ढूंढता है। उसके प्रेरणा पुरुष सावरकर का भी यही हाल रहा। अंग्रेज़ों से माफ़ी माँगकर जेल से बाहर आये सावरकर के दिखाये मार्ग पर ही मोदी सरकार तेज़ी से चलना चाहती है। यह संयोग नहीं कि नयी संसद का उद्घाटन सावरकर के 140वें जन्मदिन पर होने जा रहा है जिनकी नज़र में न लोकतंत्र का महत्व था और न संविधान का। वे भारत को संविधान से नहीं बल्कि मनुस्मृति के हिसाब से चलता देखना चाहते थे। 

सावरकर दलितों और स्त्रियों के लिए पराधीनता जैसी स्थिति का निर्माण करने का निर्देश देने वाली मनुस्मृति को ‘हिंदू लॉ’ बताया था। ऐसे में पूछा जाना चाहिए कि एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति होने के बावजूद संसद के उद्घाटन से दूर रखने के पीछे कहीं यही सोच तो काम नहीं कर रही है?  या फिर कहीं इसी वजह से तो राष्ट्रपति होने के बावजूद रामनाथ कोविद को नयी संसद के शिलान्यास से दूर नहीं रखा गया था?

यही स्थिति नयी संसद में स्थापित किये जाने वाले ‘सेंगोल’ को लेकर भी है। जवाहरलाल नेहरू ने चोल परंपरा से निकले इस ‘राजदंड’ को अंग्रेज़ों से सत्ता हस्तांतरण के रूप में स्वीकार किया था। नेहरू जी ने इस राजदंड को म्यूज़ियम में उचित ही रखवा दिया था, लेकिन मोदी सरकार इसे नयी संसद में स्थापित करने जा रही है। राजतंत्र के प्रतीकों को म्यूज़ियम से निकालकर नये दौर में स्थापित करना ही आरएसएस का लक्ष्य है। विपक्ष अगर लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्ध है तो इसका समग्र विरोध ही उसकी रणनीति हो सकती है।

पुनश्च:  ‘मैं ही राज्य हूँ’ कहने वाले लुई चौदहवें के अनावश्यक युद्धों और पेरिस से 12 मील दूर वर्साय में बनवाये गये बाग़ और झरनों से युक्त महलों ने फ्रांस को आर्थिक रूप से खोखला कर दिया था। इसने आम आदमी की तक़लीफ़ों में बेहद इज़ाफ़ा किया। किसान भुखमरी का शिकार हुए और मध्यवर्ग लगातार ग़रीब होता गया। नतीजा, लुई सोलहवें के समय 1789 में फ्रांस में ऐतिहासिक क्रांति हुई।

(लेखक कांग्रेस से जुड़े हैं)