संसदीय लोकतंत्र को क्या 'हिन्दू लोकतंत्र' में बदलने की कोशिश हो रही है

12:46 pm Jul 03, 2024 | अरुण कुमार त्रिपाठी

संसदीय लोकतंत्र को हिंदू लोकतंत्र में बदलने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी परशुराम जैसा व्यवहार कर रहे हैं। जिस तरह से परशुराम ने बार बार क्षत्रियों का विनाश करके और उनकी जमीन को देवताओं को दे दिया था उसी तरह से मोदी बार बार विपक्षी दलों को परास्त करके उनके राज को भाजपा को सौंप देना चाहते हैं। जिस तरह से उन्होंने राहुल गांधी को बालक बुद्धि कहा और उसे क्षमा करने की बजाय उस पर कड़ी कार्रवाई करने का आह्वान किया वह उनके क्रोध और हिंसक स्वभाव का द्योतक है। 

अच्छा होता कि विपक्ष के नेता राहुल गांधी हिंदुत्व पर बहस न छेड़ कर सामाजिक और आर्थिक न्याय के मुद्दों पर ही अपने को केंद्रित करते लेकिन उन्होंने भी बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया तो उन पर हिंदुत्ववादी नरेंद्र मोदी ने अवमानना, क्रोध और धमकी की बौछार कर दी। नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में स्पष्ट कर दिया कि वे विपक्ष को कुछ नहीं समझते और जब चाहें तब उसे मसल कर रख देंगे। देखना है राहुल गांधी और अखिलेश यादव शिव के पिनाक धनुष को तोड़ने के बाद विष्णु के सारंग धनुष को हाथ में लेकर उस पर बाण का संधान कर सकेंगे? क्या वे लोग असत्य और नफ़रत रूपी संघ परिवार की प्रवृत्तियों का नाश कर सकेंगे?

इस बीच मीडिया में यह सुझाव तेजी से चल रहे हैं कि राहुल गांधी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को क्या कहना चाहिए था और क्या नहीं कहना चाहिए था। मेरी समझ से यह एक अव्यावहारिक सुझाव है और हमारी सामाजिक और राजनीतिक विचार प्रक्रिया की अनदेखी करने वाला है। राहुल गांधी ने अपने शब्दों का चयन किस तरह से किया और अपने उद्बोधन में फोटू क्यों दिखाया और लोकसभा अध्यक्ष को देखकर उन्हें संबोधित करने की बजाय विपक्ष और सत्तापक्ष को ज्यादा संबोधित करते रहे इस प्रोटोकाल और संसदीय नियमों पर बहस होती रहेगी और होनी भी चाहिए। पर वह अल्पकालिक है। 

लेकिन उन्होंने एक बहस जो खड़ी कर दी है वह आगे दूर तक जाएगी ही और भारतीय समाज के भीतर लंबे समय से चल भी रही है। वह बहस है हिंदू समाज उदार है या अनुदार। वह कट्टर है या लचीला। वह अहिंसक है या हिंसक। वह प्रेम और सद्भाव का संदेश देने वाला है या नफ़रत का। उसकी संरचना में बराबरी का दर्शन है या गैरबराबरी का। वह तार्किक और विवेकवान है या अंधविश्वासी और दकियानूसी।

राहुल ने स्पष्ट तौर पर कह दिया कि जो हिंदू समाज राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा बनाना चाहती है वह हिंसक है, कट्टर है अनुदार है और तर्क विवेक से दूर जाने वाला है। वह सहिष्णु तो कतई नहीं है। जबकि जो हिंदू समाज का मूल है वह उदार है, विवेकवान है और प्रेम और सद्भाव से भरा हुआ है।

दूसरी ओर नरेंद्र मोदी का कहना है कि हिंदू धर्म सहनशील है और राहुल गांधी पूरे हिंदू धर्म को हिंसक बताकर उसका अपमान कर रहे हैं। वे विवेकानंद को उद्धृत करते हुए कह रहे हैं कि हिंदू धर्म ने पूरी दुनिया को सहनशीलता सिखाई और इसीलिए देश में लोकतंत्र है। वे कांग्रेस के सहयोगियों पर हमला करते हुए कह रहे हैं कि वे हिंदुओं को डेंगू और मलेरिया कहते हैं और लोग उस पर तालियां बजाते हैं। ऐसे राजनीतिक लोगों का शगल है हिंदू धर्म का मजाक उड़ाना। साथ ही मोदी ने यह भी कहा कि यह वे सर्वपंथ समभाव वाले संवैधानिक सिद्धांत के प्रति समर्पित हैं। इसीलिए वे तुष्टीकरण नहीं संतुष्टीकरण की बात करते हैं। वही वास्तविक सामाजिक न्याय और सेक्यूलरिज्म है।

कुछ स्वाभाविक सवाल

  • क्या सचमुच संघ परिवार सहनशील है?
  • क्या वह सचमुच अहिंसक है और क्या वह हिंदुओं को अहिंसक बनाना चाहता है?
  • क्या वह दूसरे धर्मों की मान्यताओं के प्रति उदार है या वह उनका हर समय मज़ाक उड़ाता रहता है और उसे बदल देने और नष्ट करने की तैयारी करता रहता है?
  • क्या वह सावरकर और गोडसे के उस विचार का प्रचार नहीं करता रहता कि हिंदू समाज को अहिंसक बनाने वालों ने राष्ट्र का बड़ा अहित किया और भारत लंबे समय तक गुलाम इसलिए रहा क्योंकि उसे बुद्ध ने अहिंसक बना दिया था?
  • क्या सावरकर ने बुद्ध की कड़ी आलोचना नहीं की है? क्या गांधी की हत्या करने लिए गोडसे ने यह तर्क नहीं दिया था कि गांधी हिंदुओं को कायर बना रहे हैं?

लेकिन संघ परिवार और उसके प्रचारक और नेता बालक बुद्धि के मुकाबले कुटिल बुद्धि का इस्तेमाल करते हैं। वे एक ओर इस बात को नगाड़ा बजाकर प्रचारित करते हैं कि हिंदू एक उदार धर्म है और हिंदू समाज सहनशील है। लेकिन उसी के साथ यह तेवर भी रखते हैं कि अगर किसी ने उसे अनुदार और अहिंसक कहा तो उसकी जीभ खींच लेंगे और उसे पीटकर धर देंगे। उसे सदन से निकलवा देंगे, उसे जेल में डलवा देंगे और उसकी राजनीति को तबाह कर देंगे।

संघ परिवार ने राहुल गांधी के भाषण के दूसरे ही दिन इसका परिचय दे दिया कि वह कितना उदार है। उसके संगठनों ने मंगलवार को ही अमदाबाद में कांग्रेस पार्टी के कार्यालय पर प्रदर्शन करके हमला किया और तोड़फोड़ की।


उधर भाजपा के सांसदों ने स्पीकर को नोटिस देकर विशेषाधिकार हनन के तहत कार्रवाई की बात की है। स्पीकर महोदय ने संघ परिवार के दबाव में राहुल गांधी के भाषण का वह हिस्सा सदन की कार्यवाही से निकाल दिया है जो उन्होंने संघ परिवार के बारे में कहा था। अब सवाल उठता है कि सत्ता में बैठे संघ परिवार के लोग क्या स्पीकर से मोदी के भाषण के उस अंश को निकालने के लिए कहेंगे जो उन्होंने राहुल गांधी के लिए कहे हैं? ऐसा वे कतई नहीं कहेंगे और अगर कहेंगे भी तो शायद ही स्पीकर उसे निकालें। 

भले भी मोहन भागवत ने विपक्ष को प्रतिपक्ष कह कर उसकी बात को स्थान देने का सुझाव दिया था और अपने परिवार से निकले नेता व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अहंकार छोड़ने के लिए कहा था। लेकिन न तो मोदी ने अहंकार छोड़ा और न ही विपक्ष को प्रतिपक्ष मानने की उदारता दर्शाई।

वास्तव में मोदी और राहुल की बहस को दो व्यक्तियों के निजी रागद्वेष से अलग हटकर देखने की जरूरत है। ज्यादातर मीडिया के लोग और विश्लेषक इसे व्यक्तिगत प्रतिभा और प्रवृत्ति में केंद्रित कर देते हैं और इसकी व्यापक उपस्थिति को नजरंदाज करते हैं। दोनों के भाषण स्क्रिप्ट लिखने वालों की नादानी या चालाकी तक सीमित नहीं है। 

दरअसल हिंदू समाज में हिंसा और अहिंसा दोनों की प्रवृत्तियां विद्यमान हैं। वह एक ओर प्रेम और सद्भाव की बात करता है तो दूसरी ओर नफ़रत और दुर्भावना को बढ़ावा देता है। वह एक ओर सत्य का ध्वजवाहक बनता है तो दूसरी ओर असत्य के मार्ग पर चलकर सत्ता और कामयाबी हासिल करना चाहता है। वह एक ओर सभी के भीतर एक ही आत्मा का वास बताता है तो दूसरी ओर जातियों के भीतर और बाहर और विभिन्न धर्मों के साथ भेदभाव का विचार रखता है। वह अपने दर्शन में जितना उदात्त है अपने व्यवहार में उतना ही कठोर और पाखंड भरा।

राहुल गांधी ने जो बहस छेड़ी है वह पुरानी भी है और नई भी। वह ऐतिहासिक भी है और पौराणिक भी। वह राजनीति कभी है और सामाजिक भी। वह व्यावहारिक भी है और दार्शनिक व आदर्शवादी भी। लेकिन उसे छेड़ देने के जो खतरे हैं छोड़ देने के उससे बड़े खतरे हैं।

वास्तव में राहुल गांधी ने जो बहस छेड़ी है वह 1936 में तब उठी थी जब डॉ भीमराव आंबेडकर ने `जाति का बीजनाश’ जैसी पुस्तक लिखी थी और उसकी समीक्षा महात्मा गांधी ने `हरिजन’ नामक पत्र में की थी। उनका कहना था कि हिंदू धर्म की आलोचना होनी चाहिए लेकिन हिंदू धर्म को पूरी तरह से खारिज करके उसे बुरा बता देना उचित नहीं है। इसी प्रकार की बहस उठाते हुए स्वामी धर्मतीर्थ ने `हिस्ट्री आफ हिंदू इम्पीरियलिज्म’ लिखी थी जिसमें उन्होंने कहा था कि जब जब जाति व्यवस्था के विरुद्ध कोई आंदोलन खड़ा होता है तब तब हिंदू समाज अपनी भीतर से कोई नया अभियान फेंक कर उसे हजम कर लेता है। यानी वह फिर से जाति व्यवस्था कायम कर डालता है। 

अयोध्या आंदोलन भी उसी का प्रमाण है। यह वही बहस है जिसके बारे में डॉ लोहिया बेहद सचेत थे और इसे हिंदू बनाम हिंदू के नाम से संबोधित करते थे। वे कहते थे कि एक ओर उदार हिंदू है तो दूसरी ओर अनुदार हिंदू। यह संघर्ष भारतीय समाज में पांच हजार साल से चल रहा है लेकिन इसका निराकरण नहीं हो पाया है। लोहिया ने आंबेडकर से थोड़ा असहमत होते हुए कहा था कि उनके भीतर हिंदू धर्म के प्रति जलन है जो परिवर्तन में बाधक बन जाती है। इसलिए उन्हें जलन छोड़नी होगी और सिर्फ दलित समाज का नेता बनने की बजाय पूरे भारतीय समाज का नेता बनना होगा। उधर गांधी ने कहा था कि लोकतंत्र में माफी की गुंजाइश होनी चाहिए। उन्होंने उस समय भी माफी का व्यवहार दिखाया जब देश में लोकतंत्र और स्वतंत्रता कायम नहीं हुई थी।

हिंदू धर्म की इन्हीं बुराइयों का परिणाम है कि कहीं पर हाथरस जैसे हादसे में बाबा की चरण रज लेने के लिए सैकड़ों लोग भगदड़ में अपनी जान दे देते हैं तो कहीं गोरक्षा के नाम पर लोगों को पीटपीट कर मार डाला जाता है। हिंदू धर्म की संरचना दूसरे धर्म के लोगों को भी हानि पहुंचा रही है तो अपने समाज के लोगों को भी दबा रही है। इसलिए हिंदू धर्म को पीड़ित बताकर उसके सुधारकों और आलोचकों पर हमला करने और उन्हें सेंसर करने की प्रवृत्ति संघ परिवार के लोगों को भले कुछ लाभ पहुंचा दे लेकिन वह दीर्घकाल में इस समाज का अहित ही करेगी। 

राहुल गांधी ने जो लड़ाई छेड़ी है उस लड़ाई में समाज का पिछड़ा और दलित तबका उनका कितना साथ देगा यह तय नहीं है। मायावती ने जो भाजपा के इशारे पर उन पर हमला ही बोल दिया है। हालांकि उन्होंने भाजपा की भी आलोचना की है।

कई बार लगता है कि इस बहस को अखिलेश यादव उठाते तो बेहतर होता। क्योंकि उनकी हिंदू छवि ज्यादा स्पष्ट है। कई बार यह भी लगता है कि राहुल गांधी ने संसद में देवताओं और धर्मगुरुओं के चित्र दिखाकर सही नहीं किया। कई बार लगता है कि इस लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए उनकी भावना देखनी चाहिए और उसकी पवित्रता पर संदेह नहीं करना चाहिए। क्योंकि उन्होंने भारत से नफ़रत को मिटाने के लिए तकरीबन चार हजार किलोमीटर की पदयात्रा की है। यह काम बिना प्रतिबद्धता के हो नहीं सकता। हालांकि बेहतर होता कि राहुल गांधी किसी बहाने दूसरे धर्मों की कट्टरता और सांप्रदायिकता की उसी तरह आलोचना करने का साहस दिखाते जैसा वे हिंदू धर्म की आलोचना कर रहे हैं। अगर स्वयं न कर पाएं तो दूसरे धर्मों से ऐसे उदार नेताओं को तैयार करें जो वैसा कर सकें। पर यह तय है कि राहुल ने धर्म की एक मानवीय और लोकतांत्रिक व्याख्या प्रस्तुत की है और वे उसे अपने व्यवहार में लाते भी हैं।

राहुल और अखिलेश ने बार बार संविधान की बात की है और उसे बचाने के मुद्दों को चुनाव का मुद्दा बना दिया। सामाजिक न्याय के मुद्दे को तूल देना उनकी उसी भावना का परिचायक है। अब उन्हें स्पष्ट रूप से कहना चाहिए कि वे संविधान में निहित सामाजिक क्रांति के उद्देश्य को आगे बढ़ाएंगे।

क्योंकि संविधान का इतिहास लिखने वाले अमेरिकी विद्वान ग्रैनविल आस्टिन का कहना है कि भारतीय संविधान के दो उद्देश्य हैं एक भारत की एकता अखंडता को कायम रखना और दूसरा सामाजिक क्रांति करना। भाजपा और उसके शासकों ने पहले वाले उद्देश्य को पकड़ लिया है और उससे ही राष्ट्रवाद राष्ट्रवाद खेल रहे हैं और दूसरी पार्टियों को राष्ट्रद्रोही बता रहे हैं। उसका जवाब सामाजिक क्रांति के उद्देश्य को आगे बढ़ाने में ही है। इसी में हिंदू धर्म को उदार बनाने का अभियान भी शामिल है।

लेकिन राहुल और अखिलेश को अपने सामाजिक क्रांति के उद्देश्य को पूरा करने के लिए हिंदू समाज की कट्टरता, जातिवाद और संघ परिवार की सांप्रदायिकता से लड़ना होगा। यह लड़ाई राजनीतिक तो है ही सामाजिक भी है। यह सांस्कृतिक लड़ाई भी है और दार्शनिक लड़ाई भी है। इस लोकसभा चुनाव के परिणामों ने दिखा दिया है कि भारतीय समाज अब कट्टरता से तंग आ चुका है और वह उदारता के साथ जीना चाहता है। 

राहुल और अखिलेश की इस लोकतांत्रिक लड़ाई के समक्ष मोदी परशुराम बन कर खड़े हुए हैं।वे धमका रहे हैं कि मैं आप लोगों को अपनी सत्ता रूपी परशु से छिन्नभिन्न कर दूंगा। लेकिन शायद वे यह भूल रहे हैं कि अब परशुराम का युग समाप्त हो रहा है। वे राहुल को चाहे जितना बालक बुद्धि कहें लेकिन क्रोध और कठोर कार्रवाई की असहिष्णुता के भरे मोदी यह भूल रहे हैं कि उनके युग का अंत नजदीक है। इसीलिए लगता है कि मोदी और राहुल की यह बहस बेहद आधुनिक होते हुए पौराणिक भी है।

(वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार त्रिपाठी लंबे समय से सक्रिय लेखन कर रहे हैं।)