न्यायपालिका से जुड़े लोगों, मानवाधिकार संगठनों और दूसरे लोगों ने अंग्रेजी राज की सुरक्षा के लिए बनाए गए राजद्रोह क़ानून को आज भी बरक़रार रखने और सत्ता प्रतिष्ठान पर काबिज लोगों के द्वारा इसके दुरुपयोग पर कई बार चिंता जताई है। यह ऐसा क़ानून बन चुका है जिसका इस्तेमाल सरकार में बैठे लोग अपने विरोधियों को परेशान करने, धमकाने और उनका मुँह बंद कराने के लिए करते हैं। सरकार की नीतियों और फ़ैसलों के लोकतांत्रिक व शांतिपूर्ण विरोध को भी कुचलने का हथियार बन चुके राजद्रोह क़ानून पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मदन लोकुर ने चिंता जता कर इस पर नए सिरे से बहस छेड़ दी है।
'विरोध कुचलने का औजार'
जस्टिस मदन लोकुर ने 2020 वी. जी. वर्गीज़ मेमोरियल लेक्चर देते हुए सोमवार को कहा कि राजद्रोह क़ानून निजी आज़ादी को कुचलने का सबसे कारगर हथियार बन चुका है। उन्होंने यह भी कहा कि इससे भी ख़तरनाक बात यह है कि इसका इस्तेमाल उन लोगों की आज़ादी को कुचलने में किया जाता है जो मुँह खोलने की हिम्मत करते हैं।याद दिला दें कि जस्टिस मदन लोकुर सुप्रीम कोर्ट के उन जजों में से हैं, जिन्होंने जनवरी 2018 में खुले आम प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रोस्टर सिस्टम में जूनियर जजों को तरजीह देने और न्यापालिका के दबाव में काम करने की शिकायत की थी। यह पहला मौका था जब सुप्रीम कोर्ट के जजों ने इस तरह खुल कर न्यायपालिका के कामकाज की आलोचना की थी और वह भी एक साथ। इस पर पूरे देश में काफी चर्चा हुई थी।
विरोधियों की गिरफ़्तारी
जस्टिस लोकुर ने विरोधियों को चुप कराने के लिए गिरफ़्तार करने के मामले में पिंजड़ा तोड़ आन्दोलन की देवांगना कलिता और उत्तर प्रदेश के डॉक्टर कफ़ील ख़ान के मामलों का उल्लेख किया।याद दिला दें कि दिल्ली पुलिस ने देवांगना कलिता पर फरवरी 2020 में पूर्वोत्तर दिल्ली में हुए दंगों में भाग लेने का आरोप लगाया है जबकि उन्होंने सीएए के विरोध में हुए प्रदर्शन में भाग लिया था। इसी तरह डॉक्टर ख़ान को अलीगढ़ में सीएए के विरोध में भाषण देने के बाद गिरफ़्तार किया गया था।
जस्टिस लोकुर ने कहा, “यदि समय रहते इसे नहीं रोका गया तो कभी भी किसी को किसी 'परी कथा' के आधार पर गिरफ़्तार किया जा सकेगा।”
क्या है राजद्रोह क़ानून
सुप्रीम कोर्ट कई बार कह चुका है कि नारे लगाने से राजद्रोह नहीं होता। राजद्रोह तभी होता है जब कोई क़ानून द्वारा चुनी हुई सरकार को गिराने के लिए हिंसा का सहारा ले या हिंसा का सहारा लेने के लिए प्रेरित करे।
राजद्रोह के मामलों में सुप्रीम कोर्ट की राय बहुत साफ है। केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) में कोर्ट ने साफ़ किया है कि 124 (क) के तहत किसी के ख़िलाफ़ राजद्रोह का मामला तभी बनता है जबकि किसी ने सरकार के ख़िलाफ़ हिंसा की हो या हिंसा के लिए उकसाया हो (फ़ैसला पढ़ें)।
1995 के अपने फ़ैसले फैसले में कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था कि केवल 'खालिस्तान ज़िंदाबाद' और 'हिंदुस्तान मुरादाबाद' के नारे लगाने से राजद्रोह का मामला नहीं बनता क्योंकि उससे सरकार को कोई ख़तरा पैदा नहीं होता (फ़ैसला पढ़ें)।
राजद्रोह का क़ानून अंग्रेज़ों के ज़माने में बना था ताकि भारतीयों की आवाज़ को दबाया जा सके और इसीलिए उसमें लिखा गया था कि 'सरकार के प्रति नफ़रत पैदा करने वाली’ किसी भी बात या हरकत के लिए राजद्रोह का मामला दायर किया जा सकता है।
ब्रिटेन ने हटाया राजद्रोह क़ानून
आज़ादी के बाद भी इस क़ानून को हटाया नहीं गया। उधर ब्रिटिश सरकार ने 2009 में अपने देश से इस क़ानून को हटा दिया है लेकिन भारत में वह आज भी चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्पष्ट किए जाने के बाद भी सरकारें ‘सरकार के ख़िलाफ़ नफ़रत पैदा करने' वाले अंश के आधार पर उसका बराबर दुरुपयोग कर रहे हैं।इस क़ानून के दुरुपयोग के कुछ उदाहरण तो हाल फ़िलहाल के ही हैं।
दुरुपयोग के उदाहरण
वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के ख़िलाफ़ शिमला में राजद्रोह का मुक़दमा दर्ज किया गया है। यह मुक़दमा आईपीसी की धारा 124ए, 268, 505 और 501 के तहत दर्ज किया गया है। इस मामले में अजय श्याम नाम के व्यक्ति ने शिमला के कुमारसैन पुलिस स्टेशन में शिकायत दी थी।इससे पहले दिल्ली पुलिस ने बीजेपी के प्रवक्ता नवीन कुमार की शिकायत पर दुआ के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज की थी। कुमार ने आरोप लगाया था कि दुआ फ़ेक न्यूज फैला रहे हैं और सांप्रदायिक हिंसा के लिए लोगों को भड़का रहे हैं।
विनोद दुआ ने हाल में कहा था, “प्रधानमंत्री दंतविहीन व्यक्ति हैं, जिनमें देश की समस्याओं से निपटने की क्षमता नहीं है।”
इसी तरह मई में एक गुजराती न्यूज़ पोर्टल के संपादक पर राजद्रोह का मुक़दमा दर्ज किया गया था। संपादक ने अपने पोर्टल पर यह ख़बर चलाई थी कि बीजेपी आलाकमान राज्य के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी को उनके पद से हटा सकता है और उनकी जगह केंद्रीय मंत्री मनसुख मंडाविया को ला सकता है।
'भड़काऊ पोस्ट' से राजद्रोह
इसी तरह सवाल यह भी उठता है कि क्या सिर्फ सोशल मीडिया पर एक पोस्ट कर देने से राजद्रोह का मामला बनता है क्या सिर्फ फ़ेसबुक पर कुछ कथित तौर पर ‘'भड़काऊ' पोस्ट कर देने से ही राजद्रोह हो जाता है
ये सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष ज़फ़रुल इसलाम ख़ान के ख़िलाफ़ देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज किया था। ख़ान पर आरोप था कि उन्होंने अपनी सोशल मीडिया पोस्ट में भड़काऊ टिप्पणी की थी।
इस मामले में क्या सोचते हैं वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष देखें यह वीडियो।
ख़ान ने 28 अप्रैल को एक पोस्ट लिखी थी जिसमें उन्होंने भारतीय मुसलमानों का साथ देने के लिए कुवैत का शुक्रिया अदा किया था। उन्होंने कहा था कि जिस दिन भारत के मुसलमान उनके ख़िलाफ़ हो रहे अत्याचारों की शिकायत अरब देशों से कर देंगे, उस दिन जलजला आ जाएगा।उनकी टिप्पणी निश्चित तौर पर आपत्तिजनक है लेकिन क्या इस आधार राजद्रोह का मुकदमा बनता है
इससे जुड़ा एक बेहद हास्यास्पद मामला भी है।
बिहार में एक वकील सुधीर ओझा की शिकायत पर न्यायिक मजिस्ट्रेट ने इतिहासकार रामचंद्र गुहा, फ़िल्म निर्माता अपर्णा सेन, श्याम बेनेगल सहित 49 लोगों के ख़िलाफ़ राजद्रोह का मुक़दमा दर्ज करने का आदेश दिया था।
एफ़आईआर दर्ज होने के बाद इस पर काफ़ी हंगामा हुआ था। विपक्षी दलों ने इसके लिए सरकार पर भी निशाना साधा था। इसके बाद यह मामला वापस ले लिया गया।
क्या कहते हैं आँकड़े
नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीबी) के आंकड़ों के अनुसार, साल 2014 में राजद्रोह के कुल 47 मामले सामने आए थे, लेकिन 2018 में यह संख्या बढ़ कर 70 हो गई। साल 2015 में 30, 2016 में 35 और 2017 में राजद्रोह के 51 मामले दर्ज किए गए थे। इनमें से आधे से अधिक मामले सिर्फ 4 राज्य बिहार, झारखंड, असम और हरियाणा में ही दर्ज हुए थे। इंडियन एक्सप्रेस ने एक ख़बर में कहा है कि 2019 में राजद्रोह के 93 मामले दर्ज किए गए थे।
2019 में पूरे देश में सीएए का विरोध कर रहे 3,000 लोगों के ख़िलाफ राजद्रोह का मामला लगाया गया था। इसके अलावा भूमि विवादों को लेकर अलग-अलग जगह विरोध कर रहे 3,300 लोगों पर भी राजद्रोह का मामला लगा दिया गया था।
ये लाइवमिंट के आँकड़े हैं, हालांकि एनसीबी के आँकड़ों में ये शामिल नहीं है।
इस मामले में यह भी दिलचस्प बात है कि बहुत ही कम मामलों में राजद्रोह का दोष साबित हो पाता है और सज़ा मिलती है। लाइवमिंट ने एक ख़बर में कहा है कि 2016 में राजद्रोह के 35 मामले दर्ज किए गए, पर सिर्फ 4 मामलों में सज़ा हो सकी।
सवाल यह है कि राजद्रोह क़ानून का इस्तेमाल कैसे रुके। इसके लिए यह ज़रूरी है कि इसमें संशोधन किया जाए या इसे निरस्त कर दिया जाए। इसके लिए संसद में विधेयक पारित कराना होगा और वह सरकार ही कर सकती है। लेकिन जो पार्टी सरकार में होती है, वही अपने विरोधियों को कुचलने में इसका इस्तेमाल करती है, ऐसे में उससे कुछ उम्मीद करना बेकार है।