जम्मू और कश्मीर में चुनाव की घोषणा के बाद की स्तरों वाली चुनौतियां बढ़ जरूर गई हैं लेकिन ये कभी समाप्त हो गई थीं, यह नहीं कहा जा सकता। पर इसके साथ ही यह कहना भी जरूरी है कि इन चुनौतियों के डर के बीच भी राज्य में चुनाव कराने के जो लाभ हैं वे सबसे ऊपर हैं और किसी भी खतरे या चुनौती के नाम पर उसको अनिश्चित काल के लिए रोका नहीं जाना चाहिए था। बल्कि चुनाव और पहले हो गए होते और निष्पक्ष ढंग से होते (या अभी भी होंगे) तो लाभ और ज्यादा होता।
आजादी के बाद से कश्मीर को लेकर जितने प्रयोग हुए हैं उनमें निष्पक्ष चुनाव का लाभ ही सर्वाधिक रहा है। और बाकी चीजों को छोड़िए, अनुच्छेद 370 की मौजूदगी के लाभ या घाटे को लेकर भी काफी कुछ कहा गया है। इस बार उस सवाल पर लोगों की राय भी सामने आ जाएगी और इस लेखक जैसे काफी सारे लोग हैं जिनको लगता है कि जनमत के पक्ष विपक्ष होंगे लेकिन चुनाव से कश्मीर को लाभ होगा। 370 की समाप्ति पर कश्मीरियों की न तो राय ली गई थी न उनकी आवाज को खास महत्व मिला। इस अनुच्छेद के पक्षधर विरोध करते रहे लेकिन उनके विरोध का भी न्यस्त स्वार्थ सबको दिखाई देता है।
सो, दस साल बाद जब जम्मू और कश्मीर के लोग बिना लद्दाख क्षेत्र के लोगों के साथ जब अपनी सरकार और शासन के बारे में राय जाहिर करेंगे तो यह उनकी सरकार को भी तय करेगा और अनुच्छेद 370 समाप्त करने, राज्य को तीन केंद्रशासित हिस्सों में बांटने, विधान सभा क्षेत्रों के पुनर्गठन से जम्मू को लाभ देने और सुरक्षा बलों की अनुशासित मौजूदगी, राज्य में आतंकवाद की कमर तोड़ने और विकास के प्रयासों पर जनादेश भी होगा। और इसी के चलते यह जितना राज्य की नई सरकार के लिए चुनाव है उससे ज्यादा जम्मू और कश्मीर में भारी बदलाव करने वाली मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार के फैसले पर भी जमादेश होगा। और इसी चलते इस पर जम्मू-कश्मीर ही नहीं पूरे देश और दुनिया की नजर लगी है।
चुनाव तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार सितंबर तक कराने की बाध्यता थी लेकिन आतंकियों ने, खासकर पाकिस्तान से संचालित, इस डेडलाइन का भी इंतजार नहीं किया। उन्होंने पिछले साल से ही छिटफुट वारदातें चालू कीं और इस साल तो बहुत साफ रणनीति और ताकत से बड़ी वारदातों को अंजाम देते जा रहे हैं। अच्छी बात यह है कि इससे चुनाव आयोग या केंद्र सरकार ने अपना फैसला लेने में कोई हिचक नहीं दिखाई।
लेकिन जिस तरह से आतंकियों ने चुनाव घोषणा वाले दिन भी वारदात की और लगातार कभी जम्मू तो कभी कश्मीर घाटी में वारदात किये जा रहे हैं वह एक नई चुनौती जरूर पेश करता है।
इस साल आतंकी वारदातों में अब तक 74 लोग मारे जा चुके हैं जिनमें अधिकारियों समेत सुरक्षा बलों के 21 लोग शामिल हैं। इस बार की खास रणनीति जम्मू क्षेत्र में ज्यादा घुसपैठ और वारदातें कराना है जहां सुरक्षा के इंतजाम घाटी से कमजोर हैं।
सुरक्षा बलों के 21 में से 14 लोग अकेले इसी क्षेत्र में मारे गए हैं। अब सुरक्षा बलों (विशेष पुलिस) ने भी इस इलाके के लिए 19 काउंटर-इंटेलिजेंस इकाइयों का गठन किया है।
राखी के दिन भी केन्द्रीय रिजर्व पुलिस का एक इंस्पेक्टर इनके हाथों शहीद हो गया। संभव है चुनाव होने तक राज्य में वे तत्व भी ज्यादा खुलकर आतंकियों के पक्ष में दिखने लगें जो अभी तक बोल न पा रहे थे। और इतनी बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों की मौजूदगी के बावजूद अगर आतंकी वारदातें बढ़ी हैं तो वह बिना स्थानीय समर्थन के संभव नहीं है। हमने लोक सभा चुनाव में भी कश्मीर से दो ऐसे विजेता देखे हैं जिनका 370 हटाने और उसके तरीके का विरोध बहुत साफ दिखाई देता था। एक सांसद के शपथ लेने के लिए भी अदालत को दखल देनी पड़ी।
पर ऐसे तत्वों के विरोध की उम्मीद रही है- हां, उनके सभी स्थापित दलों और कथित दिग्गजों को हरा देने की बात आसानी से नहीं सोची गई थी। संभव है विधान सभा चुनाव में इसे लोग और छोटे दल ज्यादा बड़ी संख्या में जीतें। पर चुनाव आए नहीं कि डॉक्टर फारूक अब्दुल्ला खुद को जवान घोषित करने लगे हैं और उमर अब्दुल्ला विधान सभा चुनाव न लड़ने की कसम तोड़ने लगे हैं। उनकी पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र में न सिर्फ अनुच्छेद 370 की बहाली और पूर्ण राज्य का दर्जा की बात है बल्कि कश्मीर की शुरुआती स्थिति बहाल करने का वादा भी है। अब मुश्किल कांग्रेस को होगी जो इंडिया गठबंधन का साथी होने के चलते नेशनल कांफ्रेंस के साथ चुनाव लड़ सकती है-जम्मू इलाके में उसकी ताकत ज्यादा है भी। उधर पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती के तेवर और तीखे हैं और इस बार तो उनकी बेटी इल्तजा के चुनाव लड़ने की भी संभावना है। अब पीडीपी को लेकर ज्यादा बड़ी भविष्यवाणी करनी मुश्किल है लेकिन कांग्रेस-नेशनल कांफ्रेंस तो सचमुच सत्ता की रेस में होंगे। कांग्रेस का रवैया अनुच्छेद 370 की समाप्ति पर ढुलमुल सा रहा है। वह नेशनल कांफ्रेंस से किस तरह मेल बैठाती है यह देखने की बात होगी। वैसे गुलाम नबी आजाद की पार्टी के लोगों और कई सारे दूसरे नेताओं के भी कांग्रेस की तरफ वापस लौटने के संकेत से साफ है कि उसके लिए यह बड़ा अवसर हो सकता है।
असली परीक्षा भाजपा की है जिसके लिए सहयोगी ढूँढना भी आसान नहीं है। लोक सभा चुनाव में उसके नाम के सहारे उतरे सभी लोग घाटी में पिट गए थे जबकि खुद उसने घाटी की सीटों पर उम्मीदवार ही नहीं दिए। जम्मू इलाके में भी उसका एक ही उम्मीदवार पहले से काफी कम वोटों से जीता। और अगर गुलाम नबी का साथ न मिला तो भाजपा को इस इलाके में भी मुश्किल होगी।
उधर संसद के अंदर पाक अधिकृत कश्मीर का खुद ब खुद आकर विलय करना और दूसरे बड़े दावे करना भी भाजपा को भारी पड़ रहा है। पाँच साल के राष्ट्रपति शासन और लाखों करोड़ रुपए पानी की तरह बहाने के बाद थोड़ी शांति तो आई लेकिन न स्थायी शांति के लक्षण दिखते हैं न जम्मू-कश्मीर के लोगों के मन में कोई बहुत सम्मानजनक स्थान मिला है। लेकिन चुनाव तो चुनाव हैं और लोग केंद्र, राज्य और स्थानीय चुनावों में अलग अलग ढंग से मतदान करते हैं। इसलिए भाजपा या किसी दल का क्या प्रदर्शन होगा, यह कहना मुश्किल है। पर यह कहना आसान है कि कश्मीर चुनाव की चुनौती सबके लिए मुश्किल है और इसका लाभ सबके लिए होगा।