सरकार की नाकामियों पर पर्दा डालने के लिए जनसंख्या नियंत्रण का बेसुरा राग 

07:23 am Jul 12, 2021 | अनिल जैन - सत्य हिन्दी

किसी देश की बड़ी आबादी बेशक उसके लिए ताक़त या वरदान मानी जाती है, लेकिन उस आबादी का अगर सदुपयोग न हो तो वह अभिशाप साबित होती है। इस समय तेज़ी से बढती हुई जनसंख्या सिर्फ भारत के लिए ही नहीं, बल्कि दुनिया के कई देशों के लिए चिंता का सबब बनी हुई है।

जिस गति से जनसंख्या बढ रही है, उसके लिए जीवन की बुनियादी सुविधाएँ और संसाधन जुटाना तथा उसके लिए रोजगार के अवसर पैदा करना सरकारों के लिए चुनौती साबित हो रहा है। 

भारत के संदर्भ में तो अलग-अलग माध्यमों से अक्सर इस आशय की रिपोर्ट आती रहती है, जिनमें बताया जाता है कि आबादी के मामले में भारत जल्द ही चीन को पीछे छोड़ कर दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन जाएगा। 

चीन बनाम भारत

यह बात कुछ हद सही भी है, क्योंकि चीन की जनसंख्या भारत के मुक़ाबले काफी धीमी गति से बढ रही है, बावजूद इसके कि वहाँ 2016 में 'वन चाइल्ड पॉलिसी' को बदलते हुए 'टू चाइल्ड पॉलिसी' कर दिया गया और इसी साल वहाँ इसे 'थ्री चाइल्ड पॉलिसी' कर दिया गया है।

भारत में बढती जनसंख्या बेशक देश के लिये वरदान साबित हो सकती थी, अगर सरकार इस बढी हुई जनसंख्या के लिए भोजन, पेयजल, आवास, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएँ जुटाने तथा उस आबादी का देश के विकास में समुचित उपयोग करने में सक्षम होती।

लेकिन हमारे यहाँ तो हालात इसके एकदम उलट बने हुए हैं। इसीलिए पिछले कुछ समय से देश में जनसंख्या नियंत्रण का मुद्दा अलग-अलग स्तर पर चर्चा का विषय बना हुआ है और इस संबंध में क़ानून बनाने की माँग भी हो रही है।

सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखते हुए पिछले दिनों केंद्र सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि वह देश के लोगों को परिवार नियोजन के तहत दो बच्चों की संख्या सीमित रखने के लिए मजबूर करने के पक्ष में नहीं है, क्योंकि इससे जनसंख्या के संदर्भ में विकृति उत्पन्न हो जाएगी।

यूपी बीजेपी का क्या है कहना?

केंद्र सरकार के इस स्पष्ट रुख के बावजूद केंद्र में सत्तारूढ भारतीय जनता पार्टी शासित उत्तर प्रदेश की सरकार जनसंख्या नियंत्रण संबंधी कुछ उपाय अपने सूबे में लागू करने जा रही है।

गुजरात, असम, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि राज्यों की सरकारें भी ऐसे कुछ उपाय पहले ही लागू कर चुकी हैं, जिनके तहत दो ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले लोगों को सरकारी सुविधाओं और सरकारी नौकरियों से वंचित करने तथा पंचायत से लेकर नगर पालिका, नगर निगम तक के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने का प्रावधान किया गया है।

इस सिलसिले में बीजेपी के तीन राज्यसभा सदस्यों सुब्रमण्यम स्वामी, हरनाथ सिंह यादव और अनिल अग्रवाल ने संसद के मानसून सत्र में निजी विधेयक भी पेश करने का एलान किया है।

प्रधानमंत्री की चिंता

देश में बढती जनसंख्या का मुद्दा कुछ समय पहले तब प्रमुख रूप से चर्चा में आया, जब दो साल पहले स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल क़िले से देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनसंख्या विस्फोट पर चिंता जताई थी। 

उन्होंने कहा था कि हमारे देश में जो बेतहाशा जनसंख्या विस्फोट हो रहा है, वह हमारी आने वाली पीढियों के लिए कई तरह के संकट पैदा करेंगा। 

यह संभवत: पहला मौका था जब देश के किसी प्रधानमंत्री ने लाल क़िले से अपने भाषण में बढती जनसंख्या की समस्या पर चिंता जताई थी। उनकी इस चिंता का देश में व्यापक तौर पर स्वागत हुआ था, लेकिन सवाल यह भी था कि क्या प्रधानमंत्री मोदी खुद अपनी इस चिंता को लेकर वाकई गंभीर है? 

यह सवाल इसलिए उठा था, क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पिछले कार्यकाल में एक बार भी कभी बढती जनसंख्या से जुड़ी चुनौतियों या चिंताओं का जिक्र नहीं किया था। 

मोदी ने देश में और देश के बाहर भी कई बार 'डेमोग्राफ्रिक डिविडेंड' यानी देश की विशाल युवा आबादी के फ़ायदे गिनाए थे। सवाल यही था कि आख़िर अब अचानक ऐसा क्या हो गया कि बढ़ती जनसंख्या राष्ट्रीय चिंता का विषय बन गई?

यू-टर्न क्यों?

दरअसल मोदी सरकार को अपने पिछले कार्यकाल में तेज़ गति से आर्थिक विकास की उम्मीद थी। उसे लग रहा था आर्थिक विकास दर तेज़ होने से रोजगार के नए अवसर पैदा होगे और बड़ी संख्या में युवा कामगारों की ज़रूरत होगी। 

लेकिन रोजगार के अपेक्षित अवसर न तो मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में पैदा हुए और इस कार्यकाल में तो पैदा होने के कोई आसार दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रहे। 

यही नहीं, देश की अर्थव्यवस्था मंदी और कोरोना महामारी की गिरफ़्त मे होने के चलते अब तो रोज़गारशुदा लोग भी बेरोज़गार हो रहे है। बेरोजगार नौजवानों की फ़ौज सरकार को बोझ की तरह महसूस हो रही है। 

जिस विशाल जनसंख्या को प्रधानमंत्री कल तक डेमोग्राफिक डिविडेंड बता रहे थे, अब उसी जनसंख्या को उनकी सरकार के आर्थिक सलाहकार और नीति नियामक 'डेमोग्राफिक डिजास्टर' बता रहे हैं।

जनसंख्या विस्फोट

खुद प्रधानमंत्री देश में बढती बेरोज़गारी की स्थिति को स्वीकार नहीं कर रहे हैं, बल्कि अर्थव्यवस्था की बदहाली और बढती बेरोजगारी पर चिंता जताने वालों को वे दलाल तक क़रार दे चुके हैं। 

वैसे जनसंख्या विस्फोट की स्थिति को लेकर प्रधानमंत्री या अन्य किसी का भी चिंता जताना इसलिए बेमानी है, क्योंकि जनसंख्या वृद्धि के आँकड़े चीख-चीख कर बता रहे हैं कि हमारा देश जल्द ही जनसंख्या स्थिरता के करीब पहुँचने वाला है।

जनसंख्या का डर दिखा कर मुसलमानों को खलनायक घोषित करने की कोशिश

एनएफएचएस रिपोर्ट

नेशनल  फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) 2015-16 के मुताबिक़, देश की मौजूदा टोटल फर्टिलिटी रेट 2.3 से नीचे है। यानी देश के दंपति औसतन करीब 2.3 बच्चों को जन्म देते हैं।

यह दर भी तेजी से कम हो रही है। जनसंख्या को स्थिर करने के लिए यह दर 2.1 होनी चाहिए और यह स्थिति कुछ ही वर्षों में खुद ब खुद आने वाली है। 

एनएफ़एचएस के मुताबिक़, देश में हिंदुओं की फ़र्टिलिटी रेट जो 2004-05 में 2.8 थी, वह अब 2.1 हो गई है। इसी तरह मुसलिमों की फ़र्टिलिटी रेट 3.4 से गिरकर 2.6 हो गई है।

स्थिर जनसंख्या के क़रीब

1.2 बच्चे प्रति दंपति के हिसाब से सबसे कम फर्टिलिटी रेट जैन समुदाय में है। वहाँ बच्चों और महिलाओं की शिक्षा सबसे ज्यादा है। इसके बाद सिख समुदाय में फ़र्टिलिटी रेट 1.6, बौद्ध समुदाय में 1.7 और ईसाई समुदाय में 2 है।

भारत की औसत फ़र्टिलिटी रेट 2.2 है जो कि अभी भी 'हम दो, हमारे दो' के आंकड़े से ज्यादा है। 

भारत दुनिया में पहला देश है, जिसने सबसे पहले अपनी आज़ादी के चंद वर्षों बाद 1950-52 में ही परिवार नियोजन को लेकर राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम शुरू कर दिया था।  ग़रीबी और अशिक्षा के चलते शुरुआती दशकों में इसके क्रियान्वयन में दिक्कतें पेश आती रहीं। 

समुदायों की फ़र्टिलिटी रेट

जनसंख्या नियंत्रण

1975-77 में आपातकाल के दौरान मूर्खतापूर्ण जोर-जबरदस्ती से लागू करने के चलते यह कार्यक्रम बदनाम भी हुआ, लेकिन पिछले दो दशकों के दौरान लोगों में इस कार्यक्रम को लेकर जागरुकता बढी है। 

लेकिन जनसंख्या को लेकर हमारे यहां कट्टरपंथी हिंदू संगठनों और राजनीतिज्ञों की ओर से एक निहायत बेतुका प्रचार अभियान सुनियोजित तरीके से पिछले कई वर्षों से चलाया जा रहा है, जो कि हमारे जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम के खिलाफ है।

मनगढंत आंकड़ों के ज़रिए वह प्रचार यह है कि जल्दी ही एक दिन ऐसा आएगा जब भारत में मुसलमान और ईसाई समुदाय अपनी आबादी को निर्बाध रूप से बढाते हुए बहुसंख्यक हो जाएंगे और हिंदू अल्पमत में रह जाएंगे।

गढ़े हुए मिथ का सच!

अत: उस 'भयानक’दिन को आने से रोकने के लिए हिंदू भी अधिक से अधिक बच्चे पैदा करने चाहिए।

मजेदार बात यह है कि हिंदुओं से ज़्यादा  बच्चे पैदा करने की अपील करने वाले यही लोग जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने की माँग करने में भी आगे रहते हैं। 

एक दिलचस्प और उल्लेखनीय बात यह भी है कि मुसलमानों की कथित रूप से बढती आबादी को लेकर चिंतित होने वाले ये ही हिंदू कट्टरपंथी इज़रायल के यहूदियों का इस बात के लिए गुणगान करते नहीं थकते है कि संख्या में महज चंद लाख होते हुए भी उन्होंने अपने पुरुषार्थ के बल पर करोड़ों मुसलमानों पर न सिर्फ धाक जमा रखी है बल्कि कई लड़ाइयों में उन्हें क़रारी शिकस्त भी दी है और उनकी ज़मीन छीनकर अपने राज्य का विस्तार किया है। 

यहूदियों के इन आशिकों और हिंदू कट्टरता के प्रचारकों से पूछा जा सकता है कि अगर मुसलमान संख्या बल में यहूदियों से कई गुना भारी होते हुए भी उनसे शिकस्त खा जाते हैं तो फिर हिंदुओं को ही भारतीय मुसलमानों की भावी और काल्पनिक बहुसंख्या की चिंता में दुबले होने की क्या ज़रूरत है? या फिर वे क्या यह जताना चाहते हैं कि यहूदी हिंदुओं से ज्यादा काबिल हैं? 

बढ़ती जनसंख्या का डर दिखा कर निशाने पर मुसलमान!

निशाने पर मुसलमान?

मुसलमानों और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों की कथित रूप से बढती आबादी पर चिंतित होने वाले यह भूल जाते है कि आबादी बढने या ज्यादा बच्चे पैदा होने का कारण कोई धर्म या विदेशी धन नहीं होता। 

इसका कारण होता है ग़रीबी और अशिक्षा। किसी भी अच्छे खाते-पीते और पढे-लिखे मुसलमान (अपवादों को छोडकर) के यहाँ ज़्यादा बच्चे नहीं होते। बच्चे पैदा करने की मशीन तो ग़रीब और अशिक्षित हिंदू या मुसलमान ही होता है।

कहने का मतलब यह कि जो समुदाय जितना ज्यादा गरीब और अशिक्षित होगा, उसकी आबादी भी उतनी ही ज्यादा होगी। 

अफसोस की बात यह है कि समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के आबादी संबंधी इन सामान्य नियमों को नफ़रत के सौदागर समझना चाहे तो भी नही समझ सकते, क्योंकि उनके इरादे तो कुछ और ही है। 

लेकिन जनसंख्या वृद्धि से संबंधित आंकडों और तथ्यों की रोशनी में यही कहा जा सकता है कि जनसंख्या विस्फोट पर सरकार के नीति नियामकों का और सत्तारूढ दल के सहयोगी संगठनों का चिंता जताना सिर्फ अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर सरकार की नाकामी से ध्यान हटाने का उपक्रम ही है, इससे ज्यादा कुछ नहीं।