RSS के शब्दों पर भरोसा करना असंभव!

09:01 am Oct 12, 2024 | कुणाल पाठक

अंग्रेज़ी दमन के बीच जब नेहरू और गांधी समेत पूरा भारत औपनिवेशिक सत्ता के ख़िलाफ़ लड़ रहा था, लोगों को जेलों में ठूँसा जा रहा था और क्रांतिकारियों को थोक में फाँसी की सजा दी जा रही थी उस समय RSS यानि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ देश की आज़ादी के लिए क्या कर रहा था, इस बारे में लिखने के लिए एक पैराग्राफ़ से अधिक की आवश्यकता नहीं है। लेकिन भारत में सांप्रदायिकता के सतत अस्तित्व के लिए, RSS के द्वारा किए गये कार्यों को कई पुस्तकों में भी पूरा नहीं लिखा जा सकता। RSS के बारे में बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं है कि उनके एक पूर्व स्वयंसेवक ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या की थी। कहानी इसके आगे और भी है। वास्तव में RSS और उसके संगठन ‘राष्ट्रीय एकता’ की कितनी भी बात कर लें, उनके लिए राष्ट्र, सांप्रदायिकता के एक मंच से अधिक कुछ भी नहीं रहा।  

बीते 6 अक्तूबर को RSS प्रमुख मोहन भागवत राजस्थान के बारां में अपने स्वयंसेवकों को संबोधित कर रहे थे। भारतीय समाज की सुरक्षा के लिए उन्होंने आपसी सभी मतभेदों को समाप्त कर ‘एकजुट’ होने का आह्वान किया। भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ के रूप में उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि "हम यहां प्राचीन काल से रह रहे हैं, भले ही 'हिंदू' शब्द बाद में आया हो। हिंदू सभी को अपनाते हैं। वे निरंतर संवाद के माध्यम से सद्भाव में रहते हैं"। परंतु अगर RSS और उसके अनुषंगी संगठनों अर्थात् ‘संघ परिवार’ पर नज़र डाली जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि भागवत न सिर्फ़ तथ्यात्मक रूप से ग़लत हैं बल्कि जो वो कह रहे हैं संभवतया उसमें स्वयं उनकी ही संपूर्ण आस्था नहीं है। 

RSS का वैचारिक विस्तार 1938 में एम.एस. गोलवलकर उर्फ़ गुरुजी द्वारा लिखे गये "वी, ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड" से बिलकुल साफ़ नज़र आने लगा था। अपने इस दस्तावेज में गोलवरकर ने अल्पसंख्यकों को उनकी निष्ठा हिंदुओं के साथ जोड़ने को कहा। लेकिन वो यहीं नहीं रुके, उन्होंने आगे कहा कि- ऐसे अल्पसंख्यक जो हिंदू धर्म द्वारा बताये गये सामाजिक नियमों को नहीं मानते हैं वो असल में ‘म्लेच्छ’ हैं। 

म्लेच्छ प्राचीन भारत में इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द है जिसका उपयोग भारतीय संस्कृति और साहित्य में उन व्यक्तियों या समुदायों के लिए किया जाता था जो वैदिक और हिंदू परंपराओं का पालन नहीं करते थे, या जिनकी भाषा और आचार-विचार को "असभ्य" या "बर्बर" माना जाता था। इस नज़रिए से यह शब्द विशेष रूप से वैदिक और ब्राह्मणीय समाज में उन विदेशी या गैर-हिंदू समूहों के संदर्भ में प्रयोग किया जाता था जिनकी जीवनशैली, भाषा, और रीति-रिवाज भारतीय सामाजिक मान्यताओं से अलग थे। इसीलिए ज्ञानेद्र पांडेय जैसे मूर्धन्य इतिहासकार गोलवरकर के नज़रिए को ‘अपर कास्ट रेसिज़्म’ से जोड़कर देखते हैं। तथ्यात्मक रूप से देखा जाय तो यह सच भी है।

आख़िर क्या कारण है कि जब से संघ की स्थापना हुई है तब से आज तक किसी निचली जाति के व्यक्ति को संघ ने अपना चीफ नहीं चुना। यहाँ तक कि राजेंद्र सिंह के अलावा ऐसा कोई RSS प्रमुख ही नहीं रहा जो ग़ैर-ब्राह्मण हो। गोलवरकर को तो हिटलर की विचारधारा से प्रेरणा लेने में भी कोई तकलीफ़ नहीं हुई। हिटलर के लिए जो ‘वैल्यू’ यहूदियों के लिए थी गोलवरकर के लिए वही स्थिति मुस्लिमों के लिए थी। गोलवरकर को तो लगता था कि भारतीय ईसाई और मुस्लिम दोनों ही राष्ट्रविरोधी है और इन्हीं विचारों की नींव पर RSS को खड़ा किया गया। और इसका स्वाभाविक रूप से यह परिणाम निकला कि उनके तमाम नेताओं और स्वयंसेवकों के भीतर घृणा पनपती गई।

गोलवरकर की किताब मुसलमानों को ‘दूसरे दर्जे’ का नागरिक मानने की प्रेरणा देती है। RSS की आनेवाली पीढ़ियों ने इस प्रेरणा को बखूबी निभाया भी है।

BJP नेता विनय कटियार को लगता है “मुसलमानों का भारत में कोई स्थान नहीं है, उन्हें पाकिस्तान जाना चाहिए(2017)।”, BJP सांसद साक्षी महाराज को यह समझ में आया कि “मदरसे आतंकवादी पैदा करते हैं(2018)।”, तो पिछले 60 सालों से भारतीय राजनीति में मौजूद पूर्व BJP सांसद सुब्रमण्यम स्वामी को यह चेतावनी ज़रूरी लगती है कि “मुसलमानों को अपने हिंदू जड़ों को स्वीकार करना चाहिए, अन्यथा उनके वोटिंग अधिकार समाप्त कर दिए जाएंगे(2013)।” BJP सांसद अनंत हेगड़े ने तो अपने ‘गुरुओं’ के हवाले से यह मान लिया है कि “जब तक इस्लाम है, तब तक शांति असंभव है(2017)।”  1980 के दशक में तमिलनाडु में तो RSS द्वारा अपने पूर्व स्वयंसेवक रामगोपालन के नेतृत्व में हिंदू मुन्‍नानी नाम का एक कट्टर हिंदू राष्ट्रवादी संगठन खड़ा कर दिया। जिसका उद्देश्य कहने को तो हिंदू संस्कृति और पहचान की रक्षा करना और उसे बढ़ावा देना था। लेकिन असल में यह संगठन निरंतर कट्टरवादी गतिविधियों में शामिल है। 

ऐसे असंख्य विचार हैं जिन्होंने हर रोज़ भारत की एकता को किश्तों में तोड़ने की कोशिश की है और यह अभी जारी है। क्या मोहन भागवत को ये विचार हिंदुओं द्वारा किसी संवाद की स्थापना समझ में आते हैं। अपने विचारों को धमकी देकर मनवाने की कोशिश करना बर्बरता है किसी संवैधानिक लोकतंत्र का लक्षण नहीं है। वास्तव में RSS ने हिंदुओं को इकट्ठा करने के नाम पर देश के भीतर समुदायों के बीच एक गहरी ‘फाल्ट लाइन’ बनाई है और अब दशकों से उसकी देखभाल कर रहा है, इस बीच जहां मौक़ा मिलता है उसे और गहरा कर दिया जाता है।

स्वयं मोहन भागवत ने कहा कि "लव जिहाद एक अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र है" हालांकि बाद में उन्होंने कहा कि लोगों को अपने जीवन साथी चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। भले ही वो मात्र दिखाने के लिए अपने बयान से पीछे हट गये हों लेकिन जिस तरह BJP शासित राज्यों में लव जिहाद पर क़ानून बनाये गये, उससे लगता नहीं कि संघ प्रमुख के विचारों में कोई बदलाव आया भी होगा! 

RSS सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करता है। भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधि बनना चाहता है, नेतृत्व संभालने को आतुर है और लगातार ऐसे अनुषंगी संगठनों का निर्माण करता रहा जिससे यह प्रतीत हो कि RSS को भारतीय सस्कृति के अनुरक्षण में दिलचस्पी है न कि राजनैतिक पद प्रतिष्ठा पाने में। लेकिन जैसे ही दलितों और महिलाओं को मिलने वाले अधिकारों की बात आती है, जैसे निचली जातियों के उत्थान और गौरव की बात आती है RSS का ब्राह्मणवादी चेहरा खुलकर सामने आने लगता है।

संघ प्रमुख ने राजस्थान के अपने भाषण में इस बात पर जोर दिया कि हिंदू समाज को अपनी सुरक्षा के लिए भाषा, जाति और क्षेत्रीय विवादों के मतभेदों को समाप्त करके एकजुट होना चाहिए। जब एम.एस. गोलवलकर कहते हैं कि “जाति हिंदू समाज की एक मूलभूत विशेषता है” तो इसे भारतीय समाज की सामान्य विशेषता की ओर इंगित करता हुआ उनका विचार मात्र नहीं समझना चाहिए। असल में इसके पीछे संघ की ब्राह्मणवादी मानसिकता का स्वरूप निहित है। जो कि गोलवलकर के बाद तमाम संघ और बीजेपी के नेताओं के माध्यम से सामने आता रहा है। 

स्वयं मोहन भागवत ने 2015 में आरक्षण प्रणाली की समीक्षा का सुझाव देते हुए कहा था कि “आरक्षण समाप्त होना चाहिए।” उनको समझना चाहिए कि आरक्षण निचली जातियों के साथ हज़ारों सालों तक हुए अन्याय की प्रतिक्रिया है जिसे सुधारवादी नज़रिए से बनाया गया है।

 साथ ही यह भी कि न्याय अभी भी कई दशकों दूर है, ख़ासकर तब जबकि उनके अनुषंगी संगठन विश्व हिंदू परिषद को लगता हो कि “दलितों को उच्च शिक्षा की बजाय अपने पारंपरिक काम में रहना चाहिए(2020)।” इसका मतलब ही है कि संघ और इसके अनुषंगी संगठन जातीय संरचना की शोषणवादी प्रवृत्ति को बनाये रखना चाहते हैं। 2024 का दशहरा आ गया है। अब से 7 साल पहले के विजयदशमी के दिन, 2017 में, कुछ RSS  नेताओं ने दलित समुदाय के सदस्यों को उनके पारंपरिक व्यवसायों में बने रहने की सलाह दी थी। पहले बजरंग दल का नेता रहा और अब श्री राम सेना का मुखिया, प्रमोद मुथालिक कहता है कि “दलितों को अपने स्थान को समझना चाहिए(2015)।” 

ऐसा लगता है कि ब्राह्मणवादी मानसिकता से ग्रस्त संपूर्ण राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सिर्फ़ अल्पसंख्यकों और निचली जातियों को लेकर ही बौद्धिक पतन की अवस्था में नहीं है, उनका यह सिलसिला हर समूह, वर्ग और जाति की महिलाओं तक भी पहुँचता है। मोहन भागवत का विचार है कि “महिलाओं की भूमिका घर और पति की देखभाल करना है(2013)।” भागवत ने महिलाओं की प्राथमिक भूमिका घरेलू कार्यों तक सीमित रखी।

प्रवीण तोगड़िया महिलाओं को पारिवारिक भूमिकाओं तक सीमित रखने को कहते हैं कि “महिलाओं को दफ्तरों में काम नहीं करना चाहिए(2014)।” बात सिर्फ़ दफ़्तर और घर की ही नहीं है। RSS यह भी तय करना चाहता है कि महिलाओं को मंदिर में प्रवेश मिले या नहीं। 2018 में सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश मामले पर पर सुप्रीम कोर्ट के सकारात्मक फैसले का RSS द्वारा विरोध उसकी सोच का आईना है। महिलाओं के ख़िलाफ़ पिछड़ी मानसिकता सिर्फ़ RSS तक सीमित नहीं बल्कि राज्यों के मुख्यमंत्रियों में भी है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 2017 में कहा कि “पुरुष और महिलाएं समान नहीं हैं, पुरुषों को अधिक अधिकार मिलना चाहिए।”  यह बयान महिलाओं की समानता के खिलाफ था।

पूर्व BJP विधायक सुरेंद्र सिंह कहते हैं कि “बलात्कार इसलिए होते हैं क्योंकि महिलाएं शालीनता का पालन नहीं करतीं(2018) ।” सिंह ने महिलाओं को ही बलात्कार के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया। इसके अलावा RSS और विश्व हिंदू परिषद द्वारा महिला राजनीतिक सक्रियता का विरोध करते हुए कहा गया कि “महिलाओं को अपने बच्चों की परवरिश पर ध्यान देना चाहिए, राजनीति पर नहीं।” भारत की 50% आबादी के ख़िलाफ़ इन विचारों के साथ RSS कैसे भारत का निर्माण करना चाहता है?

अब सवाल यह है कि जब RSS प्रमुख कहते हैं कि “संघ का संचालन यांत्रिक नहीं, बल्कि विचारों पर आधारित है। यह एक अद्वितीय संगठन है, जिसके मूल्य समूह नेताओं से लेकर स्वयंसेवकों, उनके परिवारों और व्यापक समाज तक प्रसारित होते हैं”। तब इसके क्या निहितार्थ निकाले जाने चाहिए? क्या दलितों और महिलाओं को लेकर RSS के पास यही मूल्य हैं? क्या RSS के पास समाज को देखने का यही दृष्टिकोण है? वास्तविकता तो यह है कि जिस संगठन में नेतृत्व के स्तर पर निचली जातियों को जगह न प्रदान की जाती हो, जहां महिलाओं के प्रति रूढ़िवादी दृष्टिकोण 21वीं सदी में भी प्रभावी हो, जो संगठन एक तरफ़ राष्ट्रीय अखंडता की बात करे और दूसरी तरफ़ 20 करोड़ मुसलमानों को दरकिनार करने का हर संभव प्रयास करे, जो राजनीति से दूर रहने की किताबी बातें करें और हर कदम पर राजनीति में मशगूल रहे, जो राष्ट्र के पहले हिन्दू धर्म को रखने की कोशिश करे, जिसके विचारों में पिछड़ेपन की बू आती हो उसे लेकर पूरे देश को सतर्क हो जाना चाहिए।