किसान आंदोलन के बाद से ही हवा थी कि हरियाणा में कांग्रेस आ रही है। कुछ विश्लेषकों का यही बात कहने का इतर अंदाज़ था। वे कहते थे कि कांग्रेस आ नहीं रही है, बीजेपी जा रही है। हालाँकि दोनों अभिव्यक्ति में एक ही अर्थ समाहित है लेकिन दूसरी अभिव्यक्ति के अंतर्निहित अर्थ थोड़े भिन्न हैं जो उन लोगों को सुखानुभूति देता था जो बीजेपी के धुर विरोधी थे; बीजेपी की नीतियों से दुःखी थे। बीजेपी को राज्य से 'भगाने' की अभिव्यक्ति उन्हें सुख का एहसास कराती थी। हालात ऐसे बन भी गए थे कि बीजेपी का सत्ता में लौटना मुमकिन नहीं है। बीजेपी के नेताओं और कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट रहा था क्योंकि उनका अपना सर्वे सिर्फ 27 सीटों पर विजय दिखा रहा था। नब्बे सीटों वाली विधानसभा में बहुमत के लिए 46 विधायकों जरूरत है। सर्वे के हिसाब से पार्टी सत्ता से 19 सीटों से दूर थी।
2019 के चुनाव में भी बीजेपी को बहुमत नहीं मिला था लेकिन उसकी भरपाई 10 सीटें जीतकर जेजेपी ने पूरी कर दी थी और पार्टी की सरकार बन गई थी। इस बार नैया पार लगने की कोई संभावना नहीं थी क्योंकि 19 सीटों का फासला भरना नामुमकिन था। कांग्रेस की मजबूत स्थिति के कारण अन्य दलों को अधिक सीटें मिलने की गुंजाइश खत्म हो गई थी। इन हालात में नेताओं और कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरना स्वाभाविक था। चुनाव के दौरान हालात अचानक बदल गए। हालात के चक्र की धुरी थी हरियाणा में कांग्रेस की कद्दावर नेता कुमारी सैलजा, जो अनुसूचित जाति की राजनीति का सशक्त चेहरा भी हैं।
कुमारी सैलजा ने अपने खासमखास लोगों के लिए दो टिकट मांगे थे। एक का नाम उजागर कर दिया था; दूसरा नाम उजागर नहीं किया था लेकिन उनके रूख से वो नाम पता लग गया था। वे नारनौंद विधानसभा क्षेत्र से डॉक्टर अजय चौधरी के लिए टिकट माँग रही थीं। डॉक्टर चौधरी जाट हैं और बहुत काबिल हैं। जाति इसलिए बताई है कि उस विधानसभा क्षेत्र में जाट मतदाता एक लाख 10 हज़ार है जो विधानसभा चुनाव में विजय दिलाने के लिए काफी हैं। उनके पास मेडिसिन में एमएस की डिग्री है, गोल्डमेडल के साथ। वे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) के सदस्य भी हैं। ऐसे व्यक्ति की टिकट के लिए पैरवी की जरूरत नहीं होनी चाहिए। लेकिन कुमारी सैलजा ने उनके लिए टिकट माँगा था।
राज्य में चुनाव की घोषणा से पहले उन्होंने नरनौंद की अनाज मंडी में एक रैली की थी जिसमें उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि डॉक्टर साहब को विजयी बनाकर विधानसभा पहुंचाइए। यह परोक्ष रूप से डॉक्टर साहब को टिकट दिलाने का वायदा था। बाद में टिकट मांगा भी। कुमारी सैलजा दूसरा टिकट अपने भतीजे चंद्र प्रकाश के लिए माँग रही थीं। उन्हें हिसार ज़िले के उकलाना विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़वाना चाहती थीं। जब ये दो टिकट माँगे गए तब तक पूर्व मुख्यमंत्री और हरियाणा विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष भूपेंद्र सिंह हुड्डा 72 टिकट बाँट चुके थे। नारनौंद की टिकट का फैसला नामांकन भरने के अंतिम समय से मात्र दो घंटे पहले हुआ।
भूपेंद्र सिंह हुड्डा पार्टी का सिंबल लेकर हेलिकॉप्टर से नामांकन भरने के स्थान तक पहुँचे और जस्सी पेटवाड़ को टिकट सौंप दिया; यानी कुमारी सैलजा के चयनित उम्मीदवार डॉक्टर अजय चौधरी को टिकट नहीं दिया गया। जस्सी पेटवाड़ एक साल पहले इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) छोड़कर कांग्रेस में आए थे। उधर, उनके भतीजे चंद्र प्रकाश को भी टिकट नहीं दिया गया। कुमारी सैलजा को बहुत भारी झटका लगा था।
हुड्डा खेमे से यह संदेश देने की कोशिश की गई थी कि हुड्डा का विरोध करने वालों की हैसियत दो टिकट दिलाने की भी नहीं है। इसके बाद दो घटनाक्रम ऐसे हुए जो कांग्रेस के लिए घातक साबित हुए।
जस्सी पेड़वाल को टिकट मिलने की खुशी में उनके समर्थकों ने कमीज उतार डांस किया और कुछ ऐसा व्यवहार भी किया जो अशोभनीय और निंदनीय था। साथ ही, एक समर्थक ने कुमारी सैलजा के लिए जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करते हुए अभद्र भाषा का प्रयोग किया। इस सारे घटनाक्रम के बाद कुमारी सैलजा 'बेचारी' बन गईं और घर बैठ गईं। उनकी दयनीय स्थिति और बेचारगी देख कर अनुसूचित जाति का मतदाता बहुत आहत हुआ। वे कहने लगे थे कि यदि कांग्रेस जीत गई तो चहुँओर जाट ही दिखेंगे; हम कहीं नहीं होंगे; हमें जाटों के रहमोकरम पर जीना पड़ेगा। इस आशंका से अनुसूचित जाति का मतदाता बीजेपी की ओर खिसक गया।
यही मतदाता लोकसभा चुनाव में खासतौर से नारनौंद हलके में कांग्रेस के साथ मजबूती से खड़ा था इसलिए लोकसभा में कांग्रेस उम्मीदवार जयप्रकाश को नारनौंद से 45 हजार से अधिक मतों की लीड मिली थी। लोकसभा चुनाव के करीब साढ़े चार महीने बाद विधानसभा चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार जस्सी पेड़वाल 10 मतों से जीता है। इसका मतलब साफ है; 35 हजार से अधिक मतदाता कांग्रेस का साथ छोड़ गए। आखिर करीब साढ़े चार महीनों में ऐसा क्या हो गया कि भारी संख्या में मतदाता कांग्रेस का साथ छोड़ गए। जाहिर है कि उम्मीदवार की साख अच्छी नहीं थी और इसके लिए सिर्फ भूपेंद्र सिंह हुड्डा जिम्मेदार हैं। अब वे ईवीएम की आड़ लेकर खुद को दोषमुक्त करने की हास्यास्पद कोशिश कर रहे हैं।
टिकट बंटवारे में जिस तरह से भूपेंद्र सिंह हुड्डा का दबदबा रहा है और जाटों को तरजीह दी गई है उससे न सिर्फ अनुसूचित जाति के मतदाता बल्कि अन्य जातियों, यूं कहें कि गैर जाट मतदाताओं का कांग्रेस से मोहभंग हुआ। कुमारी सैलजा के समर्थक विधायकों को किसी पैरवी से टिकट नहीं मिला। उन्हें टिकट देना हुड्डा और पार्टी आलाकमान की मजबूरी थी। पार्टी का नियम था कि पिछली विधानसभा में जो विधायक थे उनका टिकट नहीं काटा जाएगा। कुमारी सैलजा के समर्थक विधायकों को इस नियम के तहत टिकट मिला है। उधर, बीजेपी के ''बिना पर्ची, खर्ची'' के अभियान ने भी रंग दिखाया। गैर जाटों को भली तरह यह समझा दिया गया था कि आपके बच्चों को बीजेपी सरकार ही नौकरी दे सकती है। कांग्रेस राज में सिर्फ जाटों को नौकरी मिलेगी। एक और बड़ी घटना ने कांग्रेस के ताबूत में आखिरी कील का काम किया। नारनौंद से कांग्रेस के उम्मीदवार जस्सी पेड़वाल ने कैमरे के सामने यह बयान दिया कि हम पाँच तारीख (यानी पाँच अक्तूबर, मतदान का दिन) का इंतजार कर रहे हैं, उसके बाद हरियाणा के सारे ब्राह्मणों का इलाज करेंगे। लेकिन, ब्राह्मणों का इलाज करने से पहले ही अनुसूचित जाति, ओबीसी, ब्राह्मण, वैश्य और अन्य जातियों के मतदाताओं ने मिलकर कांग्रेस को पाँच साल 'आराम' करने का प्रेस्क्रिप्शन दे दिया है।
(लेखक - वरिष्ठ पत्रकार हैं)