कॉरपोरेट के बहिष्कार के सिवाय कोई रास्ता नहीं!

06:06 pm Dec 15, 2020 | मुकेश कुमार सिंह - सत्य हिन्दी

इन दिनों हर किसी की ज़ुबान पर एक ही सवाल है कि किसान आन्दोलन का नतीज़ा क्या निकलेगा सवाल बिल्कुल सटीक और समसामयिक है। कौतूहल स्वाभाविक और सार्वजनिक है। हालाँकि, इसका जवाब आसान नहीं। आन्दोलन एक परीक्षा है, जिसके नतीजे की भविष्यवाणी भले ही कोई कर दे, लेकिन यह बताना मुमकिन नहीं कि नतीज़ा आएगा कब

ज़ाहिर है, आन्दोलन का अंज़ाम क्या होगा, इसे सिर्फ़ पूर्वानुमानों से ही समझा जा सकता है, क्योंकि किसी भी आन्दोलन का जन्म और संचालन जिन समाज शास्त्रीय नियमों से होता है, उनमें स्वार्थ और साज़िश का बोलबाला होता है।

कॉरपोरेट बनाम किसान

किसान समुदायों पर साज़िश के चाहे जितने लाँछन लगाये जाएँ, लेकिन उनके आन्दोलन रूपी तपस्या का स्वार्थ स्पष्ट है कि संसद से ज़बरन पारित तीनों कृषि क़ानून उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं हैं। लिहाज़ा, सरकार इन्हें फ़ौरन वापस ले, रद्द करे। किसान बार-बार कह रहे हैं कि उन्हें इससे कम कुछ भी मंज़ूर नहीं।

दूसरी ओर सर्वसत्ता-सम्पन्न, ज़िद्दी और कॉरपोरेट की हितसाधक सरकार है, जिसके संस्कार और स्वभाव में ही लचीलापन, समन्वयवादी सोच, क़दम पीछे खींचने, ग़लतियों पर पुनर्विचार करने और उन्हें सुधारने की कोशिश करने जैसी बातें नहीं हैं।

नाकाफ़ी है सत्याग्रह

मौजूदा सरकार को किसी सर्वशक्तिमान सत्ता की तरह आर-पार का फ़ैसला लेने में अद्भुत आनन्द मिलता है। उसे विध्वंसक और विनाशकारी फ़ैसले लेने और उसे ‘राष्ट्रहित’ में उपयुक्त ठहराने में विचित्र सुख की अनुभूति होती है।

अपने इन्हीं स्वभावों की वजह से इसने न सिर्फ़ संसद को किसी लठैत की तरह हाँक कर दिखाया है, बल्कि मेनस्ट्रीम मीडिया, न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका को भी रीढ़विहीन बनाकर दिखा दिया है। विडम्बना है कि इसके बावजूद इसे ‘टू मच डेमोक्रेसी’ की पीड़ा सता रही है।

यदि आन्दोलनकारी किसानों को यह लगता है कि सरकार उनके सत्याग्रह के आगे झुक जाएगी, तो वे इसके ताज़ा अतीत को नज़रअन्दाज़ करने की नादानी कर रहे हैं।

दूसरे ग़लत फ़ैसले!

किसान कैसे भूल सकते हैं कि तेज़ी से कड़े फ़ैसले लेने वाली सरकार ने जिस संसद से डंके की चोट पर कृषि क़ानून पारित करवाये, उसी ढंग से संविधान के अनुच्छेद 370 का सफ़ाया किया, जम्मू-कश्मीर का विभाजन किया और नागरिकता क़ानून बनाया। इससे पहले अधकचरे जीएसटी और नोटबन्दी का नतीजा भी देश देख चुका है।

इसके प्रभाव के तौर पर आर्थिक मन्दी और बेरोज़गारी का दुष्प्रभाव भी सबके सामने है। महज़ चार घंटे के नोटिस पर कोरोना लॉकडाउन के ज़ख़्म तो अभी हरे ही हैं। इन सबका एक ही निचोड़ है कि यह सरकार सही करे या ग़लत, इसे अपने किये पर कभी कोई अफ़सोस नहीं होता। मलाल या पछतावा नहीं होता। हो भी क्यों

सच्चा है सरकारी अहंकार

यह सत्ता चुनाव दर चुनाव अपने घातक फ़ैसलों के बावजूद जनादेश हासिल करती रही है। ताल ठोक कर सरकारें गिराती-बनाती रही है। लिहाज़ा, पीछे मुड़कर देखने या जनाक्रोश के अल्पमत की परवाह ये भला क्यों करने लगे!

जिसके पास सम्पदा होगी, शक्ति होगी, वही तो इस पर ग़ुमान करेगा! दुर्बल और निर्बल की परवाह तो सिर्फ़ उन्हें होती है जो दयालु और कृपालु होते हैं। बलशाली ने किसे अभय दिया है, किसे क्षमा किया है, वह तो सब कुछ रौंदता हुआ ही आगे बढ़ता है।

बकौल रामधारी सिंह दिनकर, ‘क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो, उसका क्या जो दन्तहीन, विषरहित, विनीत, सरल हो।’ किसानों को समझना होगा कि वो ‘अजेय सत्ता’ से टकरा रहे

कब तक चलेगा संघर्ष

सरकार की निष्ठुरता जगज़ाहिर है। वह अपनी उदार छवि बनाना भी नहीं चाहती। किसान जिस अखाड़े में उतरे हैं, उसमें यदि वे सरकार से किसी हमदर्दी की उम्मीद रखेंगे तो उनका कोई भला नहीं होने वाला। किसानों को थक-हारकर अपने घरों को लौटना होगा और कॉरपोरेट की दासता स्वीकार करनी होगी।

किसानों के पास ‘करो या मरो’ के सिवाय और कोई विकल्प नहीं हो सकता। इसका मतलब यह हुआ कि यदि किसान अपनी जीत का सपना साकार करना चाहते हैं तो उन्हें लम्बे संघर्ष और बलिदान की ज़रूरत होगी।

‘लम्बा संघर्ष’ बोलने में जितना छोटा है, करने में उतना ही अपरिमित।

आज़ादी की लड़ाई

अगला सवाल तो और भी कठिन है कि आख़िर कितना लम्बा संघर्ष और बलिदान किसानों को सफल बना पाएगा इसका जवाब हमें स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास से मिलता है। वहाँ महात्मा गाँधी के नेतृत्व में जब आज़ादी के आन्दोलन की शुरुआत हुई थी, तब क्या किसी को पता था कि आज़ादी कब मिलेगी फ़िलहाल, वही दशा किसानों के सामने है।

सरकार की ओर से आन्दोलन को दबाने के लिए जैसे हथकंडों और साज़िश का इस्तेमाल हो रहा है, वे हूबहू वैसी ही हैं जैसी तिकड़में अँग्रेज़ आज़माया करते थे या फिर जिसे सरकार ने हाल के वर्षों में विरोध की आवाज़ों को कुचलने के लिए अपनाया है।

अटपटे नहीं हैं ‘नैरेटिव’

हम चाहें तो नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ उमड़े शाहीन बाग़ों या ‘370’ के विरोध में कश्मीर में बने हालात पर ग़ौर कर सकते हैं। शाहीन बाग़ का अंज़ाम दिल्ली के वीभत्स दंगे के रूप में सामने आया तो कश्मीर में विरोधी नेताओं का रातों-रात जेलों में ठूँसा जाना भी उतना ही दमनकारी था, जैसा अँग्रेज़ों के ज़माने में होता था या फिर जैसा इन्दिरा गाँधी के आपातकाल में हुआ था।

अभी किसानों के आन्दोलन से निपटने के लिए भी आज़माये जा चुके हथकंडों का ही इस्तेमाल हो रहा है। मसलन, ये खालिस्तानी हैं, पाकिस्तानी हैं, राष्ट्रविरोधी हैं, नक़ली किसान हैं, ग़रीब किसान नहीं हैं, राजनीति से प्रेरित हैं, उग्र वामपन्थी हैं, असामाजिक तत्व हैं, काँग्रेस और अकालियों के एजेंट हैं।

मीडिया की भूमिका

हमें सरकारी या सत्ता-पक्ष के ऐसे ‘नैरेटिव’ को अटपटा नहीं मानना चाहिए। कोई भी सरकार जब किसी आन्दोलन को दबाना या कुचलना चाहती है, तब ऐसी तिकड़में ही आज़माती है। सरकार का एक ही उद्देश्य होता है कि किसी भी तरह से आन्दोलन की साख या उसकी प्रतिष्ठा को गिराया जाए। इसके नेताओं और कार्यकर्ताओं का चरित्रहनन किया जाए।

सरकार के इस लक्ष्य को मेनस्ट्रीम मीडिया ने बहुत आसान बना दिया है। इनके हित भी आपस में मिलते हैं। क्योंकि सरकार और उसकी पिछलग्गू मीडिया, दोनों ही उन्हीं कॉरपोरेट्स के टुकड़ों पर पल रहे हैं, जिनसे किसानों की जान पर बन आयी है।

अब किसान जैसे-जैसे अपने आन्दोलन को व्यापक और प्रखर बनाएँगे, वैसे-वैसे सरकारी तिकड़में भी तेज़ होंगी। आन्दोलन उग्र होगा तो उसमें हिंसा और सार्वजनिक सम्पत्ति के विनाश की हिस्सेदारी बढ़ेगी। आम जनता की तकलीफ़ें बढ़ेंगी।

हिंसक होगा आन्दोलन

किसान भले ही हिंसा से दूर रहें, लेकिन सरकार की शह पाकर उसके चहेते उपद्रवी तत्व आन्दोलन को हिंसक और विस्फोटक बनाने की कोशिश करेंगे, ताकि इसे जनता की हमदर्दी नहीं मिल सके। अब तक सरकार देख चुकी है कि किसानों के दृढ़ संकल्प के सामने आँसू-गैस, लाठीचार्ज़ और ‘वॉटर कैनन’ बेअसर साबित हुए हैं।

सरकार अपनी जिद पर अड़ी तो है, लेकिन किसान आन्दोलन से क्या नरेंद्र मोदी सरकार को नुक़सान नहीं होगा, देखें वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष क्या कहते हैं। 

लिहाज़ा, अब बारी है फ़ायरिंग, मौत और किसान-नेताओं की नज़रबन्दी या गिरफ़्तारी की। यह आलम पैदा होने में वक़्त जो भी लगे, लेकिन जिस दिन सरकार, किसानों के आन्दोलन को कुचलने का मन बना लेगी, उसी दिन इसमें हिंसा का तड़का लगवा दिया जाएगा।

फिर हिंसा को दबाने के लिए सरकारी बर्बरता दिखायी जाएगी और अन्ततः आन्दोलन को कुचल दिया जाएगा। लिहाज़ा, आन्दोलन उतना ही लम्बा खिंचेंगा, जितना सरकार चाहेगी!

बहिष्कार ही है राम-बाण 

अब सवाल यह है कि उपरोक्त सभी पहलुओं से किसानों के नेता और उनके रणनीतिकार अन्ज़ान तो हो नहीं सकते। सबके पास तमाम किस्म के तज़ुर्बे हैं। इसीलिए, किसानों ने गाँधी जी के चिरपरिचित ब्रह्मास्त्र को आज़माने का रास्ता चुना है।

गाँधी जी ने अँग्रेज़ों की चूल हिलाने के लिए जैसे ‘विदेशी कपड़ों की होली जलाने’ का नारा देश को दिया था, उसी तर्ज़ पर किसानों ने बिल्कुल सटीक रणनीति अपनायी है कि वो अम्बानी-अडानी के उत्पादों का बहिष्कार करेंगे। जियो मोबाइल का बहिष्कार इसकी पहली कड़ी है। यहीं से आन्दोलन की कामयाबी का रास्ता खुलेगा। बशर्ते, बहिष्कार की ज्वाला, जंगल की आग की तरह अनियंत्रित होकर फैलने लगे।

जितनी जल्दी किसान और उनका समर्थन करने वाले भारतवासी, रिलायंस और अडानी के उत्पादों के बहिष्कार करके उनके व्यापारिक और राजनीतिक हितों पर चोट पहुँचाएँगे, उतनी ही जल्दी इनकी हितसाधक केन्द्र सरकार घुटने टेकने को मज़बूर होगी।

याद रखिए, अँग्रेज़ों ने भी भारत से जाने का रास्ता तभी चुना जब वो समझ गये कि वो अब पुलिस और फ़ौज की बदौलत भी वो हिन्दुस्तान को अपने उत्पादों का बाज़ार बनाकर नहीं रख पाएँगे।

बाज़ार ही कॉरपोरेट का अहंकार है। वही इसे अजेय बनाता है। इसलिए कॉरपोरेट को ध्वस्त करना है तो उसके बाज़ार, उत्पाद और ब्रॉन्ड का बहिष्कार कीजिए। यही राम-बाण इलाज़ है।