कांग्रेस कार्यसमिति सदस्य और पूर्व केंद्रीय मंत्री आनंद शर्मा ने जाति जनगणना का विरोध करके कांग्रेस के अंदर बैठे उन नेताओं की असहजता सामने ला दी है जो सामाजिक न्याय को राजनीतिक एजेंडा बनाने के पार्टी के फ़ैसले से परेशान हैं। वे इसे जातिवाद बढ़ाने वाला क़दम मानते हैं। आनंद शर्मा ने पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को लिखे अपने पत्र में इसके लिए 1980 में पार्टी के नारे ‘जात न पात पर, मुहर लगेगी हाथ पर’ की याद दिलाते हुए इसे इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी की विरासत का अपमान बताया है।
कांग्रेस जैसी पार्टी में वैचारिक मुद्दों पर खुली बहस की लंबी परंपरा रही है। आज़ादी के पहले के राष्ट्रीय नेता अख़बारों में लेख लिखकर या खुला पत्र जारी करके तमाम मुद्दों पर सहमति-असहमति जताते थे। उन पत्रों और लेखों के संग्रह आज इतिहास के जीवित संदर्भ की तरह किस तरह हमारा मार्गदर्शन करते हैं, यह बताने की ज़रूरत नहीं है। आनंद शर्मा ने कार्यसमिति की बैठक में जाति जनगणना के प्रस्ताव का विरोध किया हो इसकी कोई जानकारी नहीं है। आनंद शर्मा को पाँच महीने दस दिन समझ में आया कि जाति जनगणना से ‘जातिवाद’ बढ़ेगा। हद तो ये है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष को लिखा उनका पत्र मीडिया के पास भी पहुँच गया।
9 अक्टूबर 2023 को कांग्रेस की दिल्ली में हुई कार्यसमिति बैठक में कहा गया था कि “भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस वादा करती है कि उसके नेतृत्व वाली सरकार सामान्य दशकीय जनगणना के हिस्से के रूप में राष्ट्रव्यापी जाति जनगणना कराएगी, जो 2021 में होने वाली थी।” पार्टी ने यह तय किया था कि ओबीसी, अनुसूचित जाति और जनजाति को जनसंख्या के मुताबिक़ हिस्सेदारी देन के लिए आरक्षण की पचास फ़ीसदी की सीमा हटायी जायेगी। कार्यसमिति की बैठक में मौजूद कांग्रेस संसदीय दल की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इसे पार्टी की सर्वोच्च प्राथमिकता बताते हुए कहा, "मैं जाति जनगणना के साथ 100% सहमत हूं, हमें इसे अवश्य कराना चाहिए।” ज़ाहिर है, यह पार्टी की सुनिश्चित लाइन है। राहुल गाँधी अपनी भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान लगातार इस मुद्दे को उठाते रहेऔर उन्हें भारी जनसमर्थन मिलता दिखा। शासन-प्रशासन, उद्योग से लेकर मीडिया तक में इस देश की बहुसंख्यकआबादी का प्रतिनिधित्व न होना एक ऐसी हक़ीक़त है जिसे राहुल गाँधी आईना बनाकर देश के सामने रख रहे हैं।
यह कहना शायद उचित न होगा कि आनंद शर्मा ‘ब्राह्मण’ होने की वजह से मनुवादी सामाजिक ढाँचे पर पड़ रही चोट से विचलित हैं। न यह कहा जाना चाहिए कि कार्यसमिति की बैठक या पार्टी के अंदर बहस न करके मीडिया केबीच असंतोष ज़ाहिर करने के पीछे लंबे समय से सत्ता सुख से वंचित नेता का किसी दूसरी दिशा पकड़ने का संकेत है। लेकिन अगर आनंद शर्मा ने जाति जनगणना को जातिवाद बढ़ने वाला कदम बताया है तो इस विचार के खोखलेपन को उजागर किया जाना चाहिए।
इससे कौन इंकार कर सकता है कि भारतीय समाज हज़ारों साल से जातियों के आधार पर ऊँच-नीच की बीमारी सेग्रस्त है और देश को इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ी है। साफ़ कहें तो इस उपमहाद्वीप के सामाजिक जीवन में समता की कभी कल्पना भी नहीं की गयी। दार्शनिक स्तर पर जीव और ब्रह्म की एकात्मकता की चाहे जितनी बातें की गयी हों, परम पुरुष के मुँह से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और पैरों से शूद्र की उत्पत्ति की कथा में मथा हुआ मानस ही भारतीय समाज की मूल पहचान रहा है। इस पहचान को उलटने की पहली बड़ी कोशिश राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान हुई जिसने समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व को नये भारत के संकल्प के रूप में पेश किया। नतीजा ये हुआ कि जाति-धर्म के दायरे को तोड़कर लोगों ने उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष को वाक़ई ‘राष्ट्रीय' स्वरूप दियाऔर आज़ादी के साथ ही एक ऐसा संविधान अस्तित्व में आया जिसने इस महादेश में पहली बार सभी को वैधानिकरूप से बराबरी का दर्जा दिया।
1932 में महात्मा गाँधी और डॉ.आंबेडकर के बीच हुए ‘पूना पैक्ट’ का नतीजा था कि आज़ादी के साथ ही अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए आरक्षण घोषित किया गया। जैसे आनंद शर्मा आज जाति जनगणना को जातिवाद बढ़ाने वाला कदम बता रहे हैं, उसी तरह आरक्षण को भी जातिवाद बढ़ाने वाला क़दम मानने वालों कीकमी नहीं रही। लंबे अरसे तक कोटा से नौकरी प्राप्त करने वालों को हेय दृष्टि से देखा जाता रहा। यह अलग बात है कि आरक्षण की वजह से भारत में एक ऐसी मौन क्रांति हुई जिसने देश के करोड़ों वंचितों को पहली बार शासन-प्रशासन में हिस्सेदारी का स्वाद चखाया। उनके बीच करोड़ों की संख्या वाला ऐसा मध्य वर्ग पैदा हुआ जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। पिछड़े वर्गों के लिए प्रशासन और शिक्षा में आरक्षण होने से इस प्रक्रिया में और गति आयी। गौर से देखिये तो देश की 85 फ़ीसदी आबादी को आरक्षण से लाभ मिला है और वह इसके पक्ष में है। स्वाभाविक रूप से इसे ग़लत मानने वाले आमतौर पर सवर्ण समुदाय के लोग ही हैं, हालाँकि आर्थिक आधार परमिले आरक्षण का कोई विरोध न होने से ‘आरक्षण बनाम मेरिट’ की उनकी बहस खोखली साबित हुई है।
जाति जनगणना के पीछे मूल सवाल यही है कि आरक्षण की 75 साल की व्यवस्था का आकलन किया जाये।आख़िर इतने लंबा अरसा बीत जाने के बावजूद अगर आरक्षित सीटें भरी नहीं जा सकी हैं तो कोई गंभीर समस्या ज़रूरी होगी। कोई तो तंत्र है जो इसे रोकना चाहता है। राहुल गाँधी इसे ही समाज का ‘एक्स-रे निकालना’ कह रहे हैं। लेकिन आनंद शर्मा जैसे नेताओं को लगता है कि इससे जातिवाद बढ़ जायेगा। यानी वे कहना चाहते हैं कि एक्स-रे निकालने से ‘बीमारी’ बढ़ जाएगी। हक़ीक़त बिलकुल उलट है। एक्स-रे निकालने से रोकने वाली शक्तियाँ प्रकारांतर में बीमारी बनाये रखना चाहती हैं।
सच ये है कि जाति की गणना से जातिवाद नहीं बढ़ेगा बल्कि जाति तोड़ने की प्रक्रिया तेज़ होगी। जातियों के ऊँच-नीच क्रम के टिके रहने के पीछे संसाधनों का असमान बँटवारा भी है। बिहार में हुई जाति जनगणना ने स्पष्ट कर दिया है कि ज़मीन से लेकर नौकरियों तक में क़ब्ज़ा उनका है जिनकी आबादी बेहद कम है। निश्चित ही उच्च जातियों के इस वर्चस्व के ऐतिहासिक कारण हैं, लेकिन एकन्यायपूर्ण समाज बनाने का संकल्प लेने वाली राजनीति संसाधनों के न्यायपूर्ण बँटवारे की दिशा में ही चलेगी।
यह नहीं भूलना चाहिए कि जातियों को तोड़ने के लिेए अंतर्जातीय विवाहों को ही डा.आंबेडकर ने भी उपाय बताया था और महात्मा गाँधी ने भी। जतियों का श्रेष्ठता बोध रक्त की शुद्धता के सिद्धांत पर ही टिका है। लेकिन ये विवाह ज़बरदस्ती तो हो नहीं सकते। ये उसी दशा में संभव हैं जब जातियों के बीच आर्थिक असमानता की खाईं कम से कम हो और एक ऐसा आधुनिक समाज बने जिसमें युवाओं को जीवनसाथी चुनने की आज़ादी हो। संसाधानों का पुनर्वितरण और आबादी के हिसाब से शासन-प्रशासन में भागीदारी समाज को इसी दिशा में ले जायेगी। ये संयोग नहीं कि जो लोग जाति जनगणना को जातिवाद मान रहे हैं उनके घर में होने वाले वैवाहिक आयोजनों में जाति-कुल-गोत्र की बेहद बारीक़ गणना होती है।
कहीं ऐसा तो नहीं कि जाति जनगणना का विरोध जातियों के उच्चताक्रम को बनाये रखने की दुर्निवार इच्छा का परिणाम है। वरना आनंद शर्मा या किसी अन्य जाति-जनगणना विरोधी नेता ने जाति प्रथा के नाश के लिए समाज का किसी भी स्तर पर आह्वान किया हो या कोई आंदोलन छेड़ा हो, इसकी कोई मिसाल नहीं है। ऐसे नेताओं को समझना चाहिए कि जाति प्रथा पर बात न करके, या इसके अस्तित्व को नकारते हुए उच्च जाति की वजह से अनवरत मिलने वाले आनंद को लूटते रहने का खेल अब ज़्यादा दिन चलने वााला नहीं है। कांग्रेस ने रायपुर अधिवेशन में सामाजिक न्याय को अपने केंद्रीय विचार के रूप में स्वीकार करके समता और समानता से पगे भारत का सपना पूरा करने की दिशा में कदम बढ़ाया है जो स्वतंत्रता आंदोलन का संकल्प भी था।
पुनश्च: 1980 के चुनाव के लिए ‘जात पर न पात पर, इंदिरा जी की बात पर, मुहर लगेगी हाथ पर’ नारा कांग्रेस महासचिव और हिंदी के वरिष्ठ कवि श्रीकांत वर्मा ने दिया था। अपनी एक कविता में वे कहते हैं कि 'कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता, कोसल में विचारों की कमी है!’ कांग्रेस कोसल नहीं हो जो विचारों की कमी से भरभरा जाये। आनंद शर्मा चाहे भूल गये हों, लेकिन नवाचार कांग्रेस के डीएनए में है।
(लेखक कांग्रेस से जुड़े हैं)