विपक्ष की दुर्गति के दौर में बिहार में सत्ता परिवर्तन के मायने

12:03 pm Aug 10, 2022 | प्रीति सिंह

बिहार में जनता दल यूनाइटेड यानी जदयू और भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा का गठबंधन टूट चुका है। इसे लेकर तरह-तरह के कयासों के दौर चल रहे हैं। भविष्य में इसके असर के बारे में अनुमान लगाए जाने लगे हैं। 2024 के चुनाव की राजनीतिक गणित शुरू हो गई है। खासकर भारतीय जनता पार्टी के शासन व उसकी विचारधाराओं के विरोधी इस परिवर्तन से खासे उत्साहित हैं। नए गठबंधन से नई राजनीति के तरह-तरह के सपने बुने जा रहे हैं।

सबसे अहम सपना 2024 के चुनाव को लेकर है। कयास यह लगाया जा रहा है कि नीतीश कुमार ने विपक्ष से कोई डीलिंग की है, जिससे वह 2024 के लोकसभा चुनाव में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए नेतृत्व में प्रधानमंत्री पद का चेहरा बन सकें।

चेहराविहीन विपक्ष में ऐसा सोचना ग़लत भी नहीं है। लेकिन क्या वास्तव में नीतीश कुमार में मोदी के ख़िलाफ़ चेहरा बनने की काबिलियत है? इस सवाल के जवाब में मेरा उत्तर यह होगा कि 2014 में निश्चित रूप से नीतीश में वह काबिलियत थी, जब उन्होंने भाजपा का साथ छोड़कर लालू प्रसाद के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनता दल यानी राजद का हाथ पकड़ लिया था। वह केवल एक समझौता नहीं, बल्कि देश की राजनीति को बदल देने वाला राजनीतिक क़दम था। ऐसा लग रहा था कि अब नीतीश कुमार बिहार की राजनीति छोड़ देंगे और अपने प्रतिनिधि के माध्यम से बिहार की राजनीति पर पकड़ बनाए रखते हुए राष्ट्रीय राजनीति करेंगे। उन्होंने बाकायदा विधानसभा में घोषणा की कि मर जाऊंगा लेकिन बीजेपी के साथ न जाऊँगा।

उस दिशा में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ने कोशिशें भी कीं। यह विचार आया कि उत्तर से लेकर दक्षिण तक देश के जितने भी समाजवादी धड़े हैं, सभी दलों को मिलाकर एक दल बनाया जाए, या कम से कम एक अंब्रेला संगठन बनाया जाए, जिसके मुखिया समाजवादी पार्टी के दिग्गज मुलायम सिंह यादव हों। उस समय सपा का अपना अलग स्वैग था। पार्टी उत्तर प्रदेश की सत्ता में थी। 

भले ही लोकसभा सीटें सपा के परिवार तक सिमट गई थीं, लेकिन उसे उम्मीद थी कि 2017 में पार्टी की उतनी दुर्गति नहीं होगी। एकीकृत दल का सपना टूट गया। उसके बाद राजद-जदयू की एकजुटता भी धराशायी हो गई। नीतीश कुमार ने बीजेपी का दामन थाम लिया और एक लोकसभा और एक विधानसभा चुनाव बीजेपी के साथ मिलकर लड़े। नीतीश केंद्र और राज्य में सत्ता की चाशनी में डूब गए।

राजद यानी आरजेडी की अपनी समस्याएँ हैं। जिस तरह का खेल बिहार में चल रहा था और चल रहा है, उसे देखते हुए राजद के सामने सबसे बेहतर विकल्प यह होता कि वह बीजेपी से समझौता करती, अपना मुख्यमंत्री बनाती और बीजेपी के दो उप मुख्यमंत्रियों को यथावत बने रहने देती।

ध्यान रहे कि बीजेपी को किसी भी दल से गलबहियाँ करने में कभी कोई समस्या नहीं रही है। कश्मीर की पीडीपी को दशकों तक आतंकवादियों का संरक्षक बताती रही और मौक़ा मिलते ही पार्टी ने लपककर उसके साथ हाथ मिला लिया। देश का कोई भी दल बीजेपी के लिए अछूत नहीं है। असल समस्या सामने के दल से आती है, जो घोषणा किए बैठा रहता है कि वह बीजेपी के साथ गठजोड़ नहीं करेगा।

राजद से गठबंधन टूटने के बाद सोशल मीडिया पर पार्टी नेताओं ने नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ ऊल जुलूल बयानबाजी करना और आग उगलना शुरू कर दिया। राजद तमाम छुटभैये थिंक टैंकों ने तमाम ऊल जुलूल बातें लिखीं, नीतीश कुमार को जाति विशेष का नेता बताते हुए पोस्टिंग की लिस्ट जारी की। नीतीश का नाम ही पलटू चाचा रख दिया।

अब सवाल यह उठता है कि अगर भाजपा के साथ राजद का गठबंधन अनुचित है तो किस गणित के हिसाब से नीतीश कुमार के साथ गठबंधन उचित होगा? राजद के उन समर्थकों के दिल का क्या हाल होगा, जिन्होंने नीतीश की जाति के कर्मचारियों की तैनाती की सूची बनाई थी और जदयू को अपना प्रमुख प्रतिपक्षी मानते थे? इसका एक उत्तर यह आता है कि अगर राजद और बीजेपी में गठजोड़ हो जाए तो राजद का मुस्लिम वोट छिटक जाएगा। अगर कोई ऐसा सोचता है तो यह काल्पनिक डर है। बिहार में मुसलिम मतों की प्रमुख ठेकेदार राजद को माना जा सकता है, लेकिन वह एकमात्र ठेकेदार नहीं है। जदयू भी इस ठेके में उसकी प्रतिस्पर्धी है। साथ ही मरणासन्न कम्युनिस्ट पार्टियाँ व कांग्रेस भी मुस्लिम मतों की ठेकेदार हैं। अगर राजद बीजेपी में गठबंधन हो भी जाता तो न तो भाजपा के हिंदू वोट छिटकते, न राजद के मुस्लिम वोट। ज्यादा उम्मीद रहती कि अबाधित रूप से यह गठजोड़ चल सकता था। साथ ही नरेंद्र मोदी को एक धर्मनिरपेक्ष चेहरा दिखाने का मौका भी मिल जाता। पूरा घटनाक्रम देखने पर ऐसा लगता है कि राजद का भाजपा से गठबंधन न करना उसकी राजनीतिक चातुर्य की कमी ही है।

नीतीश कुमार अब उम्रदराज हो चले हैं। साथ ही उनकी कोई राजनीतिक विश्वसनीयता, खासकर, 2014 के बाद हुए आयाराम-गयाराम के बाद बची भी नहीं है। ऐसे में यह आस लगाना कि नीतीश के नेतृत्व में 2024 के चुनाव में कोई बड़ी क्रांति होने जा रही है, यह दिवास्वप्न के सिवा कुछ नहीं हो सकता।