क्या विदेशी मंत्री के रूप में जयशंकर नाकाम रहे हैं?

03:38 pm Sep 13, 2021 | प्रभु चावला

"राजनयिक अच्छे मौसम में उपयोगी होते हैं। लेकिन बारिश की हर बूंद में वे डूबते चले जाते हैं।" -  चार्ल्स द गॉल

भारत फिलहाल जिस तरह की राजनयिक दुर्बलता का शिकार है, उसे देखते हुए आधुनिक फ्रांस के पिता की कही गई यह बात ग़लत नहीं है। यदि कूटनीति एक दूसरे तरह का युद्ध है तो दक्षिण एशिया की कूटनीति पूरी तरह से अराजकता है। 

जब तालिबान अपने आतंकवादी अतीत को दूर झटक कर अफ़ग़ानिस्तान पर नियंत्रण कर चुका है, भारत अपने कूटनीतिक तंत्र को ठीक कर स्थिति से निपटने की कोशिश कर रहा है। तालिबान और उसके हथियारबंद साथियों से भारत को जितना ख़तरा है, किसी दूसरे देश को नहीं है।

आईएसआई की पकड़ पुख़्ता

भ्रष्ट कुलीन वर्ग और कट्टरपंथी मुल्लाओं ने एक दशक में जिस तरह पाकिस्तान को बर्बादी के कगार पर ला खड़ा किया है, नई दिल्ली उस पर गदगद थी। अफ़ग़ानिस्तान पर आईएसआई की पकड़ पुख़्ता हो चुकी है क्योंकि उसके पाले- पोसे लोगों का ही उस पर नियंत्रण है। और आतंकवाद के गढ़ पाकिस्तान के अब चीन, रूस और अमेरिका से बेहतर रिश्ते हैं। 

जो अमेरिका खुद को भारत का स्वाभाविक सहयोगी कहता है, उसने एक शब्द कहे बिना अफ़ग़ानिस्तान छोड़ दिया।

भारत ने साढ़े चार करोड़ अफ़ग़ानों के लिए दो अरब डॉलर खर्च कर आधारभूत सुविधाएं विकसित कीं। अब जबकि भौगोलिक कूटनीतिक बैलेंश शीट घाटा दिखा रहा है, भारत तय नहीं कर पा रहा है कि वह क्या करे। 

भारत का संकट

अमेरिका के विश्वासघात, रूस की उपेक्षा और चीन की प्रताड़ना से भारतीय कूटनीति सबसे बड़े संकट से गुजर रही है जो इसका खुद का बनाया हुआ है। मोदी सरकार के आलोचक राजनयिक से राजनेता बने एस. जयशंकर की आलोचना करते हैं जो विदेश विभाग के सर्वेसर्वा बने बैठे हैं। 

यह पहली बार हुआ है कि व्यक्तित्व के लिहाज से भारतीय विदेश सेवा में तारतम्यता बनी रही है। विदेश मंत्रालय में यह पहली बार हुआ है कि जो व्यक्ति युवा आईएफ़एस अफ़सर के रूप में विदेश मंत्रालय से जुड़ा, वह अंत में इसका मंत्री ही बन बैठा।

इसके पहले के. नटवर सिंह थे जो पूर्व राजनयिक से विदेश मंत्री बने थे। लेकिन इसके पहले उन्होंने पार्टी का काम संभाला, राज्य मंत्री बने, सरकार के कई मंत्रालयों से होते हुए और अग्नि परीक्षा पास करने के बाद इस पद तक पहुँचे थे।

दूसरी ओर, एस. जयशंकर शायद ही बीजेपी की किसी बैठक में भाग लेते हैं। वे सुरक्षा पर बनी कैबिनेट कमेटी के पहले ग़ैर-राजनीतिक सदस्य हैं। इस कमेटी की अध्यक्षता प्रधानमंत्री करते हैं और इसमे गृह मंत्री, वित्त मंत्री, रक्षा मंत्री और विदेश मंत्री होते हैं। 

सुषमा स्वराज से अलग

जब सुषमा स्वराज ने अस्वस्थ होने के कारण सरकार में शामिल नहीं होने का निर्णय लिया, जयशंकर ने उनकी जगह लेकर पूरे राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान को चौंका दिया। 

सुषमा स्वराज कद से भले ही छोटी रही हों, पर देश के राजनेताओं और मंत्रियों में उनका कद बहुत ही ऊँचा था। वे अपने आकर्षण और भव्यता से विरोधियों को निरस्त्र कर देती थीं। उनके विदेश मंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी ने सबसे ज़्यादा विदेश यात्राएँ कीं।

तत्कालीन अफ़ग़ान राष्ट्रपति हामिज करज़ई के साथ सुषमा स्वराज

स्वराज का स्थान हमेशा ही ऊँचा रहा जबकि जयशंकर का एक मात्र काम अपने राजनीतिक आकाओं की बातों को आगे बढ़ाना है। सुषमा स्वराज को न केवल मोदी का समर्थन हासिल था, वरन उन्हें भगवा स्टार के रूप में पार्टी की भी मान्यता मिली हुई थी। 

जयशंकर का रास्ता

राजनीति से प्रभावित अफ़सरशाही में हर अफ़सर को यह चुनना होता है कि वह किसी राजनेता का सचिव बने या देश के किसी विभाग के सचिव का काम संभाले।

जयशंकर पूर्व राजनयिक हैं, लेकिन राजनीति में वे बौने कद के ही हैं। अस्सी के दशक में वे सबसे पहले डिप्टी सेक्रेटरी बने थे और उन्हें अमेरिका से जुड़ा कामकाज देखने को कहा गया था। वे कांग्रेस के पसंदीदा राजनयिक डॉक्टर के. सुब्रमण्यम के बेटे हैं और उन्हें कभी भी तीसरी दुनिया के देश में नहीं भेजा गया है। 

अमेरिका समेत कई देशों के दूतावासों में काम करने के बाद उन्हें 2004 में अमेरिका डिवीजन का संयुक्त सचिव बनाया गया। वे उस टीम में थे, जिसने अमेरिका के साथ परमाणु संधि पर बातचीत की थी। 

यह विडंबना ही है कि बीजेपी ने इसका जम कर विरोध किया था। इसके बाद वे 2007 में सिंगापुर में उच्चायुक्त बनाए गए, पर बातचीत करते रहे। इसके दो साल बाद मनमोहन सिंह ने उन्हें चीन का राजदूत बना दिया। जयशंकर पहले राजदूत थे, जो इस पद पर चार साल तक बने रहे। 

मनमोहन सिंह जयशंकर के राजनयिक कौशल से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें 2013 में अमेरिका में राजदूत बना दिया। 

राजनीतिक चालें चलने और दूसरों से संपर्क साधने में जयशंकर इतने पटु निकले कि नरेंद्र मोदी ने उन्हें 2015 में रिटायर होने के एक दिन पहले विदेश सचिव बना दिया। उन्हें 2017 में एक साल का सेवा विस्तार भी दे दिया गया।

सत्ता प्रतिष्ठान में पहुँच

नए सत्ता प्रतिष्ठान में उनकी पहुँच इतनी अच्छी थी कि उन्हें टाटा समूह में नौकरी करने की अनुमति मिल गई और निजी क्षेत्र में जाने से पहले जो कुछ समय के लिए इंतजार करने का प्रावधान है, उन्हें उससे भी छूट दे दी गई।

जयशंकर 2018 में सरकारी नौकरी से रिटायर करने के सिर्फ दो महीने बाद टाटा समूह के ग्लोबल कॉरपोरेट अफ़ेयर्स के प्रमुख बन गए। उन्हें ज़िम्मेदारी दी गई कि वे ग्लोबल कॉरपोरेट का कामकाज देखेंगे, अंतरराष्ट्रीय रणनीति बनाएंगे और टाटा संस के अंतरराष्ट्रीय विभाग के लोग उनके मातहत होंगे। 

पर यह तो सिर्फ थोड़े समय के लिए रुकने के लिए था। जनवरी 2019 में उन्हें पद्म श्री का सम्मान मिला। छह महीने बाद वे आईएफ़स अफ़सर से विदेश मंत्री बनने वाले पहले व्यक्ति बन गए, उन्हें गुजरात से राज्यसभा का सदस्य भी चुन लिया गया। 

जैसा कि कहावत है, एक सफल राजनयिक बनने के लिए कई भाषाएँ आनी चाहिए, इसमें दुहरी बात बोलने की कला भी है। जयशंकर हिन्दी, तमिल, रूसी, चीनी, अंग्रेजी और अब केशरिया जुबान बोलते हैं।

विदेश यात्राएँ

हमारे विदेश मंत्री दूसरे राजनयिकों की तरह ही गंभीर बने रहते हैं और सार्वजनिक रूप से कभी नहीं मुस्कराते। वे विदेश मंत्री पद संभालने के बाद 15 महीने में अब तक 125 दिन विदेशों में रहे हैं और उन्होंने 49 देशों का दौरा किया है। इसमें जापान, फ्रांस, चीन, रूस, जर्मनी, इटली, संयुक्त अरब अमीरात, अमेरिका और ब्रिटेन प्रमुख हैं। वे म्यांमार नही गए। 

उनकी यात्राओं के अध्ययन करने से पता चलता है कि वे मुख्य रूप से इन देशों के थिंक टैंक यानी किसी मुद्दे पर अध्ययन कर सरकार को सलाह देने वाली संस्थाओं के लोगों से मिले और बातचीत की। जयशंकर शायद सबसे अच्छे वक्ताओं में से हैं, जो बग़ैर मुस्कराए हुए तेज़ तर्रार भाषण देते हैं। 

भारत 2014 से 2019 के बीच अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर अहम भूमिका निभाता रहा और मोदी कूटनीति चलती रही। सुषमा स्वराज मोदी के अंतरराष्ट्रीय एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए उचित नैरेटिव और वातावरण तैयार करती थीं। 

पिछले दो साल में पड़ोसियों के साथ भारत के रिश्ते बहुत अच्छे नहीं रहे। जयशंकर ने नेपाल पर आर्थिक नाकेबंदी लगाई, उसके बाद से हिमालय पर बसा यह देश भारत के प्रति बेहद ठंडा रुख अख्तियार किए हुए है।

चीन में लंबे समय तक रहने के बावजूद जयशंकर वहाँ भारत के फ़ायदे के लिए संपर्क कायम नहीं कर सके। मोदी और शी जिनपिंग के बीच अच्छे रिश्तों के बावजूद पाकिस्तान के साथ चीन भी भारत का सबसे बड़ा दुश्मन बना हुआ है। 

अमेरिका भी खुश नहीं

जयशंकर का वैचारिक मॉडल अमेरिका भी उन्हें लेकर बहुत खुश नहीं है। जो बाइडन के राष्ट्रपति बनने के बाद जब जयशंकर पहली बार अमेरिका गए तो उन्होंने कहा था, "अमेरिका में खुद को बदले हुए समय के साथ फिर से तलाशने की न सिर्फ अकूत क्षमता है, बल्कि उसमें स्थिति के सही आकलन करने और रणनीति फिर से बनाने की अद्भुत क्षमता भी है। और जहाँ तक हमारी बात है, मुझे लगता है कि हमारे दोनों देशों के विचार कई मुद्दों पर एक जगह आकर मिलते हैं। और मुझे लगता है कि हमारे सामने चुनौती यह है कि हम किस तरह इस पर काम करते हुए आगे बढ़ते हैं।"

लेकिन अमेरिका ने तालिबान के साथ बात करते समय चीन और पाकिस्तान के कहने पर भारत को बुलाया तक नहीं। जयशंकर ने अमेरिका समर्थक की छवि बना कर शायद अनजाने में ही एक निष्पक्ष देश के रूप में भारत की छवि को खराब किया है।पहली बार ऐसा हुआ है कि न तो कोई महत्वपूर्ण देश न ही बड़े पाँच देशों में से किसी ने भारत का समर्थन किया है। जयशंकर को एक ऐसे राजनयिक के रूप में प्रशिक्षित किया गया है जो कुछ भी नहीं कहने के पहले कई बार सोचते हैं। 

उनके क्रिया कलापों से भारत की छवि एक ऐसे देश के रूप में बनी है, जिसकी कोई स्पष्ट विदेश नीति नहीं है। इसके बावजूद, जयशंकर ने अपना राजनयिक व्यवहार नहीं बदला है।

डोभाल का हस्तक्षेप

अंत में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल को रूस, अमेरिका और दूसरे देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों से बात करनी पड़ी।

इसके अलावा मोदी ने और तीन राज्य मंत्री नियुक्त किए हैं। किसी ने कहा है, 'राजनयिकों की खोज सिर्फ समय नष्ट करने के लिए की गई थी।' मोदी ने अब यह मान लिया है कि उनके पास बहुत समय नहीं है। जयशंकर की कूटनीति ने भारतीय विदेश नीति की तलवार की नोंक को कुंद कर दिया है। 

अफ़ग़ानिस्तान के आतंकवाद के बीच भारत के विदेश मंत्री एक ऐसे व्यक्ति हैं, जिनके फ़ैसलों से स्थिति भयावह ही हो सकती है। एक राजनेता का मुखौटा लगा कर जीनियस रिटायर्ड अफ़सर अपने जी हूजुरी की छवि को अलग नहीं कर सकता है। सिर्फ एक कुशल राजनेता ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मोदी की छवि को फिर से बहाल कर सकता है। 

( 'द न्यू इंडियन एक्सप्रेस' से साभार)