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अनुच्छेद 370: जूनागढ़ में जनमत की जय, कश्मीर में जनमत से भय

अनुच्छेद 370: जूनागढ़ में जनमत की जय, कश्मीर में जनमत से भय

महाराजा हरि सिंह के विलय पत्र को स्वीकार करते हुए भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल माउंटबैटन ने ऐसा क्या और क्यों कह दिया जिसके लिए बीजेपी और संघ आज तक तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को दोषी ठहराते रहते हैं?

जम्मू-कश्मीर राज्य का भारत में विलय करने की इच्छा जताते हुए राज्य के तत्कालीन शासक महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को भारत सरकार को एक पत्र भेजा था जिसका लुब्बेलुबाब यह था कि सरकार अपनी फ़ौजें भेजकर जम्मू-कश्मीर की रियासत को पाकिस्तान के क़ब्ज़े में जाने से बचाए। यह पत्र किन परिस्थितियों में लिखा गया था और विलय पत्र में कश्मीर की स्वायत्तता को सुरक्षित रखने के लिए क्या-क्या शर्तें थीं, यह हम पिछली किस्त में पढ़ चुके हैं। आज हम जानेंगे कि इस विलय पत्र को स्वीकार करते हुए भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल माउंटबैटन ने ऐसा क्या और क्यों कह दिया जिसके लिए बीजेपी और संघ के नेता-कार्यकर्ता आज तक तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को दोषी ठहराते रहते हैं।

विलय पत्र को स्वीकार करते हुए माउंटबैटन ने लिखा था - ‘हमारी सरकार की यह नीति रही है कि जिस किसी भी राज्य में विलय का मुद्दा विवादित है, वहाँ विलय का मुद्दा राज्य की जनता की इच्छा से निर्धारित किया जाए। अतः यह मेरी सरकार की इ्च्छा है कि जैसे ही कश्मीर में क़ानून और व्यवस्था की पुनर्स्थापना हो जाती है और उसकी भूमि हमलावरों से मुक्त हो जाती है, वैसे ही राज्य के विलय का मसला लोगों की राय जानकर तय कर लिया जाए।’

यानी भारत सरकार महाराजा हरि सिंह द्वारा विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए जाने के बाद भी (जो वैधानिक रूप से पर्याप्त था) रियासत की जनता की राय लेने के लिए जनमतसंग्रह कराना चाहती थी। कई लोग आज सोचते हैं कि जनमतसंग्रह की बात करके नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार ने तब भारी भूल की थी।

लेकिन लोग यह भूल जाते हैं कि यदि भारत सरकार कश्मीर में जनमतसंग्रह यानी जनता की इच्छा की बात नहीं करती तो वह न तो हैदराबाद को भारत में मिला सकती थी और न ही जूनागढ़ को।

हैदराबाद और जूनागढ़ के शासक मुसलिम थे और राज्य की बहुसंख्यक जनता हिंदू थी। ये शासक या तो पाकिस्तान के साथ मिलना चाहते थे या स्वतंत्र रहना चाहते थे। भारत सरकार इस मामले में अंतरराष्ट्रीय क़ानून के तहत कुछ नहीं कर सकती थी क्योंकि भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 जिसके तहत भारत आज़ाद हुआ था, उसमें इन रियासतों के शासकों को अपना विकल्प चुनने का अधिकार मिला हुआ था। जूनागढ़ के नवाब ने यह विकल्प चुनते हुए 15 अगस्त 1947 को ही जूनागढ़ के पाकिस्तान में विलय की घोषणा कर दी थी, जबकि जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने उसके क़रीब दो महीने बाद अपना विकल्प अपनाते हुए भारत के साथ मिलने की घोषणा कर दी।

ये दोनों एक जैसी लेकिन बिल्कुल विपरीत तसवीरें थीं। हिंदू-बहुल राज्य जूनागढ़ का शासक पाकिस्तान में मिलना चाहता था जबकि मुसलिम-बहुल राज्य जम्मू-कश्मीर का शासक भारत में मिलना चाहता था। ऐसे में यह जानना रोचक होगा कि भारत सरकार की राय इस मामले में क्या थी। क्या वह राजा के मत को महत्व देती थी या जनता के मत को

भारत के सामने क्या थी चुनौती

गृह मंत्री वल्लभभाई पटेल जो आज़ादी के पहले से ही हिंदू-बहुल राज्यों की रियासतों को भारत में मिलाने का अभियान चलाए हुए थे, उनका मत था कि जिन रियासतों की जनता हिंदू है, उनको भारत में ही मिलना चाहिए। लेकिन सवाल यह था कि यदि जूनागढ़ की जनता हिंदू है इसलिए उस रियासत का विलय भारत में होना चाहिए भले ही उसके नवाब का जो भी फ़ैसला हो, तो फिर मुसलिम-बहुल कश्मीर का भी विलय पाकिस्तान के साथ होना चाहिए चाहे उसका राजा भारत के साथ विलय करना चाहता हो।

इसे यूँ समझिए कि एक तरफ़ भारत जूनागढ़ के पाकिस्तान के विलय को इस आधार पर चुनौती दे रहा था कि वहाँ नवाब की राय नहीं, (हिंदू) जनता की राय मानी जानी चाहिए, वहीं वह कश्मीर में मामले पर इसके उलट यह कैसे कह सकता था कि वहाँ (मुसलिम) जनता की नहीं, राजा की राय मानी जानी चाहिए कोई भी सरकार एक ही समय में एक जैसे दो मसलों पर दो तरह की नीति नहीं अपना सकती थी, ख़ासकर ऐसी स्थिति में जबकि पूरी दुनिया की नज़र भारत और पाकिस्तान पर लगी हुई थी और संयुक्त राष्ट्र संघ भी इस मामले में हस्तक्षेप को तैयार था।

जनता की राय सर्वोपरि

इसलिए भारत सरकार ने यह फ़ैसला किया कि राजा चाहे हिंदू हो या मुसलिम, जनता की राय ही सर्वोपरि होगी। यही बात माउंटबैटन ने राजा हरि सिंह को लिखे पत्र में कही और यही बात भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ में भी कही। यह एक ऐसी नीति थी जिसपर किसी को एतराज़ नहीं हो सकता था। इसी नीति का पालन करते हुए भारत ने 1948 में जूनागढ़ और पाँच अन्य छोटी रियासतों में जनमतसंग्रह कराया भी जिसमें 99.5% जनता ने भारत के साथ विलय के पक्ष में वोट दिया। कश्मीर में जनमतसंग्रह नहीं हो सका। क्यों नहीं हो सका, इसपर बात करेंगे तो लंबा-चौड़ा विवरण हो जाएगा। संक्षेप में आप बस यह समझिए कि पाकिस्तान चाहता था कि जनमतसंग्रह से पहले दोनों सेनाएँ राज्य से पूरी तरह हट जाएँ, प्रशासन भारतीय और पाकिस्तानी गवर्नर जनरल के संयुक्ताधीन कर दिया जाए और उसके बाद संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में यह रायशुमारी हो। उधर, भारत चाहता था कि पाक हमलावर पहले हटें, वहाँ शांति स्थापित हो, उसके बाद ही भारतीय सेना वहाँ से हटेगी। संयुक्त राष्ट्र संघ की यह जनमतसंग्रह कराने में क्या और कितनी भूमिका हो, उसपर भी दोनों पक्षों के अलग-अलग मत थे। महीनों तक दोनों पक्ष अपने-अपने स्टैंड पर डटे रहे और कश्मीर में सर्वस्वीकार्य जनमतसंग्रह तो दूर, उस स्तर का जनमतसंग्रह भी नहीं हो पाया जैसा जूनागढ़ में हुआ था। आपको बता दें कि जूनागढ़ का जनमतसंग्रह भारत ने ख़ुद करवाया था और उसमें पाकिस्तान या संयुक्त राष्ट्र संघ को शरीक नहीं किया था।

जनमतसंग्रह क्यों नहीं हुआ

भारत कश्मीर में भी जूनागढ़ की तरह का जनमतसंग्रह करवा सकता था और उसका नतीजा भारत के पक्ष में आने की पूरी संभावना थी क्योंकि कश्मीरियों के सबसे लोकप्रिय नेता शेख अब्दुल्ला उन दिनों राज्य के भारत में विलय के पक्ष में थे। वैसे, भी मार्च 1948 के बाद से राज्य एक तरह से उन्हीं के नियंत्रण में था। लेकिन ऐसा शायद दो कारणों से नहीं हुआ।

1. 1947 के अंत तक जूनागढ़ पूरा-का-पूरा भारत के नियंत्रण में आ चुका था, जबकि क़बायली हमले के बाद कश्मीर का एक-तिहाई हिस्सा पाकिस्तान के क़ब्ज़े में जा चुका था। ऐसे में वह अपने नियंत्रण वाले कश्मीर में जनमतसंग्रह कराता भी तो पाक-नियंत्रित कश्मीर में रहने वाले लोगों का मत उस फ़ैसले में नहीं आ पाता और यह अधूरा जनमतसंग्रह होता।

2. जूनागढ़ के जनमतसंग्रह के फ़ैसले को नकारने के बावजूद पाकिस्तान जानता था कि चूँकि वहाँ की जनता हिंदू-बहुल थी, इसलिए फ़ैसला तो भारत के पक्ष में ही आना था। लेकिन कश्मीर की जनता मुसलिम-बहुल थी और भारत द्वारा कराई गई उस रायशुमारी का फ़ैसला यदि भारत के पक्ष में आता तो उस फ़ैसले को उतना ‘स्वाभाविक’ नहीं माना जा सकता था जितना जूनागढ़ की जनता का। पाकिस्तान या दुनिया के दूसरे देश ऐसे किसी भी जनमतसंग्रह को मान्यता नहीं देते।

आंशिक जनमतसंग्रह भी नहीं

इस तरह कश्मीर में न तो सर्वस्वीकार्य जनमतसंग्रह हुआ और न ही आंशिक जनमतसंग्रह। लेकिन कुछ साल बीतने के बाद यानी 15 फ़रवरी 1954 कश्मीर की संविधान सभा ने, जिसे जनता ने ही ‘चुना’ था, राज्य के विलय को मंज़ूरी देते हुए एक प्रस्ताव पास कर दिया और भारत सरकार की तरफ़ से जनमतसंग्रह का मसला हमेशा के लिए ख़त्म हो गया था क्योंकि उसके अनुसार कश्मीर के जन प्रतिनिधियों ने विलय के प्रस्ताव को मंज़ूरी देकर जनता की राय को ही अभिव्यक्त किया था।

लेकिन यह सवाल आज भी उठता है कि कश्मीर की संविधान सभा के इन जन प्रतिनिधियों को क्या वाक़ई जनता ने चुना था दूसरे, जब इस संविधान सभा ने राज्य के भारत में विलय को मंज़ूरी दी, उससे क़रीब छह महीने पहले ही राज्य के सबसे लोकप्रिय नेता शेख अब्दुल्ला को जेल में क्यों बंद कर दिया गया था 

यह एक रोचक सस्पेंस कथा है। इसके बारे में हम बात करेंगे अगली कड़ी में।

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