मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के प्रेस कॉम्प्लेक्स की जमीन फिर सुर्खियों में है। नेशनल हेराल्ड केस और भोपाल से जुड़ी जमीन के केस की फाइल खोले जाने के निर्णय की वजह से प्रेस कॉम्प्लेक्स एक बार फिर चर्चा में आ गया है। राज्य सरकार ने नेशनल हेराल्ड को दी गई जमीन के दुरूपयोग और लैंडयूज सहित तमाम गड़बड़ियों की जांच का एलान किया है।
हालांकि वरिष्ठ आईएएस से जांच की घोषणा कराने वाली शिवराज सरकार ने सप्ताह भर बाद भी जांचकर्ता अफसर का नाम और जांच के बिन्दु घोषित नहीं किये हैं।
‘सत्य हिन्दी’ ने नेशनल हेराल्ड को संचालित करने वाले एसोसिएट जनरल्स लिमिटेड (एजेएल) कंपनी की भोपाल की जमीन को खुर्द-बुर्द किये जाने के आरोपों से जुड़ी पड़ताल की है। अनेक ऐसे दस्तावेज मिले हैं, जो गंभीर गड़बड़ियों और भ्रष्टाचार के आरोपों को पुष्ट कर रहे हैं। छानबीन में प्रेस कॉम्प्लेक्स में अन्य मीडिया हाउसेस और अखबार मालिकों की जमीनों से जुड़े अनेक चौंकाने वाले ‘किस्से और कहानियां’ भी सामने आ रही हैं।
तफ्तीश में अनेक मीडिया हाउसेस द्वारा जमीन आवंटन की शर्तों-नियमों की अनदेखी और मनमानी के आरोपों को बल तो मिल ही रहा है, साथ ही प्रेस कॉम्प्लेक्स को विकसित करने वाले भोपाल विकास प्राधिकरण (बीडीए), भोपाल नगर निगम, टाउन एंड कंट्री प्लानिंग और नियम-कायदों का पालन कराने के लिये जिम्मेदार अन्य एजेंसियों की कथित लापरवाहियों के प्रमाण भी सामने आ रहे हैं।
क्या है मामला?
भोपाल के प्रेस कॉम्प्लेक्स में वर्ष 1981 में 30 वर्षों की लीज पर कुल 27.22 एकड़ जमीन 39 मीडिया हाउसेस/अखबार मालिकों को आवंटित की गईं थीं। जमीन का व्यावसायिक उपयोग न किया जाना इसमें प्रमुख शर्त थी। लीज वक्त पर पर भरने और अन्य औपचारिकताएं निभाने संबंधी अंडरटेकिंग भी लीजकर्ताओें ने दी थी। लेकिन यह सब कागजी साबित हुआ। जिसे भी अवसर मिला, उसने कौड़ियों के मोल मिली जमीन से चांदी काटी।
वर्ष 2011 में लीज खत्म होने के बाद भोपाल विकास प्राधिकरण ने वैसी सख्ती नहीं दिखाई जैसी सख्ती दिखाने के अधिकार उसके पास हैं। सभी की लीज निरस्त हो गईं, लेकिन प्राधिकरण कब्जे नहीं ले पाया।
भोपाल में लंबे वक्त से जमीनों की खरीद-फरोख्त का काम करने वाले सुरेश कुमार ने ‘सत्य हिन्दी’ को बताया, ‘महाराणा प्रताप नगर में प्रेस कॉम्प्लेक्स एरिया की जमीनों का खुले बाजार में 25 से 35 हजार रुपये प्रति स्क्वायर फीट के बीच में सौदा कटता है।’
उन्होंने बताया, ‘प्रेस वालों को लीज पर अलॉट जमीन से जुड़े पेचों के बारे में ख़रीदने वाले जानते हैं। बावजूद इसके सौदे होते हैं। ज्यादा उलझे मामलों में रेट घट जाते हैं, लेकिन कॉमर्शियल यूज और अन्य नियमितिकरण जेब ढीली करने पर संभव हो जाता है।’
‘सत्य हिन्दी’ ने अपनी पड़ताल में पाया है कि बीडीए ने एक प्लॉट को इसी साल ‘औने-पौने’ दामों में बेचा है।
एक वक्त में विश्वसनीयता और भाषा के लिये देश भर में लोकप्रिय रहे एक पुराने अखबार के एक अन्य प्रकाशन के लिये मिली 5 हजार स्क्वायर फीट जमीन, बीडीए ने वापस ले ली थी। टोकन मनी देने के बाद 30 सालों (लीज निरस्त हो जाने की अवधि) तक बची हुई राशि नहीं चुकाने की वजह से जमीन का आवंटन रद्द हुआ था। कब्जा बीडीए ने लिया था। इस भूमि को बीडीए ने 8 हजार रुपये स्क्वायर फीट दर पर बेचा है।
बताते हैं कि बीडीए ने इस टुकड़े को बेचने के लिये पहले 14 हजार रुपये स्क्वायर फीट के हिसाब से विज्ञापन दिया। कोई ‘लेवाल’ (ख़रीदने वाला) नहीं आया तो दरें 8 हजार कर फिर विज्ञापन निकाल दिया। इस बार ‘अकेला खरीदार आया’ और भूखंड ‘बिक’ गया। बीडीए को 14 हजार की दर से भूखंड के 7 करोड़ मिल सकते थे।
जानकार कहते हैं, ‘एमपी नगर में प्रॉपर्टी की डिमांड है। कोविड के कारण बाजार ठंडा हुआ था। मगर भारी मंदी में भी यहां सौदे 18-20 हजार के आसपास कटे।
भोपाल विकास प्राधिकरण के मुख्य कार्यपालक अधिकारी बुद्धेश वैद्य ने ‘सत्य हिन्दी’ को बताया, ‘जिस भूखंड के बारे में आप जानकारी चाहते हैं, बिना फाइल देखे कुछ भी बता पाना मुमकिन नहीं होगा।’
वे आगे कहते हैं, ‘प्राधिकरण कलेक्टर गाइड लाइन के ऊपर या सीधे कहें तो बाजार मूल्य पर संपत्ति नहीं बेच सकता है। भोपाल, मध्य प्रदेश और देश भर में सरकारी एजेंसियों द्वारा अपनी संपत्तियों को बेचने की प्रक्रिया समान है। कलेक्टर गाइड लाइन पर ही प्रॉपर्टियां बेची जाती हैं।’
वैद्य बताते हैं, ‘सामान्य तौर पर बेची जाने वाली संपत्ति का एक वर्ष में तीन बार विज्ञापन दिया जाता है। यदि कोई ग्राहक नहीं आता है तो अगले वर्ष में कलेक्टर गाइड लाइन से 25 प्रतिशत कम पर संपत्ति बेचने हेतु पुनः प्रक्रिया की जाती है।’
बीडीए के सीईओ के अनुसार, ‘डेड हो जाने (न बिकने) वाली प्रॉपर्टी को लेकर सरकार उदार हुई है। नियमों का सरलीकरण किया है। पहले तो 25 प्रतिशत तक ही कम कर संपत्ति को अगले साल पुनः विज्ञापित करने के अधिकार थे। वर्ष 2020 में नये सिरे से बने नियमों के बाद न बिकने वाली संपत्तियों को लगातार तीन सालों तक (और इसके बाद भी) घटी दरों पर बेचने के प्रयास के अधिकार दिये गये हैं। पहले वर्ष के बाद 25 प्रतिशत कम पर, उसके अगले साल 40 प्रतिशत, इस दर पर भी न बिके तो तीसरे साल 50 प्रतिशत कम दर (50 प्रतिशत कम अंतिम स्लेब है) पर संपत्ति को बेचने के प्रयास के अधिकार भी प्रदेश सरकार ने प्राधिकरण और अपने अधीन आने वाली अन्य एजेंसियों को दे दिये हैं।
‘कोर्ट से गायब हो गई फाइल’
सत्य हिन्दी की छानबीन में सरकारी एजेंसियों और मशीनरी को लेकर कई प्रकार के ‘अजूबे’ ही सामने नहीं आये, नेशनल हेराल्ड के भोपाल कोर्ट में विचाराधीन एक मामले से जुड़ी ‘गंभीर सूचना’ ने भी विस्मित किया।
नवजीवन की उस मशीन जिससे महात्मा गांधी, कांग्रेस के मुखपत्रों नेशनल हेराल्ड (अंग्रेजी अखबार), नवजीवन (हिन्दी समाचार पत्र) और क़ौमी आवाज़ (उर्दू) का प्रकाशन किया करते थे से जुड़ी फाइल जिला अदालत से रहस्यमय ढंग से गायब हो गई।
नवजीवन के एक पुराने कर्मचारी के अनुसार मशीन चोरी केस से जुड़े मामले को लेकर जिला अदालत में बार-बार पेशी बढ़ने पर जब पूछा गया कि पक्षकारों के आने पर भी पेशी क्यों बढ़ा दी जाती है? कोर्ट के बाबू द्वारा जानकारी दी जाती रही कि फ़ाइल हाईकोर्ट भेजी गई है। बाद में सामने आया कि फाइल तो ‘गुम’ हो चुकी है। आपत्तियां करने पर जोड़-तोड़ करके दूसरी फाइल तैयार करवाई गई।
महात्मा गांधी जी द्वारा उपयोग की गई एंटीक मशीन चोरी का यह केस भी कर्मचारियों के स्वत्वों के भुगतान प्रकरण की ही तरह 30 सालों से सतत् विचाराधीन ही बना हुआ है...(जारी)।