यूपी: क्या मुसलमान बीजेपी को हराने के लिए ओवैसी की शरण में जायेगा?
बिहार विधानसभा चुनावों के तत्काल बाद उप्र की राजधानी लखनऊ के पुराने और परंपरागत इलाक़ों की तसवीर में बीते 6-7 महीनों में जो एक बड़ा बदलाव दिखा, वह था अच्छी-ख़ासी तादाद में लगने वाले बड़े-बड़े साइज़ के होर्डिंग्स का नज़र आना।
'आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तिहाद-उल मुसलमीन' (एआईएमआईएम) के रंग की हवा बनाने वाले ये बैनर या तो पार्टी में शामिल होने वाले नए-नए सियासी कारकूनों की तरफ से लगवाए गये थे या ऐसे लोगों के पार्टी में आने पर उनका इस्तकबाल करते हुए दूसरे लोगों की तरफ से।
“इन होर्डिंग से चाहे और कोई इंक़लाब होता दिखे या नहीं लेकिन इससे इतना ज़रूर साबित होता है कि लोग एआईएमआईएम के साथ अपनी पॉलीटिकल आइडेंटिटी को सार्वजनिक बनाने में ख़ासा फ़ख्र महसूस करने लगे हैं। इनमें कुछ वे लोग भी शामिल हैं, पिछले साल जो 'सीएएए' आंदोलन के बाद हुए पुलिसिया ज़ुल्म और दहशत की चोट से अभी तक ज़ख़्मी हैं।”
यह कहना है लखनऊ विश्वविद्यालय में मैनेजमेंट के प्राध्यापक डॉ० फ़ैज़ का। वह आगे कहते हैं कि "........शायद अपने पैराहन (वेषभूषा) को सियासी रंग में ढाल कर वे ज़्यादा महफ़ूज़ महसूस करें।"
ओवैसी का एलान
आज़मगढ़ में बीते इतवार को हुई 'एआईएमआईएम' की रैली में इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष असदउद्दीन ओवैसी ने घोषणा की कि उनकी पार्टी प्रदेश में 100 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। उन्होंने एक बार फिर ओमप्रकाश राजभर के 9 छोटे-छोटे समूहों से बने 'भागीदारी संकल्प मोर्चा' को अपना इलेक्शन पार्टनर घोषित किया। प्रदेश के मुसलिम समुदायों में ओवैसी की इस घोषणा ने ख़ासी गर्माहट भर दी है, इससे भला कौन इंकार करेगा?
इस जनसभा में जलीस हसन भी मौजूद थे। सभा में स्थानीय लोगों की उमड़ी भीड़ से वह ख़ासे प्रभावित थे। उनका कहना है कि अपने शहर में किसी मुसलिम राजनीतिक नेता की ऐसी शानदार रैली उन्होंने आज से पहले कभी नहीं देखी।
'सत्य हिंदी' द्वारा यह पूछने पर कि क्या वह ओवैसी की पार्टी को वोट देंगे, जवाब में बेसिक शिक्षा परिषद, आज़मगढ़ में शिक्षक की नौकरी करने वाले जलीस कुछ देर सोच कर कहते हैं, “वोट देने की तो बड़ी इच्छा है। बाक़ी देते वक़्त यह भी देखना होगा कि ओवैसी साहब का केंडिडेट कमल को शिक़स्त दे पाने में क़ामयाब है कि नहीं।”
बलिया के सामाजिक कार्यकर्ता इमरान ख़ान भी इसी क़िस्म की बात करते हैं। "मीटिंग में भीड़ जुटा लेना और इस भीड़ को वोटों में तब्दील करना दो अलग-अलग बातें हैं।"
क्या ओवैसी सचमुच उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनावों में गंभीर हस्तक्षेप कर पाने की स्थिति में हैं? क्या वह मुसलिमों और ओम प्रकाश राजभर की मदद से और ओबीसी के एक छोटे से हिस्से के गठजोड़ के बूते एसपी और कांग्रेस को गंभीर नुक़सान पहुंचाने में क़ामयाब होंगे?
क्या उनकी यह दखलअंदाज़ी बीजेपी के हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण को और भी सशक्त कर सकेगी? क्या बीजेपी सांसद साक्षी महाराज के इस कथन में जान है कि “ओवैसी बिहार की तरह यूपी में भी उनकी पार्टी के हाथ मज़बूत करेंगे?” क्यों बीजेपी सांसद कहते हैं, “ईश्वर उन्हें शक्ति दे। वह अपने लक्ष्य में विजयी हों।”
क्या बीजेपी सांसद के जवाब में एसपी के प्रवक्ता अनुराग भदौरिया के इस कथन में सचाई है कि "हम पहले दिन से ही कहते आ रहे हैं कि ओवैसी बीजेपी के एक-एक निर्देश का पालन कर रहे हैं। वह एक राज्य से दूसरे राज्य में इसलिए पहुंच रहे हैं क्योंकि ऐसा बीजेपी चाहती है।"
देखिए, इस विषय पर चर्चा-
शौक़त अली की सियासी कसरत
पश्चिम बंगाल चुनावों से पहले ही यूपी में 'एआईएमआईएम' ने अपनी चुनावी बिसात बिछानी शुरू कर दी थी। 'एमआईएम' के प्रदेश अध्यक्ष शौक़त अली ने मई के महीने में ही 100 सीटों पर चुनाव लड़ने के संकेत दे दिए थे। उन्होंने बताया था कि “हमारी पार्टी ने प्रदेश के सभी 75 ज़िलों में अध्यक्ष बना दिए हैं और बड़ी गंभीरता से प्रस्तावित टिकटार्थियों के आवेदनों की 'स्क्रूटनी' की जा रही है।”
शौक़त अली के अनुसार उनकी पार्टी प्रदेश के पूर्वी, मध्य और पश्चिमी भाग में आने वाली सभी मुसलिम बाहुल्य सीटों पर चुनाव लड़ेगी। हालाँकि ओवैसी पूर्वांचल के मुसलिम बाहुल्य क्षेत्रों पर सर्वाधिक फ़ोकस कर रहे हैं। शौक़त अली भी आज़मगढ़ से हैं।
'सत्य हिंदी' से बातचीत में वह कहते हैं “कुछ अन्य धर्मों के लोगों को भी टिकट देने का फैसला ओवैसी साहब कर सकते हैं।” वह आगे कहते हैं "हमारा एक ही एजेंडा है- मुसलमानों की तरक़्क़ी। इसका यह मतलब नहीं कि हमारे सभी प्रत्याशी सिर्फ़ मुसलिम ही होंगे।"
बिहार में मिली जीत
ओवैसी ने हैदराबाद से निकल कर गंभीरता के साथ उत्तर भारत में अपने पांव फैलाने का प्लान बनाया है। यूपी के पहले उन्होंने बिहार की 20 विधानसभा सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे और 5 पर विजय प्राप्त की। इस 25% विजय ने उनकी ज़बर्दस्त हौसला अफ़ज़ाई की और 4 मार्च बाद उन्होंने अपने रथ को बंगाल की ओर घुमा दिया।
यहाँ उन्होंने 7 लोगों को टिकट दिया लेकिन ममता बनर्जी ने उनके घोड़ों की रास इतनी मज़बूती से जकड़ ली कि वह एक भी सीट नहीं निकाल सके। इससे उनका यूपी फतह करने का इरादा लेकिन बिलकुल कमज़ोर नहीं हुआ। राजनीति के जानकार कहते हैं कि ओवैसी उत्तर भारत का मतलब यूपी का होना मानते हैं।
हालाँकि ओवैसी ने अभी इस बात का खुलासा नहीं किया है कि इन 100 सीटों में उनकी पार्टी अकेले लड़ेगी या राजभर का मोर्चा भी इसमें शामिल है। ऐसा समझा जा रहा है कि मोर्चा अलग से अपनी सीटों पर चुनाव लड़ेगा।
2017 में मिले 0.2% वोट
ग़ौरतलब है कि 2017 के विधानसभा चुनावों में ओवैसी ने अपने 38 प्रत्याशियों को मैदान में उतारा था। उन्हें केवल 0.2% वोट ही मिले थे। तब यह माना गया था कि उनकी पार्टी अगले विधानसभा चुनावों की रिहर्सल कर रही है। उनकी पार्टी इस बार ज़िला पंचायतों में 24 सीटों पर चुनाव जीती है हालाँकि जिला पंचायत अध्यक्ष पद के लिए उसने कहीं भी अपना दावा पेश नहीं किया है।
क्या उनका आगमन सचमुच समाजवादियों के लिए खतरे की घंटी है? कुल 403 विधानसभा क्षेत्रों में से 137 मुसलिम प्रभाव वाली सीटें हैं। इनमें से उन 47 पर वे निर्णायक साबित होते हैं जहां उनकी आबादी 30 प्रतिशत से कुछ ज़्यादा है।
2012 के चुनावों में कुल 67 मुसलिम विधायक जीत कर आये थे, आज़ादी का बाद की यह अधिकतम संख्या है। 2017 के चुनाव में जबकि प्रदेश में मोदी के नाम की आंधी चली थी, उनकी तादाद घट कर 20 रह गयी थी। तब तक उनके 90% वोट मुख्यतः 3 पार्टियों- एसपी, बीएसपी में जा रहे थे और 'सीएसडीएस' के अध्ययन पर भरोसा किया जाय तो इस बार कुछ फ़ीसदी वोट बीजेपी को भी मिले थे। तब ओवैसी की पार्टी ने 38 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किये थे और सभी की ज़मानत ज़ब्त हो गयी थी।
'सीएए' आंदोलन की गर्मी के बाद जनित पिछले नवम्बर में 7 विधानसभा क्षेत्रों में हुए उप चुनाव के नतीजे दर्शाते हैं कि यूपी का मुसलिम मतदाता गहरी मानसिक उधेड़बुन में है और फिलहाल किसी एक पार्टी की परंपरागत जागीर बनकर बैठने को तैयार नहीं।
मुसलिम बाहुल्य अमरोहा और बुलंदशहर जैसी सीटों पर एसपी और बीएसपी का निराशाजनक प्रदर्शन यूपी में मुसलिम राजनीति में आये नेतृत्व के संकट की इसी कहानी के पक्ष में गवाही पेश करते हैं। यही वजह है कि ओवैसी ने उप्र में ओमप्रकाश राजभर के साथ मिलकर बड़े पैमाने पर चुनाव लड़ने के संकेत दिसम्बर में ही दे दिए थे।
पश्चिमी यूपी में धार्मिक बंटवारा
यूपी की चुनावी संरचना में बीते 8 सालों में काफ़ी बदलाव आये हैं। 2013 में, जबकि नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्रित्व पद की दावेदारी तय हो गयी थी, तब बीजेपी ने अपना सारा ध्यान उप्र के मतदाता पर केंद्रित किया।
इसके लिए उन्होंने न सिर्फ़ नए हिन्दू मतदाता को आकर्षित करने की रणनीति गढ़ी बल्कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसी जगहों पर, जहाँ के कृषिगत ढांचे में परम्परागत हिन्दू-मुसलिम एकीकरण की धारा आज़ादी से पहले से बहती आ रही थी, वहाँ धार्मिक विभाजन की ज़बरदस्त जहरीली हवा बहाई।
इतना ही नहीं, 'अपर' और 'लोवर' दोआब में जहां सैकड़ों सालों से हिंदू और मुसलमानों में समान रूप से प्रेम व्यवहार था, बीजेपी ने न सिर्फ़ आपसी प्रेमपूर्ण रिश्तों को तोड़ कर नष्ट-भ्रष्ट कर डाला बल्कि उनके बीच सांप्रदायिक वैमनस्य के बीज बो कर हद दर्ज़े की हिंसा, घृणा और दंगे रोपित करने में ज़बरदस्त कामयाबी हासिल की।
हालाँकि बुलंदशहर जैसी जगहों पर हुए सांप्रदायिक दंगों में उनकी अपरोक्ष मदद एसपी के मंत्री आज़म ख़ान ने अपनी अराजनीतिक कारगुज़ारियों के चलते और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपनी अज्ञानी प्रशासनिक सूझ के कारण भी की। उधर, पूर्वांचल को सँभालने की नीयत से मोदी 'गंगा मैया के बुलावे' के बहाने चुनाव लड़ने बनारस जा पहुंचे।
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की आंधी
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की यह आंधी 2017 के विधानसभा चुनावों और 2019 के लोकसभा चुनावों तक चली। विधानसभा में जीत के बाद और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर योगी आदित्यनाथ के पदारूढ़ होने के बाद जिस तरह फ़र्जी मुठभेडों में कथित तौर पर मुसलिम युवाओं को ठिकाने लगाया गया और अयोध्या में राम मंदिर की स्थापना का घंटा बजाया गया उससे शुरूआती 2 सालों तक हिन्दू अस्मिता की दुहाई बनी रही।
इसके बावजूद जब योगी सरकार से मोहभंग होने का दौर शुरू हुआ तो मोहभंग होने वालों में बहुसंख्यक हिन्दू तो शामिल हो ही गए थे, वे बीजेपी नेता भी भड़क उठे थे जो पार्टी और जनप्रतिनिधित्व के छोटे-बड़े पदों पर क़ाबिज़ होने के बावजूद 'एवेंई' भटक रहे थे और शासन- प्रशासन के नक़्क़ारख़ाने में उनकी तूती सुनने वाला कोई नहीं था।
2019 लोकसभा चुनावों से ठीक पहले यूपी में मोदी और योगी की लोकप्रियता का गिरता ग्राफ़ दर्शाने के लिए लोकसभा के 3 उपचुनाव के नतीजे काफी हैं। तीनों में बीजेपी बुरी तरह हारी और इन नतीजों के उत्साह में मायावती-अखिलेश के बीच की 'बुआ-भतीजा रिश्तेदारी' एक बार फिर से सयानी हो उठी थी।
पुलवामा के बाद 'काउंटर अटैक'
राजनीतिक कीमियागिरी में उस्तादी हासिल कर चुके नरेंद्र मोदी ने ज्योंही पुलवामा के 'काउंटर अटैक' का तुरुप का पता फेंटा- देश की दूसरी पार्टियों सहित यूपी के बुआ-भतीजे भी धराशायी हो गए। इन नतीजों ने अनेक राजनीतिक दलों को, जो अब तक धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यकों के पक्ष की बात करते थे, अपनी धर्मनिरपेक्षता का खुलेआम पाठ पढ़ने के पुराने शौक़ से पिंड छुड़ाने को नयी रणनीति बनाने को मजबूर हो गए।
किसी ने मुरलीधर की बांसुरी थामी तो किसी ने दुर्गा श्लोकों के पाठ में अपना भविष्य देखा। पीढ़ियों से नास्तिकता का पाठ पढ़ने वाले जनेऊ पहन कर महाकाल भैरवों की आराधना में जुट गए।
तसवीर में आए ओवैसी
यही वह 'जंक्शन' था जिस पर पहुँच कर उत्तर भारत का निराश मुसलमान अपने लिए नया नेतृत्व ढूंढने को लालायित हुआ। ऐसा नेतृत्व, जो इधर-उधर की बात न करके उनके खांटी हितों की बात करता हो और इसी मौक़े पर उसकी मुलाक़ात ओवैसी से हुई।
वह लुटे-पिटे मुसलमानों की महफ़िल में तीर-तुक्के की अपनी उबलती हुई सियासी ज़बान के दम पर दाख़िल हुए। वह जैसे शहाब ज़ाफ़री के शेर को ज़िंदा करना चाहते थे- “तू इधर उधर की न बात कर, ये बता कि क़ाफ़िला क्यूँ लुटा। मुझे रहजनों से गिला नहीं, तेरी रहबरी का सवाल है।” वे ओवैसी के मुरीद बन गये।
उनकी इस नई-नई मुरीदी से क्या ये अंदाज़ लगा लेना न्यायोचित होगा कि आने वाले फ़रवरी-मार्च में प्रदेश की तक़रीबन 18% मुसलिम आबादी के वोट ओवैसी की पार्टी के पक्ष में ईवीएम में झरझरा कर गिरेंगे?
ऐसा सोचना दरअसल उप्र के मुसलमानों की सियासी बीजगणित की समझ को कम करके आंकना होगा। सियासत आज उसके लिए महज़ संवेदनाओं का मसला नहीं, जीवन-मरण का सवाल है। जो बात आजमगढ़ के जलीस हसन ने 'सत्य हिंदी' से कही, वह कमोबेश पूरे सूबे के मुसलामानों की आवाज़ है। ओवैसी उनकी राजनीतिक चाहना हो सकते हैं।
बीजेपी के एजेंट होने का आरोप
बेशक उनमें से ज़्यादातर उन्हें मोदी या बीजेपी का एजेंट मानने को भी तैयार नहीं होंगे लेकिन वही ज़्यादातर यह भी क़बूल करते हैं कि बीजेपी के निजाम को हराने की निर्णायक जंग से ओवैसी बहुत दूर हैं। आज उनके सामने सबसे अहम सवाल बीजेपी को हराना और अपनी जिंदगी की सुरक्षा हासिल करना है।
देश में यदि कहीं अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा के प्रति मुसलमानों के दिल में सबसे ज़्यादा दहशत और खतरा है तो वह यूपी के मुसलमान का दिल है। उसके डर 2 स्तर पर हैं।
एक तो वह विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और बीजेपी की 'लिंचिंग' फौज के हिंसक आतंक से घबराया हुआ है। दूसरा, वह योगी की उस पुलिस से ख़ौफ़ज़दा है जो कहीं भी या तो उसका एनकाउंटर कर सकती है, या जो उसे 'यूएपीए' के किसी भी आतंकवादी मुक़दमे में अनवरत समय के लिए सींखचों के भीतर धकेल सकती है।
'सीएए' आंदोलन के दौरान उसने अपने प्रति हिन्दू आवेश को कुछ हदतक कम पाया था। किसान आंदोलन उन्हें उसके और भी नज़दीक ले गया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो उसका पुरातन सामाजिक प्रेम वापस लौटा है, मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी उनके बीच घृणा की जड़ें कमज़ोर हुई हैं। पंचायत चुनावों में उसके समाज में सांप्रदायिक घृणा सिरे से गायब हो गयी थी।
सांप्रदायिक एकता से डर?
उधर, बीजेपी को पंचायतों में हारने का जितना डर है, उससे कहीं ज़्यादा भय इस सांप्रदायिक एका के पुनर्संस्कारित हो जाने का है। राम मंदिर निर्माण के लिए बजाये गए उसके तमाम ढपोर शंखों की ध्वनियों को मंदिर हेतु ली गयी बाग़- ज़मीन की ख़रीद-फ़रोख़्त में मिली बदनामी ने कलंकित कर दिया है।
वह समझ नहीं पा रहा है कि इस कलंक से कैसे निजात पाए। वह चुनाव की पूर्व संध्या पर अपने हिन्दू ध्रुवीकरण के कार्ड को नये सिरे से संयोजित करना चाहती है।
वह अभी 'एनपीआर' और 'सीएए' के घंटे घड़ियाल को फिर से बजाने की कोशिश में है। पर ये घड़ियाल क्या फिर बज पायेगा? और क्या ऐसा होने पर मुसलमान ओवैसी की तरफ़ लपकेगा या एसपी, बीएसपी और कांग्रेस में अपनी हिफ़ाज़त देखेगा। ओवैसी की तरफ़ आकर्षित होगा, इसमें पूरा संदेह है।