किसानों के मार्च की घोषणा होने के तुरन्त बाद सरकार ने फ़सलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य इस उम्मीद में बढ़ाया था कि इससे वे संतुष्ट हो जाएंगे। पर ऐसा नहीं हुआ और उन्होंने दिल्ली पहुँच कर प्रदर्शन किया। इससे यह साफ़ हो जाता है कि सरकार की घोषणा से किसानों को राहत नहीं मिली। इस साल जुलाई में सरकार ने कई फ़सलों का समर्थन मूल्य बढ़ाया था। सोयाबीन, मक्का, गेहूं, ज्वार समेत कई फ़सलों की कीमतें बढ़ाई गईं। पर इससे फ़ायदा नहीं हुआ और किसानों को उससे कम दाम पर अपने उत्पाद बेचने पड़े।
औने-पौने बिकती है फ़सल
इसकी वजह है। सरकार समर्थन मूल्य का ऐलान भले ही समय से पहले कर दे, पर उसकी ख़रीद प्रक्रिया निराशाजनक होती है। उसकी एजेंसी किसानों के पास देर से पहुँचती है, तब तक बिचौलिए औने-पौने में फ़सल ख़रीद चुके होते हैं। इसके अलावा ये एजेंसियां पूरा उत्पाद नहीं ख़रीदती हैं।
स्वामीनाथन आयोग
सरकार ने मशहूर कृषि वैज्ञानिक डॉक्टर एमएस स्वामीनाथन की अगुवाई में 2004 में एक आयोग का गठन किया था। उनकी रिपोर्ट में न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने का आधार सुझाया गया था। लेकिन उसे न उस समय की सरकार ने लागू किया न मौजूदा सरकार ने। किसानों का कहना है कि अधिकतर मामलों में वे लागत ही नहीं निकाल पाते हैं। बीज, खाद, सिंचाई, मजदूरी में कितना खर्च हुआ, यह तय करने का कोई तरीका सरकार के पास नहीं है। ज़मीन की कीमत की तो बात ही नहीं की जाती है। इसकी कीमत अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग होती है, यह भी सच है। लेकिन सरकार जिस फ़ॉर्मूले पर काम करती है, उसके तहत किसान परिवार के लोगों की अनुमानित मज़दूरी और दूसरे उसकी जेब से होने वाले ख़र्च शामिल हैं। यह पूरी तरह अनुमान के आधार पर है, इसकी कई प्रक्रिया नहीं है। इसे ‘ए टू’ फ़ॉर्मूला कहते हैं। स्वामीनाथ आयोग ने इसके लिए ‘सी टू’ फ़ार्मूला' सुझाया था। इसके तहत बीज, सिंचाई, खाद की कीमत भी एमएसपी में शामिल की जानी चाहिए। उसके साथ ही किसानों के भरण-पोषण पर होने वाला ख़र्च, कर्ज़ पर चुकाए जाने वाला ब्याज़ और दूसरे पूंजीगत ख़र्च शामिल हों। भले ही यह कीमत वास्तविक न हो, पर सारे ख़र्च जोड़े जाएं। सरकार इससे इनकार करती है। नतीजा यह होता है कि एमएसपी हमेशा वास्तविक लागत से कम होता है। इसलिए एमएसपी बढ़ाए जाने के बावजूद किसान परेशान हैं।
साल 2004 में गठित स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों में न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने का जो फ़ॉर्मूल सुझाया गया था, उसे किसी सरकार ने नहीं माना। सरकार किसानोें को पूरा लागत मूल्य नहीं देना चाहती, पर वह उसे कर्ज़ जैसे झुनझुने पकड़ा देती है। मौजूदा सरकार की तो प्राथमिकता वैसे भी अलग है।
दावा है कि बीते कुछ सालों में लगभग तीन लाख किसानों ने ख़ुदकुशी की है।
किसानी के नाम पर कॉरपोरेट को पैसा
इसी तरह कर्ज़ का मामला भी काफ़ी उलझाने वाला है। किसानों को मिलने वाला कर्ज़ ज़्यादा बड़ा मुद्दा है। अमूमन बैंक बड़े किसानों को ही पैसे देते हैं, मझोले किसानों को कम पैसे मिलते हैं और छोटे या सीमांत किसानों को तो पैसे मिलते ही नहीं है। सरकारी बैंकों को प्राथमिकता के आधार पर किसानों को पैसे देने होते हैं। पर इसमें होशियारी यह की जाती है कि ये पैसे बड़ी कंपनियों को मिलते हैं। इसका फ़ायदा चाय, कॉफ़ी, रबड़ जैसे व्यवसाय में काम कर रही कंपनियाँ उठाती हैं। उन्हें पैसे मिल जाते हैं, बैंकों की प्राथमिकता पर कर्ज़ देने का काम पूरा हो जाता है और उनका जोख़िम भी कम होता है।बैंकों को सिरदर्द नहीं
किसानों को बैंकों से पैसे मिल भी जाते हैं तो उनकी मुसीबत कम नहीं होती है। यदि किसी फ़सल का ज़्यादा उत्पादन हो गया तो उसकी क़ीमत गिर जाती है, उन्हें नुक़सान होता है और यह कर्ज़ उनके लिए गले की फाँस बन जाता है। यदि मौसम की वजह से फ़सल ख़राब हो गई या उसकी बिक्री समय से नहीं हुई तो उन्हें यह घाटा भी उठाना पड़ता है और बैंकों को पैसे भी चुकाने होते हैं। ख़ुद बैकों का अध्ययन बताता है कि बड़े कॉरपोरेट घरानों को दिए पैसे डूबते हैं, किसानों को दिए कर्ज़ की वसूली तो वे कर ही लेते हैं। मौजूदा सरकार की नीतियां किसानों के पक्ष में क़तई नहीं है। फ़सल ख़रीदने, बाज़ार को ठीक रखने और लागत मूल्य कम करने में उसकी अधिक दिलचस्पी नहीं है।बीमा फ़सल घोटाला
अव्वल तो ये बीमा कंपनियां छोटे किसानों की फ़सलों का बीमा करती ही नहीं है। मझोले और बड़े किसानों की फ़सलों का जो बीमा होता है, उसमें इतने सारे छेद होते हैं कि ये कंपनियां किसी न किसी बहाने पैसे चुकाने से बचने की जुगत में कई बार कामयाब हो जाती हैं। जो पैसा देती हैं, वह अमूमन काफ़ी कम होता है। नतीजा यह होता है कि किसान ज़्यादा प्रीमियम देकर कम पैसे पाते हैं। बीमा कंपनियों के पौ बारह हैं। बीमा फ़सल के नाम पर एक बड़े घोटाला उजागर हो गया है।
बीते साल महाराष्ट्र में बीमा कंपनियों ने किसानों को जो पैसे दिए, उससे कई गणा ज़्यादा उनसे वसूला। इस मलाई का सबसे बड़ा हिस्सा उस कंपनी को मिला, जिसके मालिक प्रधानमंत्री के नज़दीक समझे जाते हैं। रिलायंस इंश्योरेंस ने 173 करोड़ रुपए का प्रीमियम वसूल कर 30 करोड़ रुपए किसानों को दिए।
किसानों के मार्च का नतीजा क्या होगा, यह अभी देखना है। पर यह तो साफ़ है कि चुनाव के ठीक पहले राजधानी में लाखों लोगों का प्रदर्शन और उसके साथ ही पूरे देश में प्रदर्शन सरकार के लिए अच्छा नहीं है। जीएसटी पर आधी रात को विशेष साझा सत्र बुलाने वाली सरकार किसानों के मुद्दे पर लोकसभा में क्या करती है, यह जल्द ही साफ़ हो जाएगा।