अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों के आरक्षण में क्रीमी लेयर का मसला एक बार फिर चर्चा में है। लंबे समय से इस तरह का माहौल बनाया जा रहा है कि आरक्षण पाने वाले वंचित तबक़े के जो लोग समृद्ध हो गए हैं, उन्हें सरकारी नौकरियों व शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का लाभ न दिया जाए। अन्य पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण लागू होने के समय से ही इस वर्ग के आरक्षण में क्रीमी लेयर को बाहर रखने की व्यवस्था है। ऐसे में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (एससी-एसटी) के आरक्षण में क्रीमी लेयर की व्यवस्था की बात चल रही है।
उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यों की संवैधानिक बेंच ने 2018 में कहा था कि एससी-एसटी समुदाय के समृद्ध लोगों यानी कि क्रीमी लेयर को कॉलेज में दाखिले तथा सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ नहीं दिया जा सकता। केंद्र सरकार ने 2 दिसंबर 2019 को उच्चतम न्यायालय से अनुरोध किया है कि एससी-एसटी समुदाय के क्रीमी लेयर को आरक्षण के लाभों से बाहर रखने वाले 2018 के उसके आदेश को सात सदस्यों की बेंच के पास पुनर्विचार के लिए भेजा जाए।
आर्थिक आरक्षण बनाम प्रतिनिधित्व का सवाल
ओबीसी आरक्षण लागू किए जाने के वक्त से ही ग़रीबी के आधार पर आरक्षण दिए जाने की बात कही जा रही थी। जब जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री रहते हुए ओबीसी आरक्षण के लिए कालेलकर आयोग का गठन हुआ तो उसमें जितने भी सवर्ण सदस्य थे, उनका तर्क था कि आरक्षण ग़रीबी के आधार पर तय किया जाना चाहिए। वहीं, ग़ैर-सवर्ण तबक़े का कहना था कि भारत में जातीय शोषण होता है और जातीय आधार पर लोगों को शिक्षा और शासन-प्रशासन सहित सुख-सुविधाओं से वंचित किया गया है, इसलिए आरक्षण देने में जाति के आधार पर पहचान करना ज़रूरी है।
ग़ैर-सवर्ण तबक़े का यह भी कहना था कि आरक्षण का मक़सद समाज के सभी तबक़ों को प्रतिनिधित्व देना होना चाहिए। ग़रीबी के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता और कुछ सरकारी पद मिल जाने से किसी भी वर्ग की ग़रीबी ख़त्म होने वाली नहीं है। इस तबक़े के प्रतिनिधियों का कहना था कि ग़रीबी ख़त्म करने के लिए अलग से मनरेगा, किसान सहायता जैसी योजनाएं चलाई जा सकती हैं। यह शासन-प्रशासन में प्रतिनिधित्व दिए जाने का मसला है।
मंडल कमीशन का गठन
लंबे समय तक इस पर बहस चलती रही। जनता पार्टी की सरकार में 1978 में मंडल कमीशन का गठन हुआ। उन्होंने पिछड़े वर्ग की पहचान के लिए तीन आधार बनाए, जिसके आधार पर विभिन्न जातियों को अंक प्रदान किए गए। यह आधार थे - सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक। आर्थिक आधार का अधिभार कम था। इन मानकों पर जिस भी जाति को 50 प्रतिशत से कम अंक मिले, उनके लिए आरक्षण की सिफारिश की गई। इसमें देश भर की 2700 से ज़्यादा जातियां आ गईं, जिनमें वर्ण के आधार पर देखें तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण के लोग शामिल किए गए। मुसलिमों की भी ज्यादातर जातियों को ओबीसी में शामिल कर लिया गया। इसकी वजह यह थी कि आरक्षण देने का आधार जातीय नहीं, सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक पिछड़ापन था।
विश्वनाथ प्रताप सिंह ने प्रधानमंत्री रहते हुए 1990 में ओबीसी समुदाय को आरक्षण देने की घोषणा की और जब यह मामला उच्चतम न्यायालय में गया तो शीर्ष न्यायालय ने जातियों के आधार पर पहचाने गए पिछड़े वर्ग में से क्रीमी लेयर को अलग कर शेष को आरक्षण देने का प्रावधान किया। हालांकि उस समय भी क्रीमी लेयर को अलग किए जाने का विरोध हुआ। लेकिन इसके ख़िलाफ़ कोई आंदोलन नहीं हुआ, जिससे आगामी सरकारें क्रीमी लेयर के प्रावधान को ख़त्म करें।
आरक्षण के ख़िलाफ़ जोश में सवर्ण तबक़ा
नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद कथित सवर्ण यानी ग़ैर आरक्षित वर्ग को ग़रीबी के आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण दे दिया गया। इसके लिए बाक़ायदा पूर्ण बहुमत के साथ संसद के दोनों सदनों में मूल अधिकार में बदलाव किया गया और आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की व्यवस्था की गई। सरकार के इस फ़ैसले से सवर्ण तबक़ा उत्साह और जोश में है और उसने अब अनुसूचित जाति के आरक्षण में भी क्रीमी लेयर व्यवस्था लागू करने के लिए मोर्चा खोल दिया है।
कितना है आरक्षण
जातीय जनगणना तो नहीं हुई है, लेकिन 1932 की जातीय जनगणना के अनुमान के मुताबिक़, देश में ओबीसी समुदाय की आबादी कम से कम 52 प्रतिशत है। इस समुदाय को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण मिलता है। वहीं, एससी और एसटी तबक़े की आबादी 22.5 प्रतिशत के करीब है और इस तबक़े को 22.5 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया है।
आर्थिक आधार पर आरक्षण क्यों नहीं
जातीय आधार पर आरक्षण की माँग करने वाले लोगों का यह तर्क रहा है कि देश की एक बड़ी आबादी को जातीय आधार पर शिक्षा व प्रशासन से वंचित कर दिया गया। इस तबक़े का शिक्षा और प्रशासन में प्रतिनिधित्व नगण्य है और इसे हिस्सेदारी मिलनी चाहिए। इस वर्ग को यह डर था कि पहले जिस तरह से कुछ जातियों ने शिक्षा और सरकारी नौकरियों सहित प्रशासन पर पूरी तरह कब्जा कर लिया, अगर आर्थिक आधार पर आरक्षण कर दिया गया तो सवर्ण कहा जाने वाला यह तबक़ा अपना कब्जा बरकरार रखेगा। इसकी वजह यह है कि प्रशासन में पद बहुत कम होते हैं और सवर्ण तबक़ा आरक्षित सीटों पर ग़रीबी के आधार पर कब्जा जमा लेगा और शेष सीटों पर अमीर सवर्ण काबिज हो जाएंगे। ऐसे में यथास्थिति बनी रहेगी और देश की करीब 85 प्रतिशत आबादी शिक्षा और प्रशासन, दोनों से ही वंचित रह जाएगी।
वहीं, इस मामले में सवर्ण तबक़े का तर्क था कि जातीय आधार पर आरक्षण देने से प्रशासन और शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होगी। स्वाभाविक है कि सवर्ण तबक़े को यह डर था कि अगर जातीय आधार पर आरक्षण किया गया तो उनकी सीटें छिनेंगी, लेकिन अगर आर्थिक आधार पर आरक्षण किया गया तो वह ग़रीब बनकर आरक्षित सीटों पर भी काबिज रहेंगे।
अभी क्या स्थिति है
बीजेपी सरकार द्वारा ग़रीबी के आधार पर आरक्षण दिए जाने के बाद बहुत हास्यास्पद स्थिति बन गई है। 8 लाख रुपये से ज्यादा सालाना कमाने वाले सवर्ण को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा और 8 लाख रुपये से ज्यादा कमाने वाले ओबीसी समुदाय के व्यक्ति को भी आरक्षण का लाभ नहीं मिलता है। मतलब यह है कि देश की 52 प्रतिशत जातियां अगर सालाना 8 लाख रुपये से कम कमा रही हैं तो उन्हें ओबीसी में 27 प्रतिशत आरक्षण मिल रहा है। वहीं, देश की 15 प्रतिशत सवर्ण जातियां अगर सालाना 8 लाख रुपये से कम कमाती हैं तो वह ग़रीबी के आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण पाती हैं।
सुप्रीम कोर्ट के 5 सदस्यों की बेंच ने जब यह फ़ैसला सुनाया था कि एससी-एसटी के लोगों पर भी क्रीमी लेयर लागू हो, यानी उस वर्ग में भी सिर्फ़ ग़रीबों को आरक्षण दिया जाए। कुल मिलाकर सरकार और न्यायालय की कवायद यह है कि आरक्षण को ग़रीबी के आधार पर कर दिया जाए।
क्या प्रावधानों के मुताबिक़ आरक्षण मिला
हर साल इस तरह की दर्जनों रिपोर्ट आती हैं कि प्रशासन से लेकर विश्वविद्यालयों, सरकारी उपक्रमों, स्कूलों व कॉलेजों सहित किसी भी सरकारी प्रतिष्ठान में 27 प्रतिशत ओबीसी नहीं हैं, जबकि आरक्षण लागू हुए 30 साल होने को हैं। वहीं, एससी-एसटी आरक्षण लागू हुए 70 साल हो गए, लेकिन किसी भी संस्थान में एससी-एसटी समुदाय के लोगों की संख्या 22.5 प्रतिशत नहीं है।
स्वाभाविक है कि ऐसी स्थिति इसीलिए बनी है कि विभागों में ‘नॉट सुटेबल’ बताकर आरक्षित तबक़े की भर्ती नहीं की गई। उनकी सीटें सामान्य वर्ग के अभ्यर्थियों से भर दी गईं। इसकी वजह से आरक्षण लागू होने के 70 साल भी अनुसूचित जाति व जनजाति के 22.5 प्रतिशत लोग सरकारी संस्थानों में कार्यरत नहीं हैं। जबकि अगर ईमानदारी से आरक्षण लागू होता तो इनकी संख्या 30 प्रतिशत के आसपास होनी चाहिए। इसकी वजह यह है कि जिन्हें यह माना जा रहा है कि वे अनुसूचित जाति में क्रीमी लेयर हो चुके हैं और सामान्य सीटों पर प्रतिस्पर्धा में मुक़ाबला कर सकते हैं, उनके पास अभी भी सामान्य वर्ग जितने नंबर पाने पर सामान्य वर्ग में जाने का विकल्प होता है। लेकिन यही कहा जा सकता है कि चयन प्रक्रिया में धांधली होती है, जिसकी वजह से अनुसूचित जाति का कथित क्रीमी लेयर सामान्य वर्ग में नहीं जा पा रहा है, वर्ना उसकी संख्या आरक्षित किये गये 22.5 प्रतिशत सीटों से ज्यादा होती।
क्या करे सरकार व कोर्ट
अगर केंद्र सरकार वास्तव में एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग के प्रति ईमानदार है तो वह सबसे पहले जातीय जनगणना कराए। यह देखे कि क्या सरकारी विभागों में इस तबक़े को मिले आरक्षण के बराबर प्रतिनिधित्व मिला है अगर इस तबक़े को उनकी जनसंख्या और आरक्षित कोटे के बराबर प्रतिनिधित्व नहीं मिला है तो सबसे पहले सामान्य वर्ग की सारी भर्तियां रोककर ओबीसी का 27 प्रतिशत और एससी-एसटी का 22.5 प्रतिशत कोटा भरा जाए।
क्रीमी लेयर को लागू करने से इस तबक़े को न तो सरकारी नौकरियां मिलेंगी और न ही शिक्षण संस्थानों में इन्हें प्रवेश मिलेगा। कोर्ट भी क्रीमी लेयर पर फ़ैसला करने से पहले सरकार को यह आदेश दे कि वह जातीय जनगणना कराकर आंकड़े पेश करे कि एससी-एसटी और ओबीसी तबक़े के कितने लोग क्रीमी लेयर में आए हैं। साथ ही यह भी पता लगाया जाए कि जमीन, कोयला, पानी, लोहा, पीतल जैसे देश के प्राकृतिक संसाधनों से चलने वाले निजी क्षेत्र के उद्यमों में मलाईदार पदों पर एससी-एसटी और ओबीसी तबक़े को पर्याप्त प्रतिनिधित्व है या नहीं।
अगर सरकार व कोर्ट को सच में वंचित वर्ग की चिंता है तो सबसे पहले वह आंकड़े एकत्र कर उसे जारी करे कि समाज में किसकी क्या स्थिति है। समतामूलक समाज के विकास के लिए यह ज़रूरी है। बहरहाल, क्रीमी लेयर को लेकर दायर जनहित याचिकाओं पर सुनवाई कर रही प्रधान न्यायाधीश एस. ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा है कि एससी-एसटी वर्ग की क्रीमी लेयर को आरक्षण के लाभ से बाहर रखने या न रखने के पहलू पर दो सप्ताह बाद विचार किया जाएगा।