आदमपुर के नवनिर्वाचित विधायक भव्य बिश्नोई ने 24 साल चार महीने बाद अपने पिता कुलदीप बिश्नोई का इतिहास दोहराया है। पिता-पुत्र दोनों एक ही विधानसभा क्षेत्र आदमपुर से उपचुनाव जीत कर पहली बार विधानसभा में पहुँचे हैं। पिता-पुत्र की इस राजनीतिक यात्रा में एक और समानता है। दोनों के लिए उनके अपने अपने पिता ने सीट खाली की हैं; हालाँकि सीट छोड़ने की वजह दोनों के लिए अलग अलग थी।
भजन लाल 1996 में आदमपुर सीट से विधायक चुने गए थे। 1987 को छोड़ कर प्रत्येक चुनाव में भजन लाल आदमपुर से लगातार जीत दर्ज कर रहे थे। भजन लाल ने 1987 में इस सीट से पत्नी जसमा देवी को चुनाव लड़ाया और वो विजयी हुईं।
भजन लाल विधायक रहते करनाल लोकसभा क्षेत्र से काँग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़े और जीत गए। उन्हें विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देना पड़ा। आदमपुर सीट खाली हो गई और यहाँ उपचुनाव में भजन लाल ने बेटे कुलदीप बिश्नोई को टिकट दिलवा दिया।
परिवारवाद के लिए बदनाम काँग्रेस ने आसानी से टिकट भी दे दिया। शायद मजबूरी में काँग्रेस ने टिकट दिया होगा। सभी जानते हैं तो काँग्रेस आलाकमान भी बखूबी वाकिफ़ होगा कि भजन लाल परिवार के अलावा किसी को टिकट दिया तो भजन लाल खुद अपनी ही पार्टी उम्मीदवार को हरा देंगे। समीकरण भजन लाल के पक्ष में थे इसलिए कुलदीप बिश्नोई जून 1998 में आदमपुर विधानसभा सीट से उपचुनाव जीत कर विधानसभा पहुँच गए।
कुलदीप बिश्नोई ने अपने पिता भजन लाल के रास्ते का अनुसरण करते हुए अपने बेटे भव्य बिश्नोई के लिए आदमपुर की सीट खाली कर दी। कुलदीप बिश्नोई पिछले तीन साल से भी अधिक समय से बेटे के राजनीतिक भविष्य को लेकर निश्चय ही चिंता में रहे होंगे। पिछले लोकसभा चुनाव में हिसार सीट से काँग्रेस की टिकट पर भव्य बिश्नोई की करारी शिकस्त के बाद उनकी राजनीतिक यात्रा पर विराम लगता दिखाई दे रहा था। करारी शिकस्त का मतलब है कि भव्य बिश्नोई जमानत भी नहीं बचा पाए थे। ऐसे हालात में कोई सुनहरे भविष्य की कल्पना कैसे कर सकता है।
चार बार के विधायक और दो बार के सांसद कुलदीप बिश्नोई को यह पीड़ा सालती रही होगी कि जिस बेटे के दादा दादी, माँ-पिता ने छोटे-बड़े सदनों के सदस्य रह कर समाज में एक खास स्थान बनाया है, उसको वे किसी भी सदन में नहीं पहुँचा पाए। जमानत ज़ब्त होने के कारण करिअर शुरू होने से पहले ही खत्म होता दिख रहा था। वे सुनहरी अवसर की तलाश में थे जो राज्यसभा चुनाव के समय उन्हें मिल गया।
बीजेपी को अपना राज्यसभा का दूसरा उम्मीदवार जिताने के लिए कुलदीप बिश्नोई से सहयोग की जरूरत थी। एक पिता अपने पुत्र का भविष्य बनाने के लिए कुछ भी कर सकता है और उन्होंने 'कुछ भी' किया।
नतीजा यह हुआ कि जिस काँग्रेस ने उन्हें हमेशा अपना माना उसे एक झटके में ठुकरा दिया और बीजेपी के उम्मीदवार को वोट देकर अपना उम्मीदवार हरा दिया। जाहिर है, उन्होंने पहले ही गणित लगा लिया होगा। कुलदीप बिश्नोई को गणित लगाने की कला अपने पिता भजनलाल से विरासत में मिली है। कुलदीप बिश्नोई को मालुम था कि भव्य का भविष्य काँग्रेस में नहीं है; उसका भविष्य संवारने के लिए बीजेपी की छत्रछाया में जाना होगा। उन्होंने पहले बीजेपी पर एहसान किया, फिर विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया; उसके बाद बीजेपी की सदस्यता ग्रहण की। यह स्क्रिप्ट पहले ही लिखी जा चुकी थी। कुलदीप बिश्नोई का आकलन सही निकला और अपने गणित से बेटे को विधायक बना दिया। अब भव्य के करिअर को एक नई दिशा मिल गई है।
बात 2011 की है। हिसार लोकसभा सीट पर उपचुनाव से पहले कुलदीप बिश्नोई की हरियाणा जनहित काँग्रेस ने बीजेपी से समझौता किया था। तब कुलदीप बिश्नोई हरियाणा जनहित काँग्रेस के सुप्रीमो थे। समझौते के तहत अगले विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियों में सीटों का बराबर बँटवारा होना था। इस बीच, कुलदीप बिश्नोई ने बीजेपी के समर्थन से आदमपुर उपचुनाव जीता था, लेकिन हजकां-बीजेपी गठबंधन विधानसभा उपचुनावों में अपनी योग्यता साबित करने में विफल रहा क्योंकि रतिया में गठबंधन का बीजेपी उम्मीदवार महावीर प्रसाद उपचुनाव हार गया। तब गठबंधन की ताकत और सार्थकता पर सवाल उठने लगे थे।
आदमपुर की जीत का श्रेय भजन लाल के परिवार के प्रति मतदाताओं की वफादारी को दिया जा रहा था, न कि गठबंधन को। यह शंका वाजिब भी थी। यदि गठबंधन ताकतवर होता तो रतिया में गठबंधन का बीजेपी उम्मीदवार क्यों हारता? हालांकि हरियाणा जनहित काँग्रेस के सुप्रीमो कुलदीप बिश्नोई की पत्नी रेणुका 22,669 मतों चुनाव जीत गई थीं।
इस बार बीजेपी ने भव्य बिश्नोई की जीत का श्रेय भजन लाल परिवार के प्रति मतदाताओं की वफादारी को नहीं दिया। दूसरी ओर कुलदीप बिश्नोई ने भव्य की भव्य जीत के लिए मतदाताओं की वफादारी के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों और मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की कार्यशैली को श्रेय दिया है। कुलदीप बिश्नोई को यह स्पष्ट करना चाहिए कि वे 2019 में इसी विधानसभा सीट से 63693 मत लेकर 29000 मतों से जीते थे; वो विजय किसकी नीतियों और किसकी कार्यशैली के कारण थी।
बिश्नोई को यह विश्लेषण भी करना चाहिए कि बेटे की विजय 67376 मत पाने के बावजूद 15714 मतों से हुई है जो 2019 के मुकाबले बहुत हल्की है। प्रधानमंत्री की नीतियों और मुख्यमंत्री की कार्यशैली का असर जीत के अन्तर में दिखना चाहिए था, क्यों नहीं दिखा!
रतिया उपचुनाव में गठबंधन का बीजेपी उम्मीदवार हारने के बाद गठबंधन की उपयोगिता पर पार्टी नेताओं ने बड़ा सवालिया निशान लगा कर गठबंधन खत्म कर दिया था। बीजेपी नेताओं की दलील थी कि हरियाणा जनहित काँग्रेस को खामखाह आधी सीट क्यों दें जबकि इसमें कोई दम-खम ही नहीं है। तब बीजेपी पर विश्वासघाती होने का आरोप भी लगाया गया था। कथित विश्वासघाती पार्टी की की गोद में कुलदीप बिश्नोई फिर बैठ गए। आदमपुर के बाहर कुलदीप बिश्नोई कितना दम-खम दिखा पाएंगे, बीजेपी को 2024 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में पता चल जाएगा।