सियासी विच-हंटिंग विलेन पैदा करने की कोशिश में पोलिटिकल स्टार पैदा करती है। ताज़ा नजीर हैं आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह। शराब घोटाला क्या है, और ईडी का केस क्या है, दो करोड़ की रकम कहां से आई और कहां गयी?
ये तमाम सवाल बरतरफ - क्योंकि पुरानी कहावत है जनता की स्मृति बहुत छोटी होती है। जो स्मृतियों में रह जाती है वो होती है तस्वीर।
जी हां, लिटरली तस्वीर!
अतिरेक लग सकता है- लेकिन हथकड़ी बंधे हाथों की मुठ्ठी उछालते जॉर्ज फर्नांडीज़। 77 में गिरफ्तारी से पहले सड़क पर बैठी इंदिरा गांधी, हाथी पर चढ़ कर बेलछी जाती इंदिरा गांधी, और तमाम....
हर तस्वीर कुछ कहती है और राजनीति में तो बिलकुल।
लौटिए 4 अक्टूबर की शाम दिल्ली के नॉर्थ एवेन्यू। आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह की गिरफ्तारी की खबर बाहर आ चुकी है। अब इंतजार है खुद संजय सिंह के बाहर आने का। घर के सामने आप कार्यकर्ताओं का खलबलाता जमावड़ा और मीडिया की जमघट।
अचानक झक सफेद कुर्ते पायजामे में गमछा डाले तमतमाए चेहरे के साथ हाथ हिलाते लहीम-शहीम संजय सिंह निकलते हैं। संजय की इस जुझारू आभा के आगे उन्हें गिरफ्तार करने वाले भी बौने थे (हालांकि वो सब ऐसे हर मौके पर बौने ही होते हैं)।
मिडिल क्लास मेट्रो माइंड सेट के लिए ये ‘स्टार हैज अराइव्ड मोमेंट’ हो सकता है; लेकिन देश के कोने-अंतरों में गयी ये तस्वीर एक जंगजू नेता की थी।
ऐसा नहीं है कि संजय सिंह का ये जुझारू रंग नया है। अन्ना आंदोलन से लेकर अपनी राज्य सभा की यात्रा तक संजय लगातार खुद को प्रूव करते रहे हैं। संसद परिसर में पूरी रात धरने से लेकर सदस्यता के निलंबन तक- जो विशेष सत्र में भी बहाल नहीं हुई। संजय कभी खामोश नहीं रहे। जिन्हें उनका इतिहास पता है वो यूपी के सुल्तानपुर में रेहड़ी पटरी वालों के लिए लड़ी जाने वाली उनकी लड़ाई भी जानते हैं - और लखनऊ में आज़ाद समाज संगठन के ज़रिए आम आदमी के लिए किया उनका जमीनी संघर्ष भी।
केजरीवाल की पैंट-बुशर्ट वाली आम आदमी पार्टी में संजय सिंह अकेले कुर्ता-पायजामा वाले लीडर हैं। जिनका ‘डिक्शन’ और ‘नैरेशन’ प्योर पॉलिटिकल है। केजरीवाल भी उनकी इस ताकत को समझते हैं, वर्ना राज्यसभा जाने वाले दो ‘साइलेंट’ गुप्ताओं के अलावा तीसरे वो न होते। खैर राज्यसभा की कहानी यहां बेमानी है।
मगर कुर्ता-पायजामे के जिक्र को यूं ही न समझिएगा। इस देश में कुर्ता-पायजामा ही लीडर्स का यूनिफॉर्म रहा है। देश इस भेष से खुद को न जाने क्यों कनेक्ट करता है। राजीव गांधी के दौर में उनकी ‘सफारी-सूट’ कैबिनेट किस कदर आलोचना की शिकार हुई-जानने वाले जानते हैं। मजे की बात ये कि राजीव जी बतौर नेता खुद सफारी सूट वाले नहीं रहे। एक रोचक किस्सा- एक बार वो कानपुर के दौरे पर गए। जीटी रोड पर उनका रोड शो था। जनाब उनका आकर्षण ऐसा था कि हर शख्स उन्हें छू लेने को आतुर रहता था। राजीव ने भी कभी किसी को निराश नहीं किया। खैर इस रोड शो में भीड़ ने उनके कपड़ों की दुर्दशा कर दी। गेस्ट हाउस पहुंचे तो उनका कुर्ता तक तार-तार था। उन्हें उसके बाद भी एक कार्यक्रम में पहुंचना था। जाहिर है प्रधानमंत्री फटे कुर्ते में तो सार्वजनिक कार्यक्रम में नहीं पहुंचता। उस वक्त काम आए श्रीप्रकाश जायसवाल जो तब कानपुर महानगर कांग्रेस के पदाधिकारी थे। कद काठी मैच कर गयी और श्रीप्रकाश जायसवाल का नया कलफ लगा कुर्ता घर से आया। अब सियासी रकीब तो यहां तक कहते हैं कि जायसवाल के सामान्य कार्यकर्ता से केंद्रीय मंत्री तक के उत्थान में इस ‘कुर्ता-कथा’ का बड़ा योगदान था।
खैर, ये एक अवांतर प्रसंग है - मगर कुर्ता इस देश में नेता के खांटी होने की पहचान है। संजय सिंह इस मायने में खांटी हैं, खांटी इसलिए भी कि वो समाजवादी स्कूल से आते हैं। अरविंद केजरीवाल आज उनके लीडर हो सकते हैं मगर उस्ताद नहीं। समाजवादी ज़बान का ककहरा उन्हें रघु ठाकुर जैसे गुरू ने रटाया है।
संसद में बोलते हुए संजय सिंह बाज दफ़ा केजरीवाल की डिक्टेटेड लाइन से बाहर जाते हुए भी लगते रहे हैं। संसद से राहुल गांधी के निलंबन पर संजय सिंह का स्टैंड किसी पार्टी लाइन पर नहीं था, वो विशुद्ध राजनीतिक नैतिकता का सवाल था। राजनीतिक भाषा और विनम्रता का दामन संजय सिंह ने कभी नहीं छोड़ा।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी इन दिनों सियासी अंधकार में जी रहे हैं। अन्ना आंदोलन के दौरान वो पार्टी के प्रवक्ता थे। उसी दौरान राज्यसभा के लिए चुने गए। एक टीवी शो में संजय सिंह से उनकी बहस कड़वाहट की सीमा तक पहुंच गयी। बताते हैं कि बहस खत्म होते ही संजय सिंह ने उन्हें प्रणाम करते हुए राज्यसभा में चुने जाने के लिए बधाई दी। चतुर्वेदी हतप्रभ थे।
आप पूछ सकते हैं कि क्या यहां मकसद संजय सिंह का स्वस्ति-गान है?
जी नहीं! नेताओं की जेल यात्रा होती रहती है। सवाल ये है कि ‘कोई किस धज से मकतल को गया’। संजय सिंह की इस गिरफ्तारी ने बतौर लीडर उसकी 'री-ब्रांडिंग' की है। वो केजरीवाल की छाया से एक झटके में बाहर आ गया है।
अदालत की पेशी पर जाते संजय सिंह बोलते हैं- "मोदी डर गए हैं-मोदी हारेंगे।"
अदालत से बाहर आते हुए पीएम मोदी को 'अडानी का नौकर' करार देता है।
और इन सबके समानांतर - दिल्ली की सड़कों पर कार्यकर्ताओं का वलवला था। दिल्ली पुलिस के पसीने छूट गए। चंडीगढ़ में आप कार्यकर्ताओं ने बीजेपी दफ्तर पर धावा बोला तो आंसू गैस के गोले तक चलाने पड़े। महाराष्ट्र के मुंबई और पुणे में आक्रामक प्रदर्शन और गिरफ्तारियां हो रही थीं। अगर कार्यकर्ता इतने आंदोलित थे तो इसकी वजह सिर्फ पार्टी की स्ट्रेटजी नहीं थी – पार्टी को तो गिरफ्तारी की खबर बाहर आने के बाद काउंटर अटैक में ही वक्त लग गया। वर्ना होना तो चाहिए था कि ईडी की रेड के साथ ही पार्टी प्रो-एक्टिव होती। ये संजय सिंह का अपना पर्सोना था जिसने कितनी जमीन बना ली है ये उसी दिन समझ में आया।
गिरफ्तारी मनीष सिसोदिया की भी हुई। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों ने उसका सच भी तार-तार कर दिया है। तिहाड़ जेल में सत्येंद्र जैन की कथित विलासिता का सच उस आदमी का बिस्तर पर पड़ा कृशकाय शरीर है। मगर इन दोनों गिरफ्तारियों पर हमारा सियासी-समय इतना आंदोलित क्यों नहीं हुआ, ये समझने की ज़रूरत है।
और उससे भी ज्यादा समझने की जरूरत अरविंद केजरीवाल को है, जो बस सियासी बयानों की फाइल बढ़ाते रहे हैं। सिसोदिया के लिए कैमरे पर इमोशनल होते दिख जाते हैं। मगर माफ करिए, कहना पड़ेगा टीवी कैमरा पॉलिटिक्स की यही बड़ी समस्या है...वो 'ऑन एयर' है और उसके 'फुट प्रिंट' भी बस बिजली-पानी क्लास तक महदूद हैं। बिजली, पानी, अस्पताल और स्कूल तयशुदा तौर पर ज़रूरी-ज़रूरियात हैं। मगर बकौल फैज -
"और भी दुख जमाने में मुहब्बत के सिवा,
राहते और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा।"
केजरीवाल की पॉलिटिक्स की बिग-पिक्चर क्या है? दिल्ली से बाहर की जनता ये समझना चाहती है। केजरीवाल के पास बस मुफ्त बिजली-पानी का वायदा है। पंजाब में ये तिलिस्म भी जल्द ही टूटने लगा - जहां जनता ने रवायती पार्टियों को नकार कर 'आप' को सत्ता तक पहुंचाया। दिल्ली जैसे सरप्लस 'अरबन स्टेट' में मुफ्त बिजली-पानी आसान है। बाकी जगहों पर ये इतना आसान नहीं है। भ्रष्टाचार के खिलाफ केजरीवाल ने देश की पूरी राजनीतिक जमात को लांछित किया, अब जब वो उन्हीं के साथ एंटी मोदी मोर्चे में खड़े हैं तो 'कट्टर ईमानदारी' का जुमला हास्यास्पद लगता है।
जहां तक संजय सिंह का सवाल है- वो कभी इस एक्सट्रीम तक नहीं गए। राजनीति में 'हर दल में दोस्त' रखना बड़ी खूबी मानी जाती है। संजय सिंह के अंदर ये खूबी है। यही वजह है कि उन्हें इंडिया अलायंस के नेताओं का खुला समर्थन तत्काल मिला। कई नेता संजय के घर पहुंचे - परिवार और पिता से मिले।
अब तक जो दिख रहा है और समझ आ रहा है - बतौर नेता संजय सिंह अब केजरीवाल के समान्तर खड़े दिखते हैं, उनके मोहताज नहीं। पोलिटिकल एरीना में ये कद उन्होंने खुद कमाया है। इस ग्रैंड गिरफ्तारी ने केजरीवाल को भी इसका अहसास करा दिया होगा। मुश्किल ये है कि प्यादों से खेलने वाले केजरीवाल अपने इर्द गिर्द मजबूत मोहरे बर्दाश्त नहीं करते। पता नहीं आम आदमी पार्टी की इंटरनल पॉलिटिक्स आगे क्या रूख अख्तियार करेगी।