अगर कोई पार्टी राम का नाम लेकर सत्ता में आए और फिर राम नाम को ही भूल जाए तो उसे बीजेपी कहते हैं। इसी तरह अगर कोई पार्टी लोकपाल का नाम लेकर पैदा हुई हो और वह लोकपाल या लोकायुक्त को न सिर्फ़ भूल जाए बल्कि उसकी अथॉरिटी को भी चुनौती देने लगे तो फिर उसे क्या कहेंगे। जी हाँ, आप ठीक समझे। उसे आम आदमी पार्टी (आप) ही कहेंगे।
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आप ने जिस तरह अपने दिल्ली के विधायकों की संपत्ति की घोषणा वाले नोटिस पर लोकायुक्त को चुनौती दी है, इसके बाद उसे उसी कैटेगरी में रखा जाना चाहिए जिस कैटेगरी में हम लोग बीजेपी को राम नाम भूलने पर रखते हैं। दिल्ली की लोकायुक्त (रिटायर्ड जस्टिस) रेवा खेत्रपाल ने आप विधायकों को नोटिस जारी करके कहा है कि वे अपनी संपत्ति का ब्यौरा लोकायुक्त के पास जमा कराएँ।
क्या यह वही पार्टी है
विधानसभा अध्यक्ष रामनिवास गोयल नोटिस के जवाब में जिस तरह लोकायुक्त पर बरस पड़े, उसे देखकर यह सोचने पर मजबूर होना पड़ा कि क्या यह वही पार्टी है जिसने लोकपाल के नाम पर रामलीला मैदान से ईमानदारी की हुँकार भरी थी। यह सच है कि रामनिवास गोयल तब आप के नहीं बल्कि बीजेपी के नेता थे।
गोयल का निजी फ़ैसला नहीं
1993 की पहली विधानसभा में वह बीजेपी से ही विधायक बने थे लेकिन डॉ. हर्षवर्धन के साथ उनके 36 के आंकड़े ने उन्हें पार्टी छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया था। मगर, लोकायुक्त के ख़िलाफ़ उन्होंने जो मोर्चा खोला है, वह उनकी व्यक्तिगत लड़ाई नहीं है। विधानसभा के भीतर जहाँ वह अध्यक्ष हैं और अध्यक्ष की अपनी गरिमा होती है, वहाँ भी वह कोई क़दम अरविंद केजरीवाल या मनीष सिसोदिया के इशारे के बिना नहीं उठाते। ऐसे में लोकायुक्त को चुनौती देना उनका निजी फ़ैसला नहीं हो सकता।
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यह कहना ग़लत नहीं है कि लोकायुक्त के पास शिकायत आरटीआई एक्टिविस्ट व नेता विवेक गर्ग ने की थी जो खुद बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ चुके हैं। लोकायुक्त ने भी तब सिर्फ़ आप के विधायकों को संपत्ति का ब्यौरा देने का आदेश जारी करके ग़लती की थी। लेकिन जब आप ने इस पर एतराज़ किया तो उन्होंने पार्टी के 66 विधायकों के साथ बीजेपी के भी 4 विधायकों को संपत्ति का ब्यौरा देने का आदेश दे डाला।
अधिकार ही नहीं होने का तर्क
इसके बाद भी संपत्ति का ब्यौरा जमा न करना और यह कहना कि लोकायुक्त को ऐसा कोई अधिकार ही नहीं है, यही बताता है कि आप उसी लोकायुक्त की शक्तियों को चुनौती दे रही है जिसका नाम लेकर वह राजनीति में आई और आज सत्ता में भी है। विधानसभा अध्यक्ष कहते हैं कि लोकायुक्त को संपत्ति का ब्यौरा मांगने का अधिकार ही नहीं है। इसके अलावा उन्हें इस बात पर भी एतराज़ है कि आख़िर शिकायत जमा कराने के दो दिन के भीतर ही लोकायुक्त ने नोटिस क्यों जारी कर दिया
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क्यों नहीं देना चाहते ब्यौरा
लोकायुक्त ने विधानसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को भी नोटिस जारी किया है जबकि विधानसभा अध्यक्ष गोयल के मुताबिक़, उन्हें ऐसा कोई नोटिस जारी किया ही नहीं जा सकता। अगर यह मान भी लिया जाए कि लोकायुक्त को ऐसा अधिकार नहीं था लेकिन यहाँ मूल सवाल यह है कि आख़िर आप के विधायक अपनी संपत्ति का ब्यौरा जमा क्यों नहीं कराना चाहते।
2015 में विधानसभा चुनाव के वक़्त आप विधायकों ने एफ़िडेविट देकर अपनी संपत्ति का ब्यौरा दिया ही था। अगर उन्होंने चार साल में कोई अवैध काम नहीं किया तो फिर अब संपत्ति का ब्यौरा देने में ना-नुकर क्यों कर रहे हैं
लोकायुक्त की अथॉरिटी को चुनौती देने के बजाय या विधानसभा अध्यक्ष गोयल अभी जो भी तर्क या नियमों का हवाला दे रहे हैं, वह उन सारे नियमों का हवाला भी देते और यह भी कहते कि आपको अधिकार नहीं है, फिर भी हमारे मन में खोट नहीं है और आप के सभी विधायक अपनी सारी संपत्ति का ब्यौरा दे रहे हैं, तो क्या तब यह साबित नहीं होता कि आप ईमानदार हैं!
अभी तो ऐसा लग रहा है कि आप के विधायक संपत्ति का ब्यौरा नहीं देना चाहते या उनकी नीयत में खोट है। इसीलिए वे उसी लोकायुक्त को चुनौती दे रहे हैं जिसकी वे पैदाइश हैं।
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विधानसभा अध्यक्ष ने यह भी आरोप लगाया है कि लोकायुक्त इसलिए नोटिस जारी कर रहे हैं कि सरकार ने उनकी कार में जीपीएस लगाने का फ़ैसला किया है जबकि सारे जजों को इससे मुक्त रखा गया है। सरकार चाहती है कि सरकारी गाड़ियों का दुरुपयोग रोका जाए लेकिन जजों को सुरक्षा के नाम पर इससे मुक्त रखा गया है। सरकार इन नोटिस को बदले की कार्रवाई मान रही है।
लोकायुक्त पद पर रेवा खेत्रपाल के नाम पर सहमति आप सरकार ने ही दी थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि अब आप सरकार बाक़ी संवैधानिक संस्थाओं की तरह उन्हें भी अपना दुश्मन मानती हो और इसीलिए उसने सरकारी गाड़ियों में जीपीएस लगाने से लोकायुक्त को मुक्त न रखा हो।
एक्शन पर भी है एतराज़
इसके अलावा आप को इस बात पर भी एतराज़ है कि लोकायुक्त ने दो दिन में ही कार्रवाई क्यों कर दी। एक तरफ़ केजरीवाल सरकार की शिकायत रहती है कि उसके प्रस्ताव महीनों तक लटके रहते हैं और उसे काम नहीं करने दिया जाता और दूसरी तरफ़ अगर कोई तुरंत एक्शन ले रहा है तो उस पर भी उसे एतराज़ है।
कारण जो भी हो लेकिन यह सच है कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, चुनाव आयोग और उपराज्यपाल के बाद आप सरकार को टकराव की एक और संस्था मिल गई है। अब देखना यह है कि लोकायुक्त के साथ यह टकराव किस सीमा तक जाता है।