सवर्णों के लिए आर्थिक आरक्षण के विधेयक को संसद के दोनों सदनों ने प्रचंड बहुमत से पारित कर दिया है। आरक्षण का आधार यदि आर्थिक है तो उसे मेरा पूरा समर्थन है। वह भी सरकारी नौकरियों में नहीं, सिर्फ़ शिक्षण-संस्थाओं में ! इस दृष्टि से यह शुरुआत अच्छी है लेकिन इस विधेयक को संसद ने जिस हड़बड़ी और जिस बहुमत या लगभग जिस सर्वसम्मति से पारित किया है, उससे ज़्यादा शर्मनाक बात क्या हो सकती है। इसने संसद की इज्जत को पैंदे में बिठा दिया है।
किसी ने भी खड़े होकर यह क्यों नहीं पूछा कि 65 हजार रुपये महीना कमाने वाला व्यक्ति ग़रीब कैसे हो गया यह आँकड़ा प्रधानमंत्री जी आपको किसने पकड़ा दिया आपने अपनी अक्ल का इस्तेमाल क्यों नहीं किया
‘ग़रीब’ का किया भयंकर अपमान
यदि 8 लाख रुपये सालाना कमाने वाले को आपने ग़रीब की श्रेणी में डाल दिया तो आपने इस ‘ग़रीब’ का भयंकर अपमान किया है। कोई मेरे-जैसे आदमी को ग़रीब कह दे तो क्या मुझे अच्छा लगेगा जो सरकार देश के करोड़ों मध्यवर्गीय, सुशिक्षित और सुविधा संपन्न लोगों को ग़रीब की श्रेणी में डाल रही है, वे उसे क्यों बख्शेंगे
इसके अलावा वह 8 लाख तक सालाना आमदनी वालों को 10 प्रतिशत आरक्षण देकर क्या वह इस जरा-से आरक्षण को देश के सवा अरब लोगों के बीच चूरा-चूरा करके नहीं बाँट रही है क्या यह ग़रीबों के साथ सरासर धोखाधड़ी नहीं है यह ऐसा है, जैसे 10 अंगूर हों और उन पर आप 100 लंगूरों को झपटा दें। आप सिर्फ़ 10 प्रतिशत आरक्षण देश के 125 करोड़ लोगों के बीच बाँट रहे हैं। इससे बड़ा ढोंग, फ़रेब और फ़र्ज़ीवाड़ा क्या हो सकता है
संसद में किसी भी सांसद ने यह नहीं पूछा कि 65 हजार रुपये महीना कमाने वाला व्यक्ति ग़रीब कैसे हो गया प्रधानमंत्री जी आपको किसने यह आँकड़ा पकड़ा दिया
सिर्फ़ कोरा जबानी-जमाख़र्च
नोटबंदी और जीएसटी पहले ही रोज़गारों को खाए जा रही है और आप नए रोज़गार बाँटने चले हैं। हवा में लट्ठ चला रहे हैं। घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने। और फिर यह संशोधन अदालत में पटकनी खाने के लिए भी पूरी तरह से तैयार है। 2019 के चुनाव तक यह आर्थिक आरक्षण कोरा जबानी-जमाख़र्च ही बना रहेगा।