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योगी के बाग़ के ज़्यादातर पौधे सड़ चुके हैं!

योगी के बाग़ के ज़्यादातर पौधे सड़ चुके हैं!

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में जब सिर्फ़ छह महीने बचे हैं तो योगी सरकार ने मंत्रिमंडल में फेरबदल क्यों किया? वह भी तब जब योगी सरकार साढ़े चार साल की कथित उपलब्धियाँ गिना रही है?

सिर्फ़ चक्कर काटते इलेक्ट्रॉन किसी परमाणु को स्थायित्त्व प्रदान नहीं कर सकते। स्थायित्त्व के लिए चाहिए केंद्र में एक मज़बूत नाभिक। यह नाभिक ही है जिसके प्रभाव से परमाणु का अस्तित्व है। उत्तर प्रदेश में हुआ मंत्रिपरिषद में फेरबदल, ऐसे ही एक परमाणु रूपी सरकार के स्थायित्व की कहानी बयान करता है, जिसका नाभिक अर्थात मुख्यमंत्री भारहीनता से गुजर रहा है और अपनी अक्षमता को ढँकने के लिए अपने चारों ओर नए-नए इलेक्ट्रॉन स्थापित कर रहा है ताकि परमाणु अर्थात सरकार को बचाया जा सके।

सरकार अब, जबकि चुनाव के 6 महीने बचे हैं, अपनी कैबिनेट में क्यों बदलाव करना चाहती है? विशेषतया तब जबकि अभी हाल ही में सरकार अपने साढ़े चार साल का सरकारी ब्योरा दे चुकी है वो भी इस दावे के साथ… कि उसने किसानों का 36 हजार करोड़ रुपया कर्ज माफ़ किया है, गन्ना किसानों का 1.44 लाख करोड़ का बकाया भुगतान किया है, सरकार लड़कियों की स्नातक तक की पढ़ाई का ख़र्च उठा रही है, 56 ज़िलों में कम से कम एक मेडिकल कॉलेज चल रहा है, मुख्यमंत्री जन आरोग्य योजना के तहत 42 लाख लोगों का बीमा कवर किया है और 150 अपराधी एनकाउंटर में मारे हैं। ऐसे ही तमाम और भी गुणों का बखान किया है। 

मैं समझना चाहती हूँ कि जब सबकुछ अच्छा चल रहा था और राजनैतिक व प्रशासनिक मशीनरी दिव्यता धारण किये हुए थी तब क्या ज़रूरत थी कि 7 और मंत्रियों को शामिल करके सरकारी खजाने पर बोझ डाला जाये? 

इसके कुछ कारण हो सकते हैं! 

पहला कारण है कोविड-19 में सरकार की डरा देने वाली असफलता। यह सही है कि सरकार ने अपनी असफलता नहीं मानी है और न ही ऑक्सीजन की कमी से हुई मौतों को स्वीकार किया है, बावजूद इसके सरकार की इंटेलिजेंस एजेंसियों ने तो चेतावनी दी ही होगी क्योंकि यह बात किसी से छिपी नहीं है कि प्रदेश के हर गांव में मातम पसरा हुआ था, छोटे-छोटे गांवों में मौतों के आंकड़े, सैकड़े को पार कर रहे थे। आज, अंदर ही अंदर सरकार को यह एहसास है कि मंदिर निर्माण और धार्मिक क़िलेबंदी को विपक्ष इस बार सफलतापूर्वक तोड़ सकता है।

चूँकि कोविड के दौरान सरकार द्वारा की गई अनदेखी अभूतपूर्व रही है इसलिए सरकार द्वारा कैबिनेट में शामिल किए गए 7 नए चेहरों में 6 उन जिलों की विधानसभाओं से हैं जहां कोविड-19 का सर्वाधिक असर रहा है। छत्रपाल गंगवार (विधायक, बरेली क्षेत्र), धरमवीर प्रजापति (आगरा क्षेत्र), डॉ. संगीता बलवंत बिन्द (गाजीपुर क्षेत्र), दिनेश खटिक (मेरठ क्षेत्र), संजीव कुमार गोंड (सोनभद्र क्षेत्र), पलटूराम (बलरामपुर क्षेत्र)। उत्तर प्रदेश का सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम प्रदेश के सभी जन्म और मौतों का ब्योरा अपने पास रखता है। एक आरटीआई के अनुसार प्रदेश में 24 ऐसे जिले हैं जहां 1 जुलाई 2019 से 20 मार्च 2020 तक (अर्थात कोविड पूर्व अवस्था में) 1 लाख 78 हजार मौतें रजिस्टर की गईं जबकि इन्हीं महीनों में कोविड के दौरान (2020-21) में मौत का यह आंकड़ा 3 लाख 75 हजार जा पहुँचा अर्थात सामान्य से 1 लाख 97 हजार अधिक मौतें रजिस्टर हुई हैं। 

इसमें विशेषज्ञता की ज़रूरत नहीं, कोई भी यह सहजता से बता सकता है कि मौतों की इस अधिकता का कारण कोविड-19 ही है और कोविड-19 से हुई इन मौतों की अधिकता का कारण सरकार का कुप्रबंधन है।

मलेशिया में कोविड के कुप्रबंधन से उपजी परिस्थितियों के कारण वहाँ के प्रख्यात नेता और प्रधानमंत्री मुहिद्दीन यस्सीन को अगस्त 2021 में अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी क्योंकि सदन में उनकी सरकार अल्पमत में आ गयी थी। क्योंकि मलेशिया की जनता ने अपने जनप्रतिनिधियों और प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया था, जनप्रतिनिधियों को झुकना पड़ा और सरकार गिर गयी। पर हमारे यहाँ ऐसा कुछ नहीं हुआ।

कोरोना ने जीवन के अकाल को जन्म दिया था और यह अकाल और इसके प्रभाव सरकारी अक्षमता का मुख्य उत्पाद था। यह सिर्फ़ प्राकृतिक समस्या नहीं थी। इसे बेहतर प्रयास और तैयारी से रोका जा सकता था या कम से कम इसके प्रभावों को सीमित तो किया ही जा सकता था। जिन्हें यह लगता है कि क्या इन 6 चेहरों से उन क्षेत्रों में कोविड-19 से हुई मौतों की भरपाई हो पाएगी? उन्हें यह समझना चाहिए कि सरकार का यह क़दम; मात्र एक क़दम है, सिर्फ़ यही एक क़दम होगा यह नहीं कहा जा सकता; हाँ इसका परिणाम अवश्य पड़ेगा।

 - Satya Hindi

सरकार बहुत अच्छे से जानती है कि सिर्फ़ हिन्दू-मुसलिम दांवपेंच, मंदिर निर्माण और अपराधियों के ख़िलाफ़ उसकी सख्त छवि इन चुनावों में पर्याप्त नहीं रहेगी। 

भारतीय जनता पार्टी की राजनीति अब कोई किताबी बात नहीं रही यह पब्लिक डिस्कोर्स का विषय बन चुकी है; और जो फ्लोटिंग वोटर बीजेपी का समर्थन राष्ट्रवादी विकास और 56 इंच की वजह से कर रहा था उसे बेरोज़ग़ारी और महंगाई समेत चीन के सीमा विवाद ने बुरी तरह निराश किया है। सिर्फ़ धर्म के सहारे चुनावी पुल को हर बार पार करना संभव नहीं है। मीडिया की नज़रों से दूर, प्रदेश का एक सधा हुआ विपक्ष विभिन्न जातिगत समीकरणों के साथ-साथ, गाँव-गाँव तक कोविड को लेकर सरकारी अक्षमता की पोल खोलने में लगा हुआ है। ऐसे में प्रदेश सरकार हर वो काम कर लेना चाहती है जिससे आने वाले समय में केंद्रीय नेतृत्व को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर किसी 'कार्यवाही' का बहाना न मिल पाए। क्योंकि केंद्र के एक 'सिविल' दूत को अपने 'दरबार' में घुसने न देने को लेकर दरबार के भविष्य पर संकट बना हुआ है। 

उत्तर प्रदेश में ही नहीं, पूरे देश में ब्राह्मण न अच्छा वोटबैंक है और न ही एक प्रभावशाली वर्ग, लेकिन ब्राह्मण और उससे जुड़ी छवि उसकी प्रभावकारिता को बढ़ा देता है। स्वयं सत्ता पाना या किसी को पाने में मदद करने की स्थिति में संदेह है लेकिन किसी को हरा देना और सत्ता से बाहर रखने के ब्राह्मण-कौशल पर राजनीतिक विश्लेषकों को कोई संदेह नहीं होना चाहिए। गैंगस्टर विकास दुबे का 'एनकाउंटर' ब्राह्मणों को सीधे अपने ऊपर हमला लगा। प्रदेश के विभिन्न राजनैतिक दलों के नेता मुखर हो गए; स्वयं जितिन प्रसाद, ब्राह्मण नेता, जब कांग्रेस में थे तो उनका कहना था, 'तुम गाड़ी पलटोगे हम सरकार पलट देंगे’ (विकास दुबे की गाड़ी जिसमें उसे पुलिस सुरक्षा में लाया जा रहा था, पुलिस के अनुसार वह पलट गई थी जिसके बाद उसका एनकाउंटर करना पड़ा), सरकार को यह चुनौती लगी और चिंता होने लगी। 

यह सही है कि जितिन प्रसाद ब्राह्मणों की दुनिया के कोई सर्वमान्य नेता नहीं हैं लेकिन ऐसे ही तो लहरें पैदा होती हैं। लेकिन पर्दे के पीछे लहरों को बोतल में बंद करके उसके ऊपर कैबिनेट मंत्री की कॉर्क लगा दी गयी। सरकार को लगा कुछ न से तो बेहतर है शायद ब्राह्मण की नाराज़गी से बच जाएं।

मुझे सच में नहीं पता कि प्रदेश की जनता चुनाव के दौरान योगी जी के लिये कितना वोट सोचकर बैठी है लेकिन मैं इतना ज़रूर जानती हूँ कि योगी जी को पिछले चुनावों में जनता ने जीत दिलाकर एक ऐसे माली की भूमिका में बिठाया था जिसे प्रदेश के जनउद्यान को खूबसूरत बनाने का काम दिया गया था। लेकिन पिछले साढ़े चार सालों में उन्होंने इस जनउद्यान में कुछ नया करना तो दूर; अच्छे से देखभाल तक नहीं की। 

बाग के ज़्यादातर पौधे सड़ चुके हैं। जो बचे हैं उनकी पत्तियों में वायरस लग चुका है, घास बेतरतीब है और मिट्टी की क्षमता व गुणवत्ता लगातार निम्तता के आयाम छू रहे हैं। अब जब चुनाव सर पर है तो माली यह चाहता है कि जब जनता मेरे उद्यान को देखेने आये तो उसे चमकदार हरे भरे वृक्ष दिखने चाहिए। उद्यान विविधता से भरा दिखे, इसलिए उसमें ब्राह्मण वृक्ष, ओबीसी वृक्ष और एससी, एसटी वृक्षों सहित जेंडर आधारित वृक्षों का भी इस्तेमाल किया गया है। उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि किसी तरह 6 महीने बाद होने वाली उस जन विजिट को संभाल लें ताकि एक बार फिर से उन्हें प्रदेश का माली (मुख्यमंत्री) बना दिया जाये। लेकिन मुझे नहीं लगता कि  कोविड-19 से हुई मौतें सरकार का पीछा छोड़ेंगी।

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