यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दावा किया है कि बाबर ने संभल की जामा मस्जिद हरिहर मंदिर को तोड़कर बनायी थी। उन्होंने ‘बाबरनामा’ में इसका ज़िक्र होने का दावा किया है जो मुग़ल शासन की नींव डालने वाले इस बादशाह की आत्मकथा है। एक ज़माना था जब सत्ताधारियों के दावे की पड़ताल की जाती थी। लेकिन कम से कम कथित मुख्यधारा मीडिया अब ऐसी ‘ग़लती’ नहीं करता। उसने योगी आदित्यनाथ के इतिहास-ज्ञान को ‘ब्रह्मवाक्य’ की तरह पेश कर दिया।
ऐसा ही कुछ अयोध्या की बाबरी मस्जिद के बारे में किया गया था। 1857 में हिंदू-मुस्लिम एकता के आधार पर पैदा हुईं क्रांति की लहरों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन को डुबो दिया था। भारत सीधे अंग्रेज़ साम्राज्ञी रानी विक्टोरिया के अधीन हो गया था। अंग्रेज़ों को समझ में आ गया था कि हिंदुओं और मुसलमानों में फूट डालकर ही वे राज कर सकते हैं। अयोध्या में राम मंदिर की कथा इसके बाद ही गढ़ी गयी। आज़ादी की लड़ाई के दौरान यह विवाद स्थानीय प्रकृति का बना रहा, लेकिन आज़ादी के बाद एक सेक्युलर और लोकतांत्रिक भारत की नींव हिलाने के लिए इस ‘गढ़ंत’ को अखिल भारतीय स्तर पर प्रचारित किया गया। ऐसा करने वालों ने लखनऊ से लेकर दिल्ली तक की सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया। तब भी बाबरनामा में इसके ज़िक्र का दावा किया गया था।
इस ‘गढ़ंत’ के प्रचार का असर इतना ज़बरदस्त है कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को भी चंद सालों में ही भुला दिया गया है। आज ज़्यादातर लोग मानते हैं कि बाबर ने राममंदिर तोड़कर अयोध्या में मस्जिद बनवायी थी। जबकि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में साफ़ कहा गया है कि इसका कोई प्रमाण नहीं है। सर्वोच्च अदालत ने ये भी कहा था कि 1949 में मस्जिद में ज़बरदस्ती मूर्तियाँ रखने का अपराध किया गया और बाबरी मस्जिद को तोड़ना भी आपराधिक कृत्य था। इस सबके बावजूद सर्वोच्च अदालत ने ‘उसी’ स्थान पर मंदिर बनाने और दूसरी जगह मस्जिद बनाने का ‘पंचायती फ़ैसला’ किया और राममंदिर बन गया।
बीजेपी को उम्मीद थी कि राममंदिर निर्माण के एवज़ में उस पर वोटों की बारिश होगी इसलिए चुनाव के कुछ महीने पहले शंकराचार्यों के विरोध के बावजूद राममंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा समारोह आयोजित किया गया। लेकिन हैरानी तब हुई जब लोकसभा चुनाव में बीजेपी अयोध्या सीट भी हार गयी और यूपी में इंडिया गठबंधन उससे आगे निकल गया। इस झटके से उबरने के लिए एक और अयोध्या की तलाश थी जो संभल में पूरी हुई। संभल वैसे भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में है जो किसान आंदोलन से प्रभावित रहा है। किसानों की वर्गीय एकता को तोड़ने के लिए सांप्रदायिक प्रचार बीजेपी की व्यापक रणनीति का हिस्सा रहा है। संभल के जामा मस्जिद का सर्वे, फिर इसे लेकर भड़की हिंसा और तनाव इसी सब का नतीजा है। पूजा स्थल अधिनियम, 1991 साफ़तौर पर निशाने पर है जिसके तहत सभी धर्मस्थलों को 15 अगस्त 1947 की स्थिति में रखने की क़ानूनी बाध्यता है।
हैरानी नहीं होनी चाहिए कि पहले बाबरनामा में अयोध्या खोजी गयी और अब संभल का पन्ना दिखाया जा रहा है। ऐसा लगता है कि बाबर की आत्मकथा ज़रूरत के हिसाब से पढ़ी जाती है। वरना जब अयोध्या को खोजा गया था, उसी वक़्त संभल का वाक़या भी पढ़ा जा सकता था।
हक़ीक़त ये है कि बाबरनामा में न अयोध्या में राममंदिर तोड़ने का ज़िक्र है और न संभल में हरिहर मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाने का। हिंदुत्ववादियों को यह ‘तथ्य’ बाबरनामा के अंग्रेज़ अनुवादक ने मुहैया कराया, एक फ़ुटनोट के ज़रिए।
ब्रिटिश अनुवादक ऐनेट बेवरेज ने बीसवीं सदी की शुरुआत में बाबरनामा का अंग्रेज़ी अनुवाद किया था। इसमें उसने एक फ़ुटनोट में एक टिप्पणी दर्ज करके बताया कि बाबर के सिपहसालार हिंदू बेग़ ने संभल में मंदिर तोड़कर मस्जिद बनवायी थी। फ़ुटनोट से मतलब यह हुआ कि बाबर ने ऐसा कुछ नहीं लिखा, लेकिन अनुवादक महोदय ने पाठकों का ज्ञानवर्धन करने के लिए यह जानकारी दी जिसका कोई स्रोत नहीं था।
बीबीसी की एक हालिया रिपोर्ट में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफ़ेसर और प्रसिद्ध इतिहासकार हरबंश मुखिया ने इस फ़र्जीवाड़े पर बात की है। उन्होंने कहा है कि ‘बेवरेज को फ़ुटनोट जोड़ने की आदत थी। उसने यही काम अयोध्या के बारे में भी किया था। बाबर संभल नहीं गया था।’ पानीपत के मैदान में हुई जीत के बाद बाबर ने हिंदू बेग को प्रशासन सँभालने के लिए भेजा था जिसने ज़्यादा से ज़्यादा पहले से मौजूद मस्जिद की मरम्मत कराई होगी। बाबरनामा में मंदिर तोड़ने का कोई उल्लेख नहीं है।
यह ग़ौर करने की बात है कि बाबर पानीपत की लड़ाई के बाद महज़ चार साल जीवित रहा। 1526 में उसने दिल्ली सुल्तान इब्राहीम लोदी को परास्त किया था। राणा सांगा से तो बाबर की लड़ाई अगले साल यानी 1927 में हुई। बाबर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि राणा सांगा के दूत ने काबुल में उससे मिलकर संदेश दिया था कि जब वह दिल्ली पर धावा बोलेगा तो राणा आगरा पर हमला करेगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। बाबर इससे नाराज़ था।
हिंदुत्ववादियों की नज़र में भारत का हर मुसलमान ‘बाबर की औलाद’ है जबकि बाबर ने सबसे पहले जिस इब्राहीम लोदी और उसकी सल्तनत का नाश किया था, वह भी मुसलमान ही था। बाबर से लड़ते हुए लोदी सेना के हज़ारों मुसलमान सिपाहियों ने जान दी थी जैसा कि राणा सांगा का साथ देते हुए मुस्लिम सिपहसालार हसन खाँ मेवाती ने बाबर से लड़ते हुए जान दी थी। सत्ता की लड़ाई में हिंदू-मुसलमान नहीं, स्वार्थ देखा जाता था। सत्ता के लिए हिंदू-मुसलमान करना आज की बात है।
प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास में तमाम राजा-महाराज, सुल्तान और बादशाह हुए हैं जिन्होंने अपने दुश्मन के ‘श्रद्धास्थलों’ को बर्बाद किया। दिल्ली में सल्तनत की स्थापना के पहले भी यही परंपरा थी।
जैन और बौद्ध मंदिरों को ध्वस्त करने वाले मुस्लिम शासक नहीं थे। कल्हण की राजतरंगिणी में कश्मीर के शासक हर्षदेव का ज़िक्र है जिसने मूर्तियों को तोड़ने के लिए बाक़ायदा एक अधिकारी तैनात किया था। राहुल सांकृत्यायन ने बौद्ध मठ को बद्रीनाथ में बदलने का विस्तार से वर्णन किया है। मुस्लिम शासकों ने भी यही परंपरा निभाई। उन्होंने भी कुछ जगह मंदिर तोड़े, ख़ासतौर पर अगर किसी का संबंध विद्रोह या विद्रोही से हुआ। हालाँकि औरंगज़ेब जैसे कट्टर कहलाने वाले शासक के चित्रकूट से लेकर उज्जैन और असम तक में मंदिरों को दान देने के फ़रमान भी मौजूद हैं। औरंगज़ेब ने गोलकुंडा की जामा मस्जिद भी तुड़वा दी थी क्योंकि उसे सूचना मिली थी कि उसके नीचे स्थानीय शासक ने ख़ज़ाना छिपा दिया है।
प्राचीन और मध्यकाल में राजा ‘ईश्वर की छाया’ होता था। उसकी इच्छा ही क़ानून होती थी। न तब लोकतंत्र था, न संविधान और न सेक्युलरिज़्म की अवधारणा थी। इसलिए आधुनिक राज्य के सिद्धांतों की कसौटी पर उन शासकों को कसना बेमानी है।
अफ़सोस की बात ये है कि आरएसएस और बीजेपी अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए इक्कीसवीं सदी के हिंदुओं को सोलहवीं सदी की लड़ाई में झोंक देना चाहते हैं। यह इन हिंदुओं के पुरखों का भी अपमान है जिन्होंने सदियों से मुस्लिमों के साथ रहते हुए एक साझा हिंदुस्तानी संस्कृति विकसित की थी। वे अच्छी तरह जानते थे कि बादशाह और जनता में फ़र्क़ होता है। बादशाह के बुरे कामों के लिए जनता ज़िम्मेदार नहीं होती। ‘सहधर्मी’ होना तो कोई कारण हो ही नहीं सकता। दिल्ली के सुल्तान रहे हों या मुग़ल बादशाह, हर मंदिर को मस्जिद में बदलना या हर हिंदू को मुसलमान बनाने उनकी नीति कभी नहीं रही। मुस्लिम बादशाह के बुरे कामों में हिंदू सिपहसालार भी साथ देते थे और ज़ुल्म सहने वालों में मुस्लिम रियाया भी बराबर की शरीक़ थी।
यूपी देश के सबसे निर्धन राज्यों में है और देश में आर्थिक सुस्ती का जैसा माहौल है, उसे देखते हुए इस स्थिति में परिवर्तन की जल्द उम्मीद भी नहीं है। इतिहास को सांप्रादयिक नज़रिए से देखना और प्रचारित करना वर्तमान की बदहाली से मुँह चुराने का ज़रिया है। शासक अपनी तमाम असफलताओं को सांप्रदायिक तनाव के पर्दे में ढँकना चाहते हैं। अफ़सोस कि यूपी ही नहीं, सारा देश इसी दुश्चक्र में फँसा हुआ है।