‘बँटेंगे तो कटेंगे’ अकबर को ‘जगद्गुरु' बताने वाले शिवाजी की परंपरा पर हमला!
“क़ुरआन स्वयं ईश्वर की वाणी है। वह रूहानी किताब है। उसमें अल्लाह को विश्व का ईश्वर कहा गया है, ‘मुसलमानों का ईश्वर’ नहीं बनाया गया है क्योंकि हिंदू और मुसलमान दोनों ईश्वर के समक्ष एक हैं। मुसलमान लोग मस्जिदों में अज़ान देते हैं, वह ईश्वर का गुणगान है और हिंदू लोग मंदिरों में घड़ियाल बजा कर ख़ुदा को ही याद करते हैं। अत: जाति-संप्रदाय के आधार पर अत्याचार करना, भगवान से शत्रुता करना है।”
ये पंक्तियाँ पढ़कर आरएसएस और हिंदुत्ववादी ब्रिगेड के तमाम धुरंधर किसी ‘सेक्युलर’ नेता का बयान समझेंगे जो ‘तुष्टीकरण’ में जुटा है। लेकिन ये पंक्तियाँ छत्रपति शिवाजी महाराज के उस पत्र की हैं जो उन्होंने जज़िया कर लगाये जाने के विरोध में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब को लिखा था। एस.एम. गर्गे की लिखी ‘औरंगज़ेब, जज़िया कर और शिवाजी महाराज’ पुस्तक के पेज 135 से 155 के बीच यह पत्र पढ़ा जा सकता है।
फ़ारसी में लिखा शिवाजी का यह पत्र उनकी धार्मिक नीति को बेहद स्पष्ट रूप से सामने रखता है। शिवाजी अध्यात्म की उसी भारतीय परंपरा से अपने को जोड़ते नज़र आते हैं जो ईश्वर के ‘एक' होने और उसके समक्ष सभी के ‘एक’ होने की बात करता है। जो जाति-संप्रदाय के आधार पर अत्याचार को ‘ईश्वर-द्रोह’ बताता है।
लेकिन गोरखनाथ मंदिर के महंत और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ महाराष्ट्र के चुनाव में शिवाजी का नाम लेकर बिल्कुल उलट बात कर रहे हैं। 6 नवंबर को वासिम में एक रैली को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि “मैं छत्रपति शिवाजी महाराज से प्रेरणा ले रहा हूँ। साथ ही आपसे यह अपील भी करता हूँ कि आप बँटें नहीं क्योंकि जब भी हम बँटे, हम कटे हैं।”
किसी को शक़ नहीं है कि योगी आदित्यनाथ के ‘हम’ का मतलब क्या है और किसके ख़िलाफ़ एकजुट होने का आह्वान कर रहे हैं। मुख्यमंत्री बनने और बीजेपी से औपचारिक रूप से जुड़ने के पहले से ही वे हिंदू युवा वाहिनी बनाकर पूर्वी उत्तर प्रदेश के तमाम ज़िलों में हिंदू-मुस्लिम संघर्ष की जो बिसात बिछा रहे थे, उसी ने उन्हें आरएसएस की नज़र में हीरो बनाया और तमाम प्यादों को घर बैठाकर उन्हें यूपी के मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी गयी। योगी आदित्यनाथ के ज़रिए धर्म की चाशनी में लिपटी हुई नफ़रत की राजनीति को पूरे देश में फैलाने की योजना का प्रयोग महाराष्ट्र में भी दोहराया जा रहा है।
समस्या यह है कि योगी आदित्यनाथ महाराष्ट्र में शिवाजी का झंडा उठाकर यह सब कर रहे हैं जिन्होंने धर्म के आधार पर कभी भेदभाव नहीं किया। महाराष्ट्र की जनता में शिवाजी का ‘सद्भावी' रूप बहुत गहरे पैठा है। इसीलिए केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने ‘बँटेंगे तो कटेंगे’ पर लीपापोती करते हुए कहा कि योगी आदित्यनाथ का नारा सारे देश को एकजुट करने का संदेश देता है, लेकिन राज्य के उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने संदेह की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी। उन्होंने इस नारे पर आपत्ति जताने वाले दूसरे उपमुख्यमंत्री अजित पवार पर टिप्पणी की है कि वे जनता की भावनाएँ नहीं समझते। फडणवीस ने कहा, ’'दशकों तक अजित ऐसी विचारधाराओं के साथ रहे हैं जो हिंदू-विरोधी और धर्मनिरपेक्ष रही है।” अजित पवार ने योगी आदित्यनाथ के ‘बँटेंगे तो कटेंगे’ नारे पर आपत्ति जताते हुए कहा था कि,“यहाँ शिवाजी, शाहू जी, डॉ. आंबेडकर और ज्योतिबा फुले की विचारधारा पर सबको साथ लेकर चलने की परंपरा रही है। बाहर के लोग आते हैं और वो अपने विचार बोलकर चले जाते हैं। महाराष्ट्र ने ये कभी स्वीकार नहीं किया है।”
निश्चित ही योगी आदित्यनाथ जो बोल रहे हैं, वह शिवाजी के सोच-विचार और परंपरा से पूरी तरह उलट है। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के ज़रिए सत्ता हासिल करने की कोशिशों पर शिवाजी का झंडा फहराया जाना, शिवाजी की विरासत का अपमान है।
शिवाजी ने जिस ‘हिंदवी साम्राज्य’ का बीज डाला था उसके लिए हिंदू-मुसलमान सभी ने बलिदान दिया था। शिवाजी वह महानायक हैं जिन्होंने अपने ‘वतन’ के सभी जन साथ लेकर दिल्ली के ताक़तवर बादशाह औरंगज़ेब से लोहा लिया। शिवाजी ‘स्वतंत्रता’ के शिखर प्रतीक हैं, न कि सांप्रदायिक भावना के, जैसा कि योगी आदित्यनाथ बताना चाहते हैं।
शिवाजी के ‘हिंदवी साम्राज्य’ को संभव बनाने में तमाम मुस्लिम योद्धाओं ने अहम भूमिका निभाई थी। शिवाजी के तोपख़ाना के कमांडर का नाम इब्राहिम ख़ान था। शिवाजी के लिए तमाम अभेद्य क़िलों को जीतने में तोपख़ाने की बड़ी भूमिका थी। इसी तरह उनकी नौसेना के मुखिया का नाम दौलत ख़ान था। कोंकण क्षेत्र समुद्र के किनारे है जिसकी सुरक्षा के लिए नौसेना ज़रूरी थी। शिवाजी ने इसकी ज़िम्मेदारी दौलत ख़ान को सौंपी और उन्हें ‘दरिया सारंग’ (समंदर का शेर) की उपाधि दी। शिवाजी के ख़ास अंगरक्षकों में मदारी मेहतर नाम का एक मुसलमान था जिसने आगरे के क़िले से शिवाजी के फ़रार होने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।
क़ाज़ी हैदर शिवाजी के राजदूत थे। सालेरी के युद्ध के बाद, औरंगज़ेब के अधीन दक्षिण के अधिकारियों ने, शिवाजी के साथ मित्रता क़ायम करने के लिए जब एक ब्राह्मण वक़ील भेजा तो जवाब में शिवाजी ने क़ाज़ी हैदर को वार्ता करने के लिए भेजा। यानी मुग़लों का वकील हिंदू और शिवाजी का वक़ील मुसलमान! यह उस दौर की बेहद स्वाभाविक बात थी। औरंगज़ेब की ओर से मिर्ज़ा राजा जय सिंह ही शिवाजी की घेरेबंदी कर रहे थे।
10 नवंबर 1659 को मुलाक़ात के बहाने प्रतापगढ़ क़िले के नीचे लगे शामियाने में शिवाजी की जान लेने की कोशिश करने वाले, बीजापुर के बादशाह आदिलशाह के सेनापति अफ़ज़ल खाँ के असल मक़सद के बारे में चेताते हुए शिवाजी को बघनखा छिपाकर रखने की सलाह एक मुसलमान रुस्तमे ज़माँ ने दी थी जबकि इस मौक़े पर शिवाजी पर तलवार का वार करने वाला अफ़ज़ल खाँ के मुलाज़िम का नाम कृष्णमूर्ति भास्कर कुलकर्णी था।
ज़ाहिर है, ये सरदार अकेले नहीं थे। उनके अधीन सिपाहियों की बड़ी तादाद शिवाजी की सेवा में थे। सच्चाई ये है कि शिवाजी की सेना में एक तिहाई सैनिक बीजापुर के मुस्लिम थे। रियासतकार सरदेसाई अपनी किताब “सामर्थ्यवान शिवाजी में लिखते हैं-
“सन 1648 के आसपास बीजापुर की फ़ौज के पाँच-सात सौ पठान शिवाजी के पास नौकरी हेतु पहुँचे, तब गोमाजी नाईक पानसंबल ने उन्हें सलाह दी, जिसे उचित मान शिवाजी ने स्वीकार कर लिया और आगे भी वही नीति क़ायम रखी। नाईक ने कहा, “आपकी प्रसिद्धि सुनकर ये लोग आये हैं, उन्हें निराश करके वापस भेजना उचित नहीं है। हिंदुओं को ही इकट्ठा करो, औरों से वास्ता नहीं रखो- यदि यह समझ क़ायम रखी तो राज्य प्राप्ति नहीं होगी। जिसे शासन करना हो, उसे अठारह जातियों, चारों वर्ण के लोगों को, उनके जाति सम्प्रदाय के अनुरूप, संगठित करना चाहिए।”
शिवाजी का राज्याभिषेक सन 1674 में हुआ और यह घटना सन 1648 यानी 26 साल पहले की है। शिवाजी ने सेना में मुस्लिमों को शामिल करने की नीति अपनायी जो राज्य स्थापना में बेहद सहयोगी साबित हुए।
शिवाजी मुस्लिम साधु, पीर-फ़कीरों का काफ़ी सम्मान करते थे। मुस्लिम संत याक़ूत बाबा को तो शिवाजी अपना गुरु मानते थे। उनके राज्य में मस्जिदों और दरगाहों में दीया-बाती, धूप-लोबान आदि के लिए नियमित ख़र्च दिया जाता था।
शिवाजी ने अपनी राजधानी रायगढ़ में महल के ठीक सामने एक मस्जिद बनवायी थी जैसा कि अपनी पूजा के लिए जगदीश्वर मंदिर बनवाया था। यह ‘मस्जिद न जाने’ का ऐलान करने वाले और मुस्लिमों से जुड़े नाम बदलने का रिकॉर्ड बनाने वाले योगी आदित्यनाथ की समझ से बिल्कुल उलट नीति थी।
जो लोग औरंगज़ेब और शिवाजी की लड़ाई को हिंदू-मुस्लिम संघर्ष के रूप में पेश करते हैं और रात दिन ‘मुग़लों से बदला लेने’ के लिए हिंदुओं को ललकारते रहते हैं, उन्हें औरंगज़ेब को लिखा शिवाजी का पत्र ज़रूर पढ़ना चाहिए जिसका ज़िक्र इस लेख के शुरुआत में है। शिवाजी ने इस पत्र में मुग़ल बादशाह अकबर की याद दिलाते हुए औरंगज़ेब को यह नसीहत दी थी-
“अकबर ने इस बड़े राज्य को 52 बरस तक ऐसी सावधानी और उत्तमता से चलाया कि सब फ़िरक़ों के लोगों ने सुख और आनंद पाया। क्या ईसाई, क्या भुसाई, क्या दाऊदी, क्या फ़लकिए, क्या नसीरिए, क्या दहरिए, क्या ब्राह्मण, क्या सेवड़े, सब पर उनकी समान कृपादृष्टि रहती थी। इसी प्रभाव के कारण वे (अकबर) जिधर देखते थे, फ़तेह उनके सामने आकर खड़ी हो जाती थी। ...उनकी यही नीतियाँ आगे चलकर बादशाह जहांगीर और शाहजहाँ ने जारी रखीं। उनकी इस नीति के कारण उन्हें विश्वव्यापी प्रसिद्धि मिली। वे बादशाह सहज ही धार्मिक कर वसूल सकते थे, परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। परिणामस्वरूप उन्हें अकूत नेकनामी और पैसा मिला। उनके राज्य का विस्तार होता रहा। परंतु इस शासन में हिंदू मान सिपाही दुखी हैं। अनाज के दाम बढ़ गए हैं। ऐसी परिस्थिति में ग़रीब ब्राह्मण, जोगी, बैरागी, जैन साधु और संन्यासियों से धार्मिक कर वसूलना मानवता नहीं है। इससे मुग़ल वंश के नाम पर बट्टा लगेगा।”
ग़ौर कीजिए शिवाजी अपने पत्र में मुग़ल सम्राट अकबर को ‘जगद्गुरु’ बता रहे हैं। ‘सुलह-कुल’ की नीति की याद दिला रहे हैं। हिंदू और मुस्लिम, दोनों धर्मों के सिपाहियों की तकलीफ़ बयान कर रहे हैं। मुग़लों की शान की याद दिला रहे हैं। जबकि योगी आदित्यनाथ को ‘मुग़ल’ शब्द से ही नफ़रत है जिसका इज़हार वे अपने भाषणों में किया करते हैं। वे ‘सुलह-कुल’ नहीं ‘नफ़रत-कुल’ के सिद्धांतकार हैं। अब महाराष्ट्र को तय करना है कि वह शिवाजी की परंपरा का झंडा उठाता है या फिर उनकी विरासत को अपमानित करने वालों का।