अमेरिका जल्दी से जल्दी अफ़ग़ानिस्तान से निकलने की कोशिश में है। आधिकारिक वार्ताकारों ने तालिबान के साथ उसके समझौते की आख़िरी पंक्तियाँ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प को सौंप दी हैं। अमेरिका और नाटो के क़रीब 31 हज़ार फ़ौजी अभी भी अफ़ग़ानिस्तान में हैं। चौदह हज़ार अमेरिकी और सत्रह हज़ार अन्य नाटो के सदस्य व अन्य देशों के।चारों तरफ़ से ज़मीनी सीमाओं में बंद और ऐतिहासिक तौर पर अनवरत रक्तरंजित अफ़ग़ानिस्तान मध्य एशिया और मध्य पूर्व के बीच तेल की आवाजाही में बाधा की तरह फँसा पड़ा है। हालाँकि इस स्थिति को वरदान होना चाहिये था लेकिन अफ़ग़ानिस्तान इसकी वजह से अभिशप्त है। रूस और अमेरिका के बीच प्रभुत्व की लड़ाई का मैदान बन गये इस देश की कई पीढ़ियाँ इसकी क़ीमत चुका चुकी हैं।
इसके बावजूद कि तालिबान और अमेरिका के बीच दोहा में चल रही बातचीत के सारे संकेत शुभ हैं, अफ़ग़ानी समाज को रत्ती भर भी भरोसा नहीं है कि रक्तपात कभी ख़त्म भी होगा! और उसकी जायज़ वजह भी है। चंद दिनों पहले ही शिया हज़ारा समुदाय के एक विवाह समारोह में किये गये एक आत्मघाती हमले में क़रीब छ: दर्जन लोग मारे गये थे।
बीते अठारह बरसों में जबसे अमेरिका लगातार यहाँ है, अफ़ग़ानिस्तानी समाज में धार्मिक, जनजातीय और सांप्रदायिक विभाजन कई गुना बढ़ गया है। ख़ुद अमेरिकी मानते हैं कि जब वे अफ़ग़ानिस्तान में घुसे थे तब हालात बुरे थे पर अब तो इतने बुरे हैं कि लोग अठारह साल पहले के दिनों को सकारात्मक स्मृतियों में याद किया करते हैं।
इन अठारह बरसों में जो सरकारें यहाँ बनीं/ बनवाई गईं उनके भ्रष्टाचार के क़िस्सों से हर अफ़ग़ानी अटा पड़ा है। यह उन तमाम वजहों में से सबसे प्रमुख वजह है जो तालिबान को लगातार अमेरिकी और नाटो फ़ौज के लिये चुनौती खड़ी करने में मदद करती रही।
अफ़ग़ानिस्तान के नागरिकों को अमेरिका की युगोस्लाविया, ईराक़, लीबिया आदि में प्रयुक्त भूमिका का पता है जो तबाह हो गये, इसलिये कुछ लोग चाहते हैं कि अमेरिका जाये लेकिन तमाम लोग यह भी चाहते हैं कि वह न जाये।दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच क़रीब आठ राउंड बातचीत अब तक हो चुकी है। जो सहमति बनी है/चाही गई है उसके अनुसार अपने कंट्रोल के क्षेत्र में तालिबान आईएसआईएस और अल-क़ायदा को शरण नहीं देगा। और दूसरी शर्त यह है कि तालिबान दूसरे अफ़ग़ान गुटों से बातचीत करके मसले हल करेगा! लेकिन इस शर्त में एक बड़ा पेंच है, तालिबान अशरफ़ गनी के नेतृत्व वाली मौजूदा काबुल सरकार को अमेरिकी पिट्ठू बताते रहे हैं और अफ़ग़ानिस्तान में हुए हर आम चुनाव को फ़ेल करने में लगे रहे हैं! तो अमेरिकी सैनिकों के चले जाने के बाद तालिबान अशरफ़ गनी की सरकार से बातचीत करेंगे या उस पर चढ़ाई कर देंगे, इसे देखा जाना बाक़ी है।
फ़िलहाल अब तक हुई बातचीत के मिनट्स ट्रम्प के हाथ में हैं जो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान से हाल ही में उनकी अमेरिकी यात्रा के दौरान इस डील में सहयोग का वादा ले चुके हैं।
अफ़ग़ानिस्तान में 28 सितंबर को चुनाव होने हैं। तालिबान और पाकिस्तान का रवैया इसी में साफ़ हो जायेगा! ट्रम्प प्रशासन के एक प्रमुख राजनयिक जो कि इस मामले में तालिबान से बातचीत में शामिल हैं बहुत उत्साहित हैं। जबकि अमेरिकी सरकार के विशेष प्रतिनिधि जालमय खालीजाद ने कई ट्वीट कर ट्रम्प कैंप की क़वायद को डेस्परेट और मैदान छोड़ के भागने की जल्दबाज़ी वाला प्रयास बताया। हालाँकि यह भी सच है कि अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान में फँसा छोड़ देने की विरासत ट्रम्प को ओबामा से मिली जो अपने कार्यकाल में इसका हल नहीं ढूँढ पाये थे।
ट्रम्प और तालिबान के समझौते के लगभग फ़ाइनल हो जाने के बावजूद अफ़ग़ानिस्तान में अशांति बने रहने के कारकों में आईएस/अल क़ायदा और सीआईए की छद्म सेनाओं की उपस्थिति है।
सीआईए की ज़िम्मेदारी है कि वह दुनिया भर में अमेरिका को ख़तरे में डाल सकने वाले संभावित कारकों की जानकारी रखे और जब तक प्रत्यक्ष रूप से सेना न उतारी जाए तब तक उनसे निपटे/उनको निपटाये। सीआईए लंबे समय से सारे लातीनी अमेरिका में और लगभग आधी सदी से अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान में यही काम कर रहा है।
खोस्त प्रोटेक्शन फ़ोर्स नाम के एक खुले मिलीशिया संगठन के अलावा अफ़ीम तस्करों और कई क्षेत्रीय ट्राइबल समूहों की दर्जनों मिलीशिया सीआईए नियंत्रित मानी जाती हैं। चिन्हित लोगों को ग़ायब करने और आतंकी गुटों में अपने एजेंट घुसाने के लिये इनका प्रयोग होता है। ट्रम्प तो बाहर निकल आयेंगे पर सीआईए को तो वहाँ रहना ही है और वह भी तब, जब आईएस वहाँ पुन: सिर उठा रहा हो और अल क़ायदा भी मौजूद हो!
अफ़ग़ानिस्तान के नये बदलावों के चलते भारत एक अजीब मुश्किल में पड़ गया है, लगभग वैसी ही जैसी 1989 में थी, जब सोवियत सेना अफ़ग़ानिस्तान छोड़कर वापस लौट गई थी। दरअसल, अफ़ग़ानिस्तान भारत और पाकिस्तान के बीच लगातार चलने वाले संघर्ष का भी मैदान है। दोनों देश काबुल में अपनी पसंद की सरकार चाहते हैं।
पाकिस्तान ने बहुत लंबे समय से तालिबान पर दाँव खेल रखा है तो भारत वहाँ सारे ग़ैर पश्तून संगठनों से अपने रिश्ते बनाए हुए है और पश्तून आबादी से भी रिश्ते बनाने की कोशिश करता रहता है। भारत पड़ोसी देशों में अफ़ग़ानिस्तान का सबसे बड़ा आर्थिक सहयोगी है।
हामिद करज़ई के समय से भारत ने डूरंड लाइन के आस-पास पश्तून इलाक़ों में तमाम विकास कार्य किए हैं। साथ ही भारत लगातार अफ़ग़ानिस्तान की सेना को प्रति वर्ष क़रीब एक हज़ार अफ़सरों की ट्रेनिंग और हेलीकाप्टर्स व अन्य मिलिट्री वेहिकल्स की सप्लाई करता है।
भारत ने वहाँ तमाम अस्पतालों और क़रीब दो सौ स्कूलों में पैसा लगाया है। क़रीब सोलह हज़ार अफ़ग़ानी बच्चे भारत में पढ़ रहे हैं। लेकिन यह सब कुछ मिलकर भी तालिबान पर पाकिस्तानी पकड़ का जवाब नहीं बन पाया है जो भारत पर बलोचिस्तान में विद्रोह के प्रायोजन का आरोप लगातार लगाता रहता है। हालाँकि अफ़ग़ानिस्तान की बहुमत आबादी भारत को किसी भी दूसरे देश से कहीं ज़्यादा भरोसेमंद मित्र देश मानती है।
कुल मिलाकर अगले बरस अमेरिकी चुनाव में जीतने के लिये ट्रम्प ने अफ़ग़ानिस्तान से फ़ौजें वापस बुलाने का जो जुआ खेला है, उससे सिवाय उनके कि जिनको परास्त करने अमेरिका काबुल आया था किसी को लाभ होता नहीं दिख रहा! देखना यह होगा कि क्या इससे ट्रम्प को भी चुनाव में फ़ायदा मिलेगा या नहीं