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कंगाल मुल्कों के बाशिंदे भी भारतीयों के मुकाबले ज्यादा खुशहाल क्यों?

कंगाल मुल्कों के बाशिंदे भी भारतीयों के मुकाबले ज्यादा खुशहाल क्यों?

'वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट’ यानी 'वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक-2022’ में भारत को इस बार 136वां स्थान मिला है। 146 देशों में भारत का स्थान इतने नीचे है, जितना अफ्रीका के कुछ बेहद पिछड़े देशों का है।

भारत सरकार भले ही दावा करे कि आर्थिक तरक्की के मामले में पूरी दुनिया में भारत का डंका बज रहा है, लेकिन हकीकत यह है कि वैश्विक आर्थिक मामलों के तमाम अध्ययन संस्थान भारत की आर्थिक स्थिति का शोकगीत गा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी यूएनडीपी ने तमाम आंकड़ों के आधार पर बताया है कि है भारत टिकाऊ विकास के मामले में दुनिया के 190 देशों में 117वें स्थान पर है। 

अमेरिका और जर्मनी की एजेंसियों ने जानकारी दी है कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स में दुनिया के 116 देशों में भारत 101 वें स्थान पर है और अब संयुक्त राष्ट्र की 'वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट’ भी आ गई है, जिसमें दुनिया के सबसे खुशहाल देशों की सूची में भारत का मुकाम दुनिया के तमाम विकसित और विकासशील देशों से ही नहीं बल्कि पाकिस्तान समेत सभी छोटे-छोटे पड़ोसी देशों और युद्धग्रस्त फिलिस्तीन से भी पीछे है। 

'वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट’ यानी 'वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक-2022’ में भारत को इस बार 136वां स्थान मिला है। 146 देशों में भारत का स्थान इतने नीचे है, जितना अफ्रीका के कुछ बेहद पिछड़े देशों का है।

कुछ समय पहले जारी हुई पेंशन सिस्टम की वैश्विक रेटिंग में भी दुनिया के 43 देशों में भारत का पेंशन सिस्टम 40वें स्थान पर आया है। उम्रदराज होती आबादी के लिए पेंशन सिस्टम सबसे जरूरी होता है ताकि उसकी सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। भारत इस पैमाने पर सबसे नीचे के चार देशों में शामिल है। पासपोर्ट रैंकिंग में भी भारत 84वें स्थान से फिसल कर 90वें स्थान पर पहुंच गया है। यह स्थिति भी देश की अर्थव्यवस्था के पूरी तरह खोखली हो जाने की गवाही देती है। 

वैश्विक स्तर पर भारत की साख सिर्फ आर्थिक मामलों में ही नहीं गिर रही है, बल्कि लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आजादी, मानवाधिकार और मीडिया की आजादी में भी भारत की अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग इस साल पहले से बहुत नीचे आ गई है। ऐसे में खुशहाली के मामले में भारत की स्थिति में गिरावट दर्ज होना स्वाभाविक ही है। 

'वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट’ संयुक्त राष्ट्र का एक संस्थान 'सस्टेनेबल डेवलपमेंट सॉल्यूशन नेटवर्क’ (एसडीएसएन) हर साल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सर्वे करके जारी करता है। इसमें अर्थशास्त्रियों की एक टीम समाज में सुशासन, प्रति व्यक्ति आय, स्वास्थ्य, जीवित रहने की उम्र, दीर्घ जीवन की प्रत्याशा, सामाजिक सहयोग, स्वतंत्रता, उदारता आदि पैमानों पर दुनिया के सारे देशों के नागरिकों के इस अहसास को नापती है कि वे कितने खुश हैं।

इस साल जो 'वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट’ जारी हुई है, उसके मुताबिक भारत की स्थिति खुद में चौंकाने वाली नहीं है। लेकिन यह गुत्थी भी कम दिलचस्प नहीं है कि 127वें स्थान पर श्रीलंका, 126वें स्थान पर म्यांमार 121वें स्थान पर पाकिस्तान, 94वें स्थान पर बांग्लादेश और 84वें स्थान पर नेपाल जैसे देश भी इस रिपोर्ट में आखिर हमसे ऊपर क्यों हैं, जिन्हें हम स्थायी तौर पर आपदाग्रस्त देशों में ही गिनते हैं। हमारे अन्य पड़ोसी देश मालदीव और भूटान भी हमसे ज्यादा खुशहाल हैं। 

खुशहाल देशों के साथ ही सर्वाधिक नाखुश देशों की सूची भी जारी हुई है, जिसमें अफगानिस्तान शीर्ष पर है और भारत 11वें नंबर पर।

दिलचस्प बात है कि नौ साल पहले यानी 2013 की रिपोर्ट में भारत 111वें नंबर पर था। तब से अब तक हमारे शेयर बाजार तो लगभग लगातार बढ़त पर ही रहे हैं। फिर भी इस दौरान हमारी खुशी का स्तर नीचे खिसक आने की वजह क्या हो सकती है? दरअसल, यह रिपोर्ट इस हकीकत को भी साफ तौर पर रेखांकित करती है कि केवल आर्थिक समृद्धि ही किसी समाज में खुशहाली नहीं ला सकती। इसलिये आर्थिक समृद्धि के प्रतीक माने जाने वाले अमेरिका (16), ब्रिटेन (17), और संयुक्त अरब अमीरात (24) भी दुनिया के सबसे खुशहाल 10 देशों में अपनी जगह नहीं बना पाए हैं। 

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अगर इस रिपोर्ट को तैयार करने के तरीकों और पैमानों पर सवाल खड़े किए जाएं, तब भी कुछ सोचने का मसाला तो इस रिपोर्ट से मिलता ही है। किसी भी देश की तरक्की को मापने का सबसे प्रचलित पैमाना जीडीपी या विकास दर है। लेकिन इसे लेकर कई सवाल उठते रहे है। एक तो यह कि जीडीपी किसी देश की कुल अर्थव्यवस्था की गति को तो सूचित करती है, पर इससे यह पता नहीं चलता कि आम लोगों तक उसका लाभ पहुंच रहा है या नहीं। दूसरे, जीडीपी का पैमाना केवल उत्पादन-वृद्धि के लिहाज से ही किसी देश की तस्वीर पेश करता है। 

फिनलैंड लगातार शीर्ष पर 

ताजा हैपिनेस रिपोर्ट में फिनलैंड दुनिया का सबसे खुशहाल मुल्क है। वह लगातार पांचवें साल शीर्ष पर बना हुआ है। उससे पहले वह पांचवें स्थान पर था लेकिन एक साल में ही वह पांचवें से पहले स्थान पर आ गया। फिनलैंड को दुनिया में सबसे स्थिर, सबसे सुरक्षित और सबसे सुशासन वाले देश का दर्ज़ा दिया गया है। वह कम से कम भ्रष्ट है और सामाजिक तौर पर प्रगतिशील है। उसकी पुलिस दुनिया मे सबसे ज्यादा साफ-सुथरी और भरोसेमंद है। वहां हर नागरिक को मुफ्त इलाज की सुविधा प्राप्त है, जो देश के लोगों की खुशहाली की बड़ी वजह है।

वर्ष 2022 की रिपोर्ट में सबसे खुशहाल मुल्कों में फिनलैंड के बाद क्रमश: डेनमार्क, आइसलैंड, स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड, लक्जमबर्ग, स्वीडन, नॉर्वे, इजरायल और न्यूजीलैंड है। इन सभी देशों में प्रति व्यक्ति आय काफी ज्यादा है। यानी भौतिक समृद्धि, आर्थिक सुरक्षा और व्यक्ति की प्रसन्नता का सीधा रिश्ता है।

इन देशों में भ्रष्टाचार भी कम है और सरकार की ओर से सामाजिक सुरक्षा काफी है। लोगों पर आर्थिक सुरक्षा का दबाव कम है, इसलिए जीवन के फैसले करने की आजादी भी ज्यादा है। जबकि भारत की स्थिति इन सभी पैमानों पर बहुत अच्छी नहीं है। यहां तक कि हम पाकिस्तान, बांग्लादेश और फिलिस्तीन से भी बदतर स्थिति में है, यह बात हैरान करने वाली है।

लेकिन इस हकीकत की वजह शायद यह है कि भारत में विकल्प तो बहुतायत में हैं, लेकिन सभी लोगों की उन तक पहुंच नहीं है, जिसकी वजह से लोगों में असंतोष है। इस स्थिति के बरक्स कई देशों में जो सीमित विकल्प उपलब्ध हैं, उनके बारे में भी लोगों को ठीक से जानकारी ही नहीं है, इसलिए वे अपने सीमित दायरे में ही खुश और संतुष्ट हैं। फिर भारत में तो जितनी आर्थिक असमानता है, वह भी लोगों में असंतोष या मायूसी पैदा करती है। 

यह बात जरूर गौरतलब है कि कई बड़े देशों की तरह हमारे देश के नीति-नियामक भी आज तक इस हकीकत को गले नहीं उतार पाए हैं कि देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) या विकास दर बढ़ा लेने भर से हम एक खुशहाल समाज नहीं बन जाएंगे।

दरअसल किसी देश की समृद्धि तब मायने रखती है, जब वह नागरिकों के स्तर पर हो। भारत और चीन का जोर अपने आम लोगों की खुशहाली के बजाय राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ाने पर रहता है। इसलिए आश्चर्य की बात नहीं कि लंबे समय से जीडीपी के लिहाज से दुनिया में अव्वल रहने के बावजूद चीन 'वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट’ में अभी भी 72वें स्थान पर है।

भारतीय आर्थिक दर्शन और जीवन पद्धति के सर्वथा प्रतिकूल 'पूंजी ही जीवन का अभीष्ट है' के अमूर्त दर्शन पर आधारित नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों और वैश्वीकरण से प्रेरित बाजारवाद के आगमन के बाद समाज में बचपन से अच्छे नंबर लाने, कॅरिअर बनाने, पैसे कमाने और सुविधाएं-संसाधन जुटाने की एक होड़ शुरु हो गई है। इसमें जो पिछड़ता है वह निराशा और अवसाद का शिकार हो जाता है, लेकिन जो सफल होता है वह भी अपनी मानसिक शांति गंवा बैठता है।एकल और डिजाइनर परिवारों के चलन ने लोगों को बड़े-बुजुर्गों के सानिध्य की उस शीतल छाया से भी वंचित कर दिया है जो अपने अनुभव की रोशनी से यह बता सकती थी कि जिंदगी का मतलब सिर्फ 'सफल’ होना नहीं, बल्कि समभाव से उसे जीना है। जाहिर है, इसी का दुष्प्रभाव बढ़ती आत्महत्याओं, नशाखोरी, घरेलू कलह, रोडरेज और अन्य आपराधिक घटनाओं में बढ़ोतरी के रूप में दिख रहा है।

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दरअसल, विकास और बाजारवाद की वैश्विक आंधी ने कई मान्यताओं और मिथकों को तोड़ा है। कुछ समय पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन की आई एक अध्ययन रिपोर्ट में भी बताया गया था कि भारत दुनिया में सर्वाधिक अवसादग्रस्त लोगों का देश है, जहां हर तीसरा-चौथा व्यक्ति अवसाद के रोग से पीड़ित है। यह तथ्य भी इस मिथक की कलई उतारता है कि विकास ही खुशहाली का वाहक है।अध्ययन में दुख, निराशा, अरूचि, अनिद्रा आदि अवसाद के जो मानक बनाए गए थे, उनके आधार पर हमारे देश को स्वाभाविक रूप से सर्वाधिक अवसादग्रस्त कहा जा सकता है, क्योंकि हमारे यहां व्यवस्था के जितने भी प्रमुख अंग है चाहे वह राजनीतिक नेतृत्व हो, कार्यपालिका हो, न्यायपालिका हो, पुलिस हो, सभी से आम आदमी को निराशा-हताशा ही हाथ लगी है। 

देश के प्राकृतिक संसाधनों पर मुट्‌ठीभर लोगों के कब्जे के चलते भी देश में आर्थिक और सामाजिक विषमता को बढ़ावा मिला है। लोकविमुख विकास की सरकारी नीतियों के चलते देशभर में व्यापक पैमाने पर लोगों का विस्थापन हुआ है। उनका यह विस्थापन महज अपने घर जमीन से ही नहीं, बल्कि अपनी सामाजिकता और संस्कृति से भी हुआ है जिसने उनमें दुख और नैराश्य भर दिया है। 

कुल मिलाकर संयुक्त राष्ट्र की 'हैपिनेस रिपोर्ट’ में भारत की साल दर साल गिरती स्थिति और विश्व स्वास्थ्य संगठन का भारत को सर्वाधिक अवसादग्रस्त देश बताने वाला सर्वे इसी हकीकत की ओर इशारा करता है कि विपन्नता और बदहाली के महासागर में समृद्धि के चंद टापू खड़े हो जाने से पूरा महासागर समृद्ध नहीं हो जाता।

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