चीनी घुसपैठ: पहाड़ जैसी चुनौती है लद्दाख की पहाड़ियों पर सेना की तैनाती
पूर्वी लद्दाख के सीमांत भारतीय इलाक़ों में चीनी सेना द्वारा घुसपैठ कर अड्डा जमाए हुए साढ़े तीन महीने से अधिक हो चुके हैं और अबतक के संकेत यही हैं कि चीन भारत से कोई बीच का रास्ता तलाश कर समझौता कर लेने पर अड़ा हुआ है। इसका मतलब है कि चीनी सेना कुछ इलाक़ों में तो यथास्थिति बहाल कर देगी लेकिन देपसांग, पैंगोंग त्सो झील के भारतीय इलाक़े पर अपना क़ब्ज़ा नहीं छोड़ेगी।
गुरुवार को दोनों देशों के विदेश मंत्रालयों के संयुक्त सचिव स्तर की वर्किंग मैकेनिज़्म (डब्ल्यूएमसीसी) की चौथे दौर की बातचीत में चीन अपने सैनिकों को पाँच मई से पहले की यथास्थिति बहाल करने पर सहमति देगा, इसकी उम्मीद कम ही है।
चीनी सेना के इस अड़ियल रुख की वजह यह है कि उसे पता है कि भारतीय सेना उसे पीछे धकेलने के लिये कोई सैनिक कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं कर सकती। ख़ुद भारतीय सेना ने इस आशय के संकेत दिये हैं जिससे चीनी सेना का मनोबल और बढ़ गया है। भारतीय सेना ने सार्वजनिक तौर पर कहा है कि चीनी सेना को पीछे हटने के लिये मजबूर करने के लिये लम्बा वक़्त लगेगा। यानी चीनी सेना पर दबाव बनाने के लिये भारतीय सेना को वास्तविक नियंत्रण रेखा के भारतीय इलाक़े के पीछे के हिस्से में दो डिवीज़न यानी क़रीब 35 से 40 हज़ार जवानों को कई महीनों या सालों के लिए तब तक तैनात रखना होगा जबतक कि चीनी सेना पीछे नहीं चली जाती।
लेकिन सामरिक हलकों में चीन पर सैन्य दबाव बनाने की इस रणनीति की कामयाबी पर शक जाहिर किये जा रहे हैं। सैन्य पर्यवेक्षकों का कहना है कि चीनी सेना को इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि भारत वास्तविक नियंत्रण रेखा के भीतर के भारतीय इलाक़े में दो डिवीजन सेना तैनात करेगा। वास्तव में चीनी सेना को इस वजह से भारतीय सेना को होने वाली दिक्कतों को देख कर ख़ुशी ही होगी कि भारतीय सेना अपने सैन्य और मानव संसाधन को पहाड़ी इलाक़ों पर तैनात रखने में कितनी परेशानी उठाएगी और इस पर सैकड़ों करोड़ रुपये रोज़ का ख़र्च करेगी।
पूर्वी लद्दाख के पहाड़ी इलाक़े पूरी तरह बंज़र हैं और वहाँ ऊँची-नीची संकरी पहाड़ियाँ हैं जहाँ तीसों हज़ार सैनिकों को उनके सैनिक साज सामान के साथ शून्य से 20-40 डिग्री नीचे तापमान में तैनात रखना एक पहाड़ जैसी चुनौती ही होगा।
इस चुनौती के अनुरूप अपने को तैयार करने के लिये थलसेना आपात तैयारी और ख़रीद कर रही है जिनमें सियाचिन ग्लेशियर पर रहने वाले सैनिकों को दिये जाने वाले परिधान मुहैया कराना शामिल है। सियाचिन पर क़रीब तीन हज़ार भारतीय सैनिकों को तैनात रखने का भारतीय सेना का क़रीब चार दशकों का लम्बा अनुभव हासिल हो चुका है लेकिन पूर्वी लद्दाख की बंज़र बर्फीली पहाड़ियों पर इससे दस गुना अधिक सैनिकों को कुछ दिनों के भीतर ही तैनात कर देना और वहाँ उनकी रोज़मर्रा की ज़रूरतों को मुहैया कराना एक अभूतपूर्व चुनौती भारतीय सेना के सामने पेश हुई है।
सैन्य सूत्रों का कहना है कि वहाँ सैन्य तैनाती की सियाचिन जैसी व्यवस्था करने पर ही यदि भारतीय सेना का ध्यान बँटेगा तो उनका इस दौरान समाघात तैयारी से ध्यान हटेगा। इससे चीनी सेना के मंसूबे पूरे होंगे। चीनी सेना को पता है कि भारतीय सेना उसे पीछे धकेलने के लिये कोई सीधी कार्रवाई नहीं करने वाली। यह तो भारतीय सेना है जिसे हमेशा इस बात का डर रहेगा कि वास्तविक नियंत्रण रेखा के पीछे के इलाक़ों को अरक्षित छोड़ा तो चीनी सेना उन पर अपने क़दम बढ़ा कर क़ब्ज़ा कर लेगी। इसलिये भारतीय सेना को वहाँ हमेशा चौकस रहना होगा।
भारतीय राजनेताओं के लिये यह सार्वजनिक बयान देना आसान है कि भारतीय सेना चीन की चुनौती का मुक़ाबला करने के लिये वास्तविक नियंत्रण रेखा पर हमेशा मुस्तैद रहेगी लेकिन ज़मीनी हालात देखकर किसी के भी रोंगटे खड़े हो जाएँगे। वास्तविक नियंत्रण रेखा के इलाक़े में तैनात सैनिकों को खुले टेंटों में रखना सुरक्षा नज़रिये से ठीक नहीं होगा इसलिये उनके लिये कंक्रीट के बंकर बनाने होंगे। यह सब अक्टूबर तक यानी बर्फ गिरना शुरू होने के पहले से ही पूरा कर लेना होगा।
सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि महीनों तक वहाँ हज़ारों भारतीय सैनिकों को टिकाने के लिये किस तरह की रिहायशी व्यवस्था की जाए।
बर्फीले मौसम में वहाँ ख़ास तरह के टेंट तो देने ही होंगे वहाँ एक साथ हज़ारों सैनिकों के नहाने–धोने और शौच की कैसी व्यवस्था होगी। उन्हें डिब्बाबंद भोजन तो सप्लाई हो सकता है लेकिन दूध की चाय पीने के आदी भारतीय सैनिकों को चाय नाश्ता और पेयजल का किस तरह इंतज़ाम करना होगा। हालाँकि पूर्वी लद्दाख के इलाक़ों में कई नदियाँ हैं लेकिन वहाँ से पानी निकालकर सैन्य तैनाती के स्थानों तक पहुँचाना और उनका भंडारण एक बड़ी समस्या दिख रही है। इस इलाक़े में एक ऐसा बड़ा इलाक़ा खोजना मुश्किल दिख रहा है जहाँ हज़ारों भारतीय सैनिकों को तैनात रख कर उनके रहने के लिये ढाँचागत निर्माण किये जाएँ।
सियाचिन की चौकियों पर तो एक साथ केवल दो तीन दर्जन सैनिक होते हैं और बेस कैम्प पर उनके लिये बनाई गई रोज़मर्रा की सामग्री सैन्य चौकियों पर हेलिकॉप्टरों से पहुँचाई जाती है। इन हेलिकॉप्टरों की एक उड़ान पर ही चालीस-पचास हज़ार रुपये का इंधन ख़र्च हो जाता है। लेकिन पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चोटियों की चौकसी के लिये तैनात एक साथ हज़ारों भारतीय सैनिकों को इन सब की नियमित सप्लाई कैसे होगी। वहाँ सैनिकों को तैनात रखने की भारी चुनौती से भी बड़ी चुनौती उनके लिए इस्तेमाल की जाने वाली तोपें, मशीनगनों, असाल्ट राइफ़लों, टैंकों, बख्तरबंद वाहनों आदि का रखरखाव होगा। इन हथियारों को भी विशेष क़िस्म के कैनवास में ढँक कर रखना होगा ताकि बर्फीले माहौल में वे काम करना बंद नहीं कर दें।
एक सवाल यह भी पैदा हो रहा है कि इन हथियारों का नियमित संचालन कैसे करेंगे ताकि उन्हें सक्रिय रखा जा सके। इसके लिये उन्हें ट्रेनिंग का खुला इलाक़ा चाहिये जो लद्दाख के पहाड़ी इलाक़ों पर खोजना मुश्किल है। केवल सैनिक ही नहीं, बल्कि उनके हथियारों को भी उनसे बेहतर तरीक़े से सहेज कर रखने का भारी इंतज़ाम करना होगा तभी वे दुश्मन को इनके समुचित इस्तेमाल का खौफ पैदा कर सकते हैं।