जैसे 2014 कोई मामूली साल नहीं था, वैसे ही 2019 कोई मामूली साल नहीं है। देश के इतिहास में उन्नीस बहुत ही ख़ास साल होने जा रहा है!
वैसे चौदह भी बड़ा ख़ास साल था। बहुत-से लोगों को चौदह के आने का इंतज़ार था। अब बहुत-से लोग धड़कते दिलों से उन्नीस पर आस लगाए हैं।
चौदह बदलाव के सपनों, उम्मीदों और सब्ज़बाग़ों का साल था। चौदह से सबसे बड़ी उम्मीद थी कि यह देश की क़िस्मत बदल देगा। लेकिन अब साढ़े चार साल बाद हम निस्संकोच यह कह सकते हैं कि 'लव जिहाद' और गोरक्षा से लेकर 'मॉब लिंचिंग' तक देश तो बहुत बदल गया, लेकिन क़िस्मत नहीं बदली!
क़िस्मत अगर बदलेगी तो यक़ीनन उन्नीस में ही बदलेगी। इसलिए दिल थाम कर बैठिए क्योंकि उन्नीस ही तय करेगा कि देश किस दिशा में जाएगा? देश अपने नये-नवेले भगवा प्रयोग को आगे बढ़ा कर हिन्दू राष्ट्र बनने की तरफ़ बढ़ेगा या अपने पुराने रास्ते लौटना पसंद करेगा? धारा आगे बढ़ेगी या लौट जाएगी?
विचारधाराओं की जंग पर फ़ैसला
उन्नीस पर बहुत-से लोगों का भविष्य टिका है, रणनीतियों के समीकरण टिके हैं, दो विचारधाराओं की जंग का निष्कर्ष टिका है।
नरेन्द्र मोदी, राहुल गाँधी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, सेकुलरिज़्म का क्या होगा, यह उन्नीस तय कर देगा। गोदी मीडिया का क्या होगा? क्षेत्रीय दलों में कौन बचेगा, कौन-से नेता बचेंगे, इसकी कहानी भी उन्नीस लिख कर जाएगा।
2014 में संघ ने बड़ा जोखिम उठाया था। जोखिम इस बात का नहीं था कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी चुनाव जीत पाएगी या नहीं। मोदी एक ऐसा चेहरा था, जो विकास पुरुष भी था और हिन्दू हृदय सम्राट भी। ऐसा मारक कम्बिनेशन संघ को कभी मिला नहीं। गुजरात की प्रयोगशाला में वह हिंदुत्व और विकास को घोट-घाट कर एक अद्भुत रसायन की माया सफलतापूर्वक रच ही चुके थे। देश के युवाओं, मध्यम वर्ग को और ग़रीबों को रातोंरात विकास चाहिए था और संघ को अगले तीस सालों में हिंदू राष्ट्र।
संघ की आशंकाएँ सही
मोदी इन दोनों सपनों के खाँचों में फ़िट थे। इसलिए चौदह के लिए संघ के पास मोदी के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। जोखिम एक ही था। मोदी जैसे थे, वैसे ही रहेंगे या प्रधानमंत्री बनने के बाद ख़ुद को बदलेंगे!
संघ की आशंकाएँ सही साबित हुईं। मोदी जैसे थे, वैसे ही बने रहे।
तो अब साढ़े चार साल के जमा-ख़र्च के बाद संघ के खाते में क्या आया? मोदी प्रधानमंत्री हैं, लेकिन आगे? चौदह के बाद शुरू में बीजेपी देश में तेज़ी से आगे बढ़ी, लेकिन अब रेत-घड़ी ख़ाली होती जा रही है। विकास हुआ नहीं, सब्ज़बाग़ सूख गए।
और आपने नोटिस किया हो शायद, मोदी अब हिन्दू हृदय सम्राट भी नहीं प्रोजेक्ट किए जा रहे हैं। इस आसन पर योगी आदित्यनाथ लगभग बैठ ही चुके हैं। तो चौदह की तरह मोदी के ज़रिये 'राग विकास' पर हिंदुत्व की बीन बज नहीं सकती।
मोदी के भक्तों के पास मार्केटिंग के लिए अब बस एक छवि बची है। 'बोल्ड' नेता की, जिसे डराया नहीं जा सकता, जो हिचकता नहीं, 'साहसिक निर्णय' ले सकता है। भक्त कहते हैं कि मोदी को समय दीजिए, वह कायाकल्प कर देंगे।
लेकिन लोग थोड़ा आशंकित हैं। मोदी जैसे थे, वह वैसे ही बने रहे, सो आगे भी वैसे ही बने रहेंगे, तो अगले पाँच साल भी पिछले पाँच साल की तरह बीते तो? दूसरी बार प्रधानमंत्री बन कर मोदी अगर कुछ और ज़्यादा 'साहसिक' हो गए तो?
संघ की निराशा
संघ कैसे भी 2019 के चुनाव को गँवाना नहीं चाहेगा। चुनाव हारने का मतलब संघ की अब तक की सारी मेहनत का मिट्टी में मिल जाना है। हिंदू राष्ट्र की दिशा में आगे बढ़ने का इससे अनुकूल मौक़ा संघ को मिल ही नहीं सकता था, जैसा उसे 2014 में मिला। संघ की सबसे बड़ी बाधा कांग्रेस तब पूरी तरह छितरा चुकी थी। क्षेत्रीय दलों में से कई का अवसान अगले कुछ सालों में हो जाने के हालात बन रहे थे। उसके बाद देश में जो रहता, संघ ही रहता। इसलिए मोदी सरकार के साढ़े चार सालों के ख़राब प्रदर्शन ने संघ के सारे किए-धरे पर पानी फेर दिया है। संघ के लिए यह बहुत निराशाजनक बात है।
हालाँकि ऐसा होने की फ़िलहाल कोई संभावना नहीं दीखती, लेकिन बस मानने के लिए मान लें कि उन्नीस में अगर बीजेपी पूर्ण बहुमत से वापस आ जाए, तो संघ मज़बूती से अपने लक्ष्य के इतना निकट पहुँच जाएगा कि उसे भविष्य में विस्थापित कर पाना असंभव ही होगा। ऐसे में केंद्र में दूसरी बार बहुमत की सरकार बनाने के बाद संघ को हिंदुत्व का एजेंडा काफ़ी बल से आगे बढ़ाना पड़ेगा। पिछले साढ़े चार सालों के मोदी राज में यह तो हुआ कि हर महत्त्वपूर्ण जगह पर संघ के लोग स्थापित कर दिए गए, लेकिन हिंदुत्व के एजेंडे पर मोदी सरकार ने खुल कर ख़ुद कोई ख़ास उत्साह कभी नहीं दिखाया। कह नहीं सकते कि यह संघ की कोई रणनीति थी या मोदी का अपना फ़ैसला? सवाल यह है कि मोदी अगर दुबारा प्रधानमंत्री बनते हैं, तो उनकी सरकार हिंदुत्व का एजेंडा कितना और कैसे आगे बढ़ाएगी?
संघ का अनिश्चित भविष्य
दूसरी संभावना यह है कि बीजेपी किसी तरह कम से कम 220-220 सीटों तक पहुँच जाए। तब संघ को कुछ ऐसे दलों को साथ लेने पर मजबूर होना पड़ सकता है, जो हिंदू राष्ट्र की उसकी अवधारणा से सहमत न हों। यह वाजपेयी काल की पुनरावृत्ति होगी और उसके बाद यह अनुमान लगा पाना मुश्किल होगा कि 2024 में कैसी स्थितियाँ रहेंगी। यानी तब एक अनिश्चित भविष्य संघ के सामने होगा।
तीसरी संभावना यह है कि बीजेपी सरकार न बना पाए। किसी के भी नेतृत्व में विपक्ष की सेकुलर सरकार बन जाए। अगर यह मज़बूत सरकार बनी और मज़बूती से चली तो सेकुलरवाद को नई ताक़त मिलेगी। मान लिया जाएगा कि हिन्दू राष्ट्र को देश ने 'रिजेक्ट' कर दिया। लेकिन अगर ढुलमुल सरकार बनी, जल्दी गिर गई, तो संघ और बीजेपी को फिर से नई संजीवनी मिल सकती है। 2019 यही फ़ैसला करेगा कि देश आगे कौन-सी राह पकड़ेगा, सेकुलरवाद की या हिन्दू राष्ट्र की? मोदी के सामने तीन चुनौतियाँ हैं।
इस साल मोदी के सामने पहली चुनौती है आम चुनाव जीतने की। जीत गए तो उसके बाद संघ को नाथने की। दूर ही सही, लेकिन आज राजनीतिक क्षितिज पर योगी आदित्यनाथ उभर रहे हैं। कहा जा रहा है कि योगी 2024 की संभावना हैं।
लेकिन राजनीति अकसर कैलेंडर से नहीं चलती। उधर गडकरी की सुरसुरी छोड़ी जा रही है, लगातार। क्यों? राजनीति में कुछ भी अनायास, अकारण नहीं घटता! मोदी बड़ी जीत नहीं दिला पाए, तो बीजेपी के अंदर से भी उन्हें चुनौती मिल सकती है।
राहुल की चुनौती
राहुल गाँधी के सितारों ने पिछले कुछ समय से चाल बदली है। लेकिन अब तक की सफलता उन्हें राज्यों में मिली है। जहाँ वोटर को मोदी या राहुल में से किसी एक को नहीं चुनना था। उन्नीस में वोटर के सामने सवाल होगा, मोदी या कोई और? इस 'कोई और' में बहुत-से लोग होंगे, राहुल, मायावती या कोई और! मोदी के लिए सबसे बड़ा एडवांटेज यही है और राहुल के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है कि क्या वह 'ब्राँड मोदी' को पूरी तरह ख़ारिज करा पाएँगे, ख़ास कर तब जबकि विपक्ष में तमाम छोटे-बड़े दल राहुल को ही ख़ारिज करने पर तुले हुए हैं। राहुल अगर विपक्ष का कोई प्रभावी गठबंधन नहीं बना पाए, लोकसभा चुनाव में काँग्रेस को तीन अंकों का आँकड़ा नहीं दिला पाए, तो भविष्य की राजनीति में वह कहाँ होंगे, कह नहीं सकते।
'करो या मरो' का साल
2019 मायावती के लिए भी 'करो या मरो' का साल है, क्योंकि दलितों में नया युवा नेतृत्व उभर रहा है जो अगले कुछ सालों में मायावती को कड़ी चुनौती दे सकता है। इसीलिए मायावती भी उन्नीस में बड़ी संभावना देख रही हैं और प्रधानमंत्री बनने का दावा उन्होंने उछाल दिया है। देश को पहला दलित प्रधानमंत्री मिलना चाहिए, यह एक आकर्षक नारा है और अगर इस लायक़ सीटें आ गईं तो विपक्ष में भला कौन इस पेशकश का विरोध करने का साहस कर सकता है? बुआ-भतीजा ने यक़ीनन एक विकट चक्रव्यूह रचा है। इसे भेदने के लिए राहुल को कोई 'ब्रह्मास्त्र' चाहिए। लेकिन वह है क्या उनके पास?
तमिलनाडु में एआईएडीएमके, उड़ीसा में नवीन पटनायक और उनका बीजू जनता दल और बिहार में नीतीश कुमार और जदयू का 2024 आते-आते क्या भविष्य होगा, इसके भी कुछ संकेत उन्नीस में मिल ही जाएँगे।
और हाँ, एक सवाल तो रह ही गया। गोदी मीडिया का सवाल। मोदी जी ने दिखा और सिखा दिया है कि मीडिया को भीगी बिल्ली कितनी आसानी से बनाया जा सकता है। अब आनेवाली सरकारें इस फ़ार्मूले को क्यों नहीं अपनाना चाहेंगी? इसलिए गोदी मीडिया को 'न्यू नॉर्मल' मान ही लीजिए, तो अच्छा है!