चुनाव नतीजों के संबंध में फैली अनिश्चितताओं के बीच एक बात तय है कि असम की राजनीति में ये चुनाव एक टर्निंग पॉइंट साबित होंगे। ये चुनाव एक तरह से असम की भावी राजनीति को परिभाषित और निर्धारित भी करने वाले हो सकते हैं।
चुनाव नतीजे बताएंगे कि असम में हिंदुत्व की राजनीति का भविष्य क्या है और उसके बरक्स असमिया अस्मिता एवं संस्कृति की रक्षा के लिए की जाने वाली राजनीति का दौर ख़त्म हो गया है या फिर लौटेगा।
असमिया समाज अपनी भाषा और पहचान को लेकर बहुत सचेत रहा है। इसके लिए वह लगातार संघर्षरत भी रहा हैं। यही वज़ह है कि इस सवाल के जवाब का असमिया बुद्धिजीवी बहुत ही उद्विग्न्ता के साथ इंतज़ार कर रहे हैं।
संघ का एजेंडा
संघ परिवार का ये पुराना एजेंडा है। वह देश भर के ग़ैर अल्पसंख्यक समुदायों को अपनी छतरी में लाने की जुगत में लगा हुआ है। पूर्वोत्तर भारत में भी वह बरसों से इस अभियान में लगा हुआ था। यहाँ तक कि उस असम आन्दोलन में भी वह घुसपैठ कर चुका था, जिसे आसू के अधिकांश नेता सांप्रदायिकता से दूर रखने के लिए कटिबद्ध थे।
बाद में जब असम गण परिषद बनी तो उसमें भी संघ के प्रति रुझान रखने वाले कई नेता थे। यह ग़ौर करने वाली बात है कि असम बीजेपी के प्रमुख नेताओं में आसू और एजीपी का हिस्सा बहुत ज़्यादा है। असम में रहने वाले राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार के हिंदीभाषी शुरू से उसकी पालकी ढो रहे हैं और इस समय भी वे उसके अग्रिम दस्ते का हिस्सा हैं।
बहरहाल, सत्ता पर काबिज़ होने के बाद बीजेपी के लिए अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने का सुनहरा मौका मिल गया और वह उसका हर तरह से लाभ उठाने में लगी हुई है।
सत्ता पर सवार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पैठ असमिया समाज के हर हिस्से में हो चुकी है और उसने असमिया मानस पर प्रभाव हासिल कर लिया है।
हिन्दुत्व के रंग में असमिया समाज?
बीजेपी के राजनीतिक उभार से असमिया हिंदुओं में इन परिवर्तनों को बुद्धिजीवी देख रहे हैं। वे देख रहे हैं कि कैसे वे असमिया तौर-तरीकों को छोड़कर हिंदुत्व के रंग-ढंग अपना रहे हैं और उनके सोच-विचार में भी ढल रहे हैं। वे बीजेपी की सांप्रदायिक राजनीति के असर को अन्य क्षेत्रों में भी देख रहे हैं।
मसलन, बीजेपी नामघरों में घुसपैठ करके उन्हें भी परिवर्तित करने के एजेंडे पर काम रही है। असम साहित्य सभा एक प्रभावशाली संस्था है, मगर वह बीजेपी की तरफ झुकी हुई है।
मुसलमानों को अलग कर रहा असमिया समाज?
वे यह भी देख रहे हैं कि बीजेपी असमिया समाज के अभिन्न हिस्से रहे असमिया मुसलमानों को अलग करने के लिए तमाम तिकड़में कर रही है।
असमिया हिंदुओं का एक वर्ग तैयार हो गया है जो मुसलमानों से नफ़रत करता है और उनके प्रति हिंसा का भाव भी रखता है। यह बीजेपी की बड़ी सफलता है और असमिया संस्कृति की क्षति।
इन्हीं सब वज़हों से असमिया समाज का बौद्धिक नेतृत्व हिंदुत्व को एक बडे ख़तरे के तौर पर देख रहा है और मानता है कि बीजेपी का एक बार और सत्ता में आना असमिया संस्कृति के लिए विनाशकारी होगा।
यही चिंता थी जिसकी वजह से नागरिकता संशोधन कानून के ख़िलाफ़ असमिया संस्कृति की चिंता करने वाले तमाम लोग सड़कों पर निकल आए थे। इनमें बुद्धिजीवी ही नहीं, कलाकार, गायक आदि सभी थे।
अप्रासंगिक असमिया पार्टी?
असमिया अस्मिता की ये राजनीति क्षेत्रीयता पर आधारित थी और असम गण परिषद इसकी झंडाबरदार बनी हुई थी। लेकिन क्षेत्रीय दल के तौर पर वह अपनी प्रासंगिकता उसी समय खो बैठी जब उसने बीजेपी के सामने समर्पण कर दिया। इसके पहले वह अपने अवसरवादी रवैये और सत्ता-लोलुपता की वज़ह से जनाधार खोती जा रही थी। अब वह इतनी अलोकप्रिय हो चुकी है कि इस चुनाव में उसका सफाया हो सकता है।
असमिया लोगों ने सीएए के मामले में एजीपी के रवैये को विश्वासघात के तौर पर देखा और वह उनकी नज़रों से उतर गई। शायद इसीलिए उन्होंने विकल्प की तलाश भी शुरू कर दी थी। नागरिकता संशोधन कानून के आने के बाद से ही बीजेपी के हिंदुत्व के विरोध में क्षेत्रीयतावादी राजनीति की दूसरी लामबंदी शुरू हो चुकी थी।
अखिल गोगोई, नेता, राइजोर दल
एक ओर अखिल असम छात्र संघ यानी आसू से निकलकर बने असम जातीय परिषद (एजेपी) ने असमिया अस्मिता का झंडा उठाकर एजीपी को चुनौती दी तो दूसरी ओर अखिल गोगोई के राइजोर दल ने भी हुंकार भरी।
असमिया पहचान दाँव पर
ध्यान रखने वाली बात है कि भारतीय जनता पार्टी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अवैध बांग्लादेशी नागरिकों का सवाल उसके लिए हिंदू-मुसलमान सियासत का मुद्दा है और इसके लिए वह असमिया पहचान को दाँव पर लगाने से पीछे नहीं हटेगी। बीजेपी का ये रुख़ उन हिंदू असमियों के लिए विश्वासघात की तरह था जो मानते थे कि बीजेपी बिना हिंदू- मुसलमान का विभाजन किए बांग्लादेशियों को वापस भेजने के लिए काम करेगी।
लेकिन जब बीजेपी पलट गई तो असमिया पहचान और संस्कृति की चिंता करने वालों को समझ में आ गया कि उन्हें धोखा हुआ है और एक बड़ा वर्ग क्षेत्रीय राजनीति को पुनर्जीवित करने की दिशा में चल पड़े।
लेकिन इस चुनाव के नतीजों से ही पता चलेगा कि वे इसमें कितने सफल हुए हैं या आगे उन्हें कितनी कामयाबी मिल सकती है। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि दोनों क्षेत्रीय दलों को बडी सफलता नहीं मिलने वाली। अगर ऐसा हुआ तो इसका मतलब है कि बीजेपी के हिंदुत्व के सामने वे खड़ी नहीं हो पा रहीं।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिंदुत्व केवल विचारधारा नहीं है, अब वह केंद्र की सत्ता पर काबिज भी है और कॉरपोरेट धन से पोषित सामर्थ्यशाली उग्र अभियान भी। उससे टकराना और बच पाना आसान नहीं है।
ख़तरे में असमिया संस्कृति
असमिया संस्कृति को निगलने का हिंदुत्ववादी अभियान तब और आक्रामक हो जाएगा जब वह एक बार फिर से चुनाव जीतकर सत्ता पर काबिज़ होगा। दूसरी पारी में बीजेपी सरकार उसी तरह से और भी निरंकुश हो जाएगी जैसे मोदी सरकार 2019 की जीत के बाद हो गई है।
लेकिन यदि बीजेपी चुनाव हारती है और महागठबंधन की एक टिकाऊ सरकार बनती है तो संघ को एक करारा झटका लगेगा। उसका हिंदुत्ववाद न केवल असम या पूर्वोत्तर भारत में परास्त होगा, बल्कि इसका संदेश पूरे देश में जाएगा। देखा जाए तो पश्चिम बंगाल का समाज भी कमोबेश इसी तरह की लड़ाई लड़ रहा है और उसके लिए भी चुनाव नतीजे इसी संदर्भ में अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं।
हालाँकि यदि बीजेपी की पराजय होती है तो ये पराजय अंतिम नहीं होगी और वह तख़्ता पलटकर फिर से अपने एजेंडे को लागू करने की कोशिश करेगी, मगर इससे क्षेत्रीय शक्तियों को साँस लेने और सँभलकर खड़े होने का मौक़ा मिल सकता है। हो सकता है कि एजीपी को भी अपना रास्ता बदलने के लिए मजबूर होना पड़ जाए।
फिर काँग्रेस के नेतृत्व वाला गठबंधन असमिया संस्कृति की गारंटी देने के साथ सत्ता में आएगा तो उसकी पूरी कोशिश हिंदुत्व को रोकने की होगी और इसमें उसे असमिया समाज का साथ भी मिल सकता है। वैसे भी काँग्रेस ज़्यादा समावेशी पार्टी है और उसने कभी किसी धार्मिक-सामाजिक समुदाय के दमन की ऐसी राजनीति नहीं की जो बीजेपी कर रही है।