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काले-गोरों का भेद बढ़ा कर भी क्या चुनाव जीत पाएंगे ट्रंप?

काले-गोरों का भेद बढ़ा कर भी क्या चुनाव जीत पाएंगे ट्रंप?

क्या वर्तमान हालातों से निपट कर ट्रम्प दोबारा अमेरिका के राष्ट्रपति बन पाएंगे?

हाल ही में अमेरिका में अश्वेत व्यक्ति जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस ज़्यादती से मौत के ख़िलाफ़ हिंसक विरोध प्रदर्शन दुनिया के कई देशों में देखने को मिले हैं। दुनिया में लोकतांत्रिक मूल्यों का डंका पीटने वाला अमेरिका अपने ही आंगन में श्वेत पुलिसकर्मी के घुटने तले दम घुटने से अफ्रीकी अमेरिकी नागरिक की मौत के बाद समता, सामाजिक न्याय एवं मानवाधिकारों की रक्षा में नाकामी के कारण कठघरे में है। 

कटघरे में अमेरिका!

क्षेत्रफल के हिसाब से महादेश कहलाने वाले तमाम जनसंस्कृतियों से युक्त इस देश के आधे से ज़्यादा राज्य आजकल नस्लीय नफ़रत के विरोध की आग में जल रहे हैं। इस विरोध प्रदर्शन को अलग-थलग करने के लिये अमेरिकी सरकार ने भीड़ के ऊपर आँसू गैस के गोले, रबड़ की गोलियों का इस्तेमाल किया।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने प्रदर्शनकारियों को ‘ठग’ कहा एवं उन्हें गोली मारने और उनके खिलाफ सेना के इस्तेमाल करने की धमकी दी।  

ये विरोध प्रदर्शन अप्रैल 1968 में डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर की हत्या के बाद हुए विरोध प्रदर्शनों की याद दिलाते हैं। 

अमेरिका में हो रहे ये विरोध प्रदर्शन सिर्फ अश्वेत नागरिक की हत्या का कारण नहीं हैं, बल्कि ‘दंगों’ के माध्यम से जो हालात सामने आए हैं वे अमेरिकियों के गुस्से का इज़हार है।

इतिहास के झरोखे से

वर्ष 1968 आधुनिक अमेरिकी इतिहास में सबसे अधिक उतार-चढाव वाले वर्षों में से एक था।   उल्लेखनीय है कि वियतनाम युद्ध के ख़िलाफ़ अमेरिका में विरोध-प्रदर्शन पहले से ही हो रहा था कि 4 अप्रैल, 1968 को टेनेसी राज्य के मेम्फिस के एक मोटल (एक प्रकार का होटल) में डॉ. मार्टिन लूथर किंग की हत्या कर दी गई। वहीं दो महीने के बाद राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार रॉबर्ट एफ. केनेडी की लॉस एंजिल्स में गोली मारकर हत्या कर दी गई।

डॉ. किंग की हत्या के कारण अमेरिकी शहरों में हिंसक विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए जिसे ‘पवित्र सप्ताह विद्रोह’ कहा जाता है। यह हिंसक विद्रोह अमेरिका के वाशिंगटन डी. सी., शिकागो, बाल्टीमोर, कैन्सस सिटी सहित सभी जगहों पर अधिकतर अश्वेत युवाओं द्वारा किया गया जिसने अमेरिकी गृहयुद्ध की याद को ताज़ा किया था।

1968 और 2020 का कनेक्शन

कोविड-19 महामारी से अश्वेत समुदाय को काफ़ी दिक्क़तें हुई, अब तक 100,000 से अधिक अमेरिकी नागरिकों की मौत हो चुकी है। जॉर्ज फ्लॉयड की मृत्यु से पहले संयुक्त राज्य अमेरिका पहले से ही बड़े पैमाने पर आर्थिक एवं स्वास्थ्य संबंधी संकटों से जूझ रहा था।

वर्ष 1930 की महामंदी के बाद से अमेरिका में सबसे बड़ी आर्थिक मंदी देखी जा रही है। फ्लॉयड की मौत ने अमेरिकी जनता के गुस्से के लिये एक चिंगारी का काम किया, राष्ट्रपति ट्रंप की भड़काऊ भाषा ने इन प्रदर्शनों को हिंसक रूप दे दिया।

नस्लीय हिंसा

संयुक्त राज्य अमेरिका ने अतीत में कई बार नस्लीय हिंसा देखी है, जिनमें अधिकतर विरोध प्रदर्शन स्थानीय स्तर के ही होते थे। किंतु वर्तमान में हो रहे विरोध प्रदर्शन वर्ष 1968 के विरोध प्रदर्शनों जैसे हैं। ‘न्यूयॉर्कर’ पत्रिका के संपादक डेविड रेमनिक ने इसे ‘एक अमेरिकी विद्रोह’  कहा था। इस विद्रोह का कारण अमूर्त रूप से विभाजित देश है जो एक घातक संक्रमण (कोविद-19), बेरोज़गारी और बिगड़ते नस्ल संबंधों की ट्रिपल चुनौतियों का सामना करने के लिये संघर्ष कर रहा है।

ट्रम्प की नई चुनावी चाल

वर्ष 1968 में अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन बी. जॉनसन ने विरोध प्रदर्शनों को दबाने के लिये नेशनल गार्ड की तैनाती की थी। किंतु उन्होंने डॉ. लूथर किंग की हत्या के अगले दिन अमेरिकी कांग्रेस  को लिखे एक पत्र में कहा था कि निष्पक्ष नागरिक अधिकारों के हीरो (डॉ. मार्टिन लूथर किंग) की स्थायी माँगों में से एक ‘फेयर हाउसिंग एक्ट’ पारित करना है। पाँच दिनों के भीतर वर्ष 1968 का नागरिक अधिकार अधिनियम, शीर्षक VIII, जिसे ‘फेयर हाउसिंग एक्ट’ के रूप में जाना जाता है, को प्रतिनिधि सभा ने एक बड़े अंतर से पारित किया। 

राष्ट्रपति ट्रंप जिस तरह से स्थिति संभाल रहे हैं उससे लगता है कि उनकी तीव्र प्रतिक्रिया सैन्यवादी है, जिसने अब तक प्रदर्शनकारियों को उकसाया है और अमेरिकी समाज में विभाजन को गहरा किया है।

नस्लीय विभाजन से ट्रंप को लाभ

जानकार बताते हैं कि आगामी राष्ट्रपति पद के लिये होने वाले चुनाव के कारण राष्ट्रपति ट्रंप स्पष्ट रूप से पूर्व राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की बनाई रेखा का अनुसरण कर रहे हैं।

वर्ष 1968 में हुए विरोध प्रदर्शनों के बाद रिचर्ड निक्सन ने अपने चुनावी अभियान में 'लॉ एंड ऑर्डर' का आह्वान किया। यह एक नस्लीय संदेश था जिसने अश्वेत नागरिकों द्वारा की गई हिंसा के समक्ष श्वेत नागरिकों के वोटों के ध्रुवीकरण को बढ़ावा दिया।

अर्थव्यवस्था पर दाँव

‘लॉ एंड ऑर्डर’ अभियान ने निक्सन के राजनीतिक भाग्य में एक नई जान फूंक दी जिसे लिंडन बी. जॉनसन ने कभी ‘जीर्ण प्रचारक’  कहा था। निक्सन ने उस वर्ष राष्ट्रपति पद का चुनाव जीता था।

साफ़ है कि आगामी चुनाव में ट्रंप फिर से अर्थव्यवस्था पर दाँव नहीं लगा सकते, क्योंकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था अत्यंत नाज़ुक स्थिति में है।

बढ़ती हिंसा और नागरिक अशांति के बीच यह स्पष्ट है कि ट्रंप का चुनावी अभियान निक्सन के चुनावी अभियान की ही एक धुरी है।

क्या ट्रम्प जीतेंगे

यह पहला मौका नहीं है जब अमेरिका में हजारों की संख्या में लोग सड़क पर उतरकर प्रदर्शन कर रहे हैं और हालात यहां तक खराब हो चुके हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को बंकर में छिपना पड़ा हो।  

व्हाइट हाउस के प्रवक्ता ने 'कानून एवं व्यवस्था' बनाए रखने का आह्वान किया किंतु कुछ ही घंटों के बाद राष्ट्रपति ट्रंप ने प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ सेना का उपयोग करने की धमकी देते हुए कहा कि ‘मैं आपकी क़ानून एवं व्यवस्था का राष्ट्रपति हूँ’।

किंतु वर्तमान एवं अतीत की स्थिति में एक बड़ा अंतर है। जब निक्सन ने प्रदर्शनकारियों को निशाना बनाते हुए अभियान शुरू किया था तो वह राष्ट्रपति नहीं थे। वर्तमान में ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति हैं और अमेरिकी शहर उनकी निगरानी में हिंसक प्रदर्शनों के गवाह बन रहे हैं। अब देखना यह है कि क्या वर्तमान हालातों से निपट कर ट्रम्प दोबारा अमेरिका के राष्ट्रपति बन पाएंगे  

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