विकास और विनाश के बीच में फंसे हैं चंबल के बीहड़
(...पिछले अंक के बाद से)
पिछले अंक में इस बात का उल्लेख है कि 60 सालों के तमाम 'प्रयासों' के बावजूद बीहड़ 9.5% की गति से बढ़ रहा है यानी भूमि क्षरण के चलते हर साल बीहड़ 8000 हैक्टेयर भूमि चाट जाता है। 'सुजागृति समाज सेवी संस्था' द्वारा 15 साल पहले किए गए सर्वे में अकेले मुरैना ज़िले में 35 हज़ार हैक्टेयर भूमि बीहड़ों में तब्दील होने की बात रिकॉर्ड में आई थी जिसके बाद उन्होंने विपरई आदि 7 गाँवों में औषधीय पौधों का रोपण शुरू किया जो आज वहाँ प्रगति और विकास की एक बड़ी सच्चाई बन चुके हैं। 'सुजागृति' की 'डोरबंदी' के बड़े मॉडल और प्रो. तोमर का विश्वविद्यालय के उद्यान के प्रयोगों का संदर्भ भी पिछले अंक में आपने पढ़ा है।
चंबल के बीहड़ों के किसान और यहाँ काम करने वाले सामाजिक और पर्यावरण विज्ञान से जुड़े लोग यह प्रश्न उठा रहे हैं कि बहुत कम लागत वाले इन मॉडलों का, जिनमें न सिर्फ़ बड़े पैमाने पर स्थानीय ग्रामीणों की सामुदायिक भागीदरी थी, बल्कि जो कामयाब भी साबित हुए, उन व्यक्तियों और संस्थाओं को केंद्र या राज्य सरकार ने अपना काम आगे बढ़ाने के लिए क्यों नहीं प्रेरित किया वे पूछते हैं कि क्यों बार-बार सार्वजनिक धन की गंगा बहाई जाती रही जिसका अंतिम लक्ष्य ही नाक़ामयाबी था उनकी जिज्ञासा है कि क्यों हज़ारों करोड़ रुपए के पहाड़ के नीचे पलीता सुलगाने की तैयारी एक बार फिर से की जा रही है
सामाजिक कार्यकर्ता ज़ाकिर हुसैन कहते हैं कि चंबल क्षेत्र की मिट्टी अलूवियम (मटियार या बालुई) क्वालिटी की है। बीहड़ निर्माण और कटाव का बनना इस मिट्टी की प्रकृति है। इसके रहते चंबल के किनारों से 3 किमी अंदर तक बीहड़ बने हुए हैं। इन बीहड़ों को यांत्रिक तरीक़े से नहीं हटाया जा सकता जबकि सारे सरकारी प्रोजेक्ट मशीन प्रधान ही होते हैं।
पर्यावरणविद और 'मप्र विज्ञान सभा' के सचिव सुभाष शर्मा समूची बीहड़ पुनरुद्धार योजना को पर्यावरण के लिए गंभीर ख़तरा मानते हैं। उनका कहना है,
“बलुआ मिट्टी का जो कटाव है उसे मशीनीकृत तरीक़े से नहीं रोका जा सकता है। उसे रोकने के लिए प्राकृतिक साधनों का इस्तेमाल करना ही एकमात्र विकल्प है। आप एफॉरेस्ट्रेशन की जगह डीफॉरेस्टेशन करना चाहते हैं जो सारी धरती का नाश कर डालेंगे। नए जंगलातों के विकास और संरक्षण की बात छोड़ दें, 'सतवारी' की परंपरागत बेलों और 'चैकर' के पौधों की कोई देखभाल नहीं की गई। उन्हें उखाड़ फेंका गया जिसके चलते सैकड़ों साल पुरानी भू-संरक्षण की प्राकृतिक प्रक्रिया को ज़बरदस्त क्षति पहुँची।”
वह कहते हैं कि बीहड़ रोकने की तमाम परियोजनाएँ इसलिए असफल हुईं क्योंकि इसमें स्थानीय समुदायों को नहीं जोड़ा गया। उन्होंने कहा,
"बाँध बनाए तो पानी रुका लेकिन साइड से निकल गया। यहाँ पानी रोकने के लिए 'टॉप' से नहीं, खप्पर के किनारे गड्ढे खोद कर ही पानी रोका जा सकता है। भारी मशीनरी भी बीहड़ों को रोक पाने में बिलकुल नाक़ामयाब साबित होगी। यहाँ की मिट्टी ऐसी है कि इनका ऐसे पेड़ों से वनीकरण हो जिनकी क्षमता मिट्टी को बाँध कर रखने की है। मुझे नहीं लगता है कि नई परियोजना में इन सारी बातों को इस रूप में सोच जा रहा है।”
वस्तुतः चम्बल के बीहड़ों के रखरखाव का बड़ा सवाल इसके पर्यावरण संतुलन जे जुड़ा है जिस पर सरकारी स्तर पर कभी विचार नहीं किया गया।
व्यापक जंगलात और उद्यान उत्पादन की बात तो अपनी जगह महत्वपूर्ण है ही, सरकार ने यहाँ पशुपालन और पशुओं के रखरखाव तथा वंश वृद्धि आदि की बाबत कभी नहीं सोचा जो न सिर्फ़ यहाँ के मनुष्यों की आजीविका का संसाधन रहे हैं बल्कि पर्यावरण संतुलन में भी जिनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भैंस, बकरी, भेड़ आदि पशु चम्बल के पर्यावास में सैकड़ों वर्षों से उपस्थित रहे हैं। सरकार ने उनके लिए इस दृष्टिकोण से कभी कोई योजना नहीं बनाई। विशेषज्ञ मानते हैं कि भैंस की प्रजातियों की जैसी हाज़िरी चंबल के बीहड़ों में दिखती है और यहाँ के ग्रामीण उनके पालन के लिए परंपरागत रूप से जैसे अभ्यस्त हैं, उसे सरकार ने यदि गंभीरता से निबद्ध किया होता तो मिल्क डेयरी के मामले में चंबल भी पंजाब, हरियाणा और गुजरात की बराबरी में खड़ा हो सकता था।
मुरैना के स्थानीय निवसी सत्येंद्र कहते हैं,
‘एक तरफ़ कृषि योग्य भूमि में बीहड़ों को बदलने की बात और दूसरी तरफ़ हाइवे के नाम पर किसानों से ज़मीनों को लेने का अंतर्विरोध ही सरकार की असली मंशा को दिखता है। वह कहते हैं कि बीहड़ एक सुरक्षा कवच है जो चम्बल को पवित्र बनाकर रखता है। यदि यह कवच ही तोड़ दिया गया तो चंबल भी वैसी ही प्रदूषित हो जाएगी जैसी गंगा, यमुना आदि दूसरी नदिया हैं।’
बीहड़ के फैलाव को रोकने और भूसंरक्षण के उद्देश्य से क्षेत्र में उन्नीस सौ साठ के दशक में एक पूरा 'भूसंरक्षण विभाग' खड़ा किया गया था। राज्य सरकार की ग़ैर ज़िम्मेदारी का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सालों से यह विभाग ठप्प पड़ा है और उसके कर्मचारी ठलुआ बैठे हैं। उनके ज़िम्मे अलबत्ता कृषि विभाग के कर्मचारियों का वेतन तैयार करना हो गया है। पूरा महीना वे वेतन की गणनाओं में ही निकल देते हैं। कोई सरकार से यह नहीं पूछने वाला है कि यदि वेतन भूसंरक्षण वाले तैयार करते हैं तो कार्मिक और एकाउंट विभाग वाले क्या करते हैं
अभी तक यद्यपि सरकार ने अपनी इस नयी परियोजना की 'पद्धति' से पर्दा नहीं हटाया है लेकिन नीतियों को निकटता से अध्ययन करने वाले विशेषज्ञों का मानना है कि 'बीहड़ सुधार' और 'एक्सप्रेसवे'- वे दोनों ही परियोजनाएँ चंबल को पूरा-पूरा कॉर्पोरेट के हवाले कर देने का प्लान हैं। केंद्र और राज्य सरकार चंबल बीहड़ों को 'परती भूमि' के रूप में देखती है।
उसे ‘बाँझ’ दिखने वाली इस धरती का सर्वोत्तम उपयोग कॉर्पोरेट के हाथों में सौंप देना ही लगता है जो यहाँ भारी उद्योग और कृषि के बड़े फ़ार्म विकसित कर सकते हैं। पीछे चंबल क्षेत्र में 2 औद्योगिक समूहों को बसाया गया लेकिन वह प्रयोग पूरी तरह फ़ेल साबित हुआ। बीहड़ों के औद्योगीकरण का परिणाम होगा इसका और भी विनाश।
किसान नेता अशोक तिवारी बीहड़ की नई परियोजना को प्रस्तावित 'चंबल एक्सप्रेस' हाइवे से जोड़ कर देखते हैं। वह कहते हैं,
‘जब इस क्षेत्र में पहले से ही राष्ट्रीय राजमार्ग 552 मौजूद है तो एक नया हाईवे बनाने के पीछे जो उद्देश्य है, उसे समझे जाने की ज़रूरत है। यह मामला पूरी यात्रा के तथाकथित दूरी के बोझ को चंद किमी घटा देने भर तक सीमित नहीं है बल्कि इसके उद्देश्य हैं प्रस्तावित सड़क के दोनों ओर की 1 किमी दूरी की कुल 90 हज़ार हेक्टेयर भूमि की कॉर्पोरेट जगत में बंदरबाँट। यह उर्वरक और उपजाऊ धरती है जिसे उद्योगों से लेकर बड़ी कॉर्पोरेट कृषि फार्मिंग में तब्दील किया जा सकेगा। यह अलग बात है कि इस उठापटक में यहाँ पीढ़ियों से बसे किसान परिवार नष्ट हो जायेंगे। तब वे कहाँ जायेंगे और क्या करेंगे’
अशोक तिवारी कहते हैं कि इस एक्सप्रेससवे में 10 हज़ार ऐसे किसानों की ज़मीन जा रही है जो पत्तेदार हैं। सरकार कहती है कि इन्हें या तो बदले में कहीं और ज़मीन देंगे या मुआवज़ा। लेकिन सबसे बड़ा सवाल उन 50 हज़ार से ज़्यादा ऊब किसान परिवारों का है जो परंपरागत रूप से सैकड़ों सालों से इस बीहड़ की धरती से जुड़े हैं। उन्होंने और उनके पुरखों ने अपने दम पर इसे कृषि योग्य बनाया है। उन्हें पट्टेदार न मानते हुए सरकार न तो मुआवज़ा देगी और न बदले में ज़मीन। वह कहते हैं,
‘सन 2008 में भी ऐसी कोशिश हुई थी लेकिन हमने बड़ा प्रतिरोध किया था और तब वह ऐसा नहीं कर सकी थी। अब फिर भिंड, मुरैना, ग्वालियर- सब जगह किसान विरोध में उतर रहे हैं। हम उन्हें उनके मंसूबों में क़ामयाब नहीं होने देंगे।’
इलाक़े के किसान संगठनों का मानना है कि जो 'खेल' एक्सप्रेसवे के नाम पर हो रहा है, उसकी पुनरावृत्ति बीहड़ सुधार योजना में होनी है। भोपाल स्थित 'कृषक उत्थान समिति' के बृजेन्द्र सिंह का कहना है,
‘यह बड़े पैमाने पर बीहड़ के किसानों को ज़मींदोज़ करने की तैयारी है। बीहड़ पुनरुद्धार और एक्सप्रेस हाइवे के नाम पर सरकार सारे बीहड़ को कॉर्पोरेट को दे देना चाहती है। इससे लाखों की संख्या में लोग भुखमरी के कगार पर आ जाएँगे।’
सवाल यह है कि यदि ऐसा होता है तो लाखों की तादाद में बेरोज़गार और भुखमरी के शिकार ये ग्रामीण जायेंगे कहाँ बृजेंद्र सिंह कहते हैं,
‘अपराध की दुनिया इन्हें निगल जाएगी। लंबे समय से चंबल में बड़े दस्यु गिरोहों की गूँज सुनने को नहीं मिली है, बीहड़ का कथित विकास ऐसे ही नए डाकू गिरोहों की फ़ौजों को जन्म देने वाला है जो आने वाले समय में चंबल की धार को खून से लाल कर देगी।’
दस्यु सरगना जगन गूजर के भरतपुर जेल पहुँच जाने के बाद से हाल के महीनों में बीहड़ों में किसी बड़े दस्यु गिरोह की बंदूकों की गूँज नहीं सुनाई पड़ी थी। पुलिस और प्रशासन यह मान कर चल रहा था कि घाटी में फ़िलहाल शांति है लेकिन हाल ही में यूपी पुलिस ने भदावर क्षेत्र में बड़े पैमाने पर 'कॉम्बिंग' की शुरुआत की है। 2 दस्यु सुंदरियों वाले नए गिरोहों के बीहड़ में सरगर्मियों की सूचना मिलने के बाद यह कॉम्बिंग चालू की गयी है। हालाँकि अभी तक इन गिरोहों के ठिकानों का कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिल सका है और न ही उनके द्वारा यूपी में किसी अपराध की कोई ख़बर है। वे यह मानते हैं कि ये गिरोह फ़िलहाल अपनी कारगुज़ारियों को राजस्थान की सीमा में सरंजाम देने और शरण वास्ते इधर चले आ जाने की योजना बना रहे हैं।
अशोक तिवारी बीहड़ों में भविष्य के एक बड़े आर्थिक संकट की अनुगूँज की बात करते हैं। वह कहते हैं,
‘यह कैसा विकास है जिसके गर्भ में स्थानीय ग्रामीणों का विनाश छिपा है। यदि विकास का यह मॉडल चंबल में लागू हो सका तो यहाँ का ग़रीब और निर्धन बन चुका किसान ग़लत डगर पर चलकर हथियार उठाने को मजबूर हो जायेगा। आर्थिक संकटों के चलते पहले भी चंबल बाग़ियों की धरती रही है। अब तो एक महासंकट की बेला का जन्म होता दिखा रहा है। यह एक भयानक सामाजिक असंतुलन की घंटी है जो सरकार लगातार बजा रही है।’