अखिलेश की सोशल इंजीनियरिंग से मायावती परेशान क्यों?
बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती ने सपा के ब्राह्मण चेहरे माता प्रसाद पांडे को उत्तर प्रदेश विधानसभा में विपक्ष का नेता नियुक्त करने पर सोमवार को सपा पर कटाक्ष किया। मायावती ने आरोप लगाया कि अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली पार्टी ने लोकसभा चुनाव में पीडीए समुदाय के वोट लेने के बाद उन्हें नजरअंदाज कर दिया। यादव ने लोकसभा चुनाव से पहले पीडीए यानी 'पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक' का नारा दिया था। इस नारे के सहारे अखिलेश ने यूपी में लोकसभा चुनाव का माहौल बदल दिया।
समाजवादी पार्टी ने रविवार को सात बार के विधायक माता प्रसाद पांडे को राज्य विधानसभा में नेता विपक्ष नियुक्त किया। नियुक्ति पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए, मायावती ने दावा किया कि एसपी ने लोकसभा आम चुनावों में पीडीए वोट इकट्ठा किए, खासकर संविधान को बचाने के नाम पर उन्हें "गुमराह" किया।
मायावती ने एक्स पर लिखा, "लेकिन जिस तरह से नेता विपक्ष की नियुक्ति में इन समुदायों को नजरअंदाज किया गया है, वह चिंता का विषय है।" उन्होंने कहा, ''एक विशेष जाति'' को छोड़कर, सपा में किसी भी पीडीए समुदाय के लिए कोई जगह नहीं है। और निश्चित रूप से ब्राह्मण समुदाय के लिए नहीं। क्योंकि सपा और भाजपा सरकारों के तहत समुदाय को जो उत्पीड़न और उपेक्षा का सामना करना पड़ा, वह एक खुला रहस्य है। वास्तव में, उनका विकास और उत्थान केवल बसपा सरकार के दौरान ही हुआ था। इसलिए, इन लोगों (ब्राह्मणों) को अवश्य ही सावधान रहना चाहिए।"
मायावती ने जिस तरह से अखिलेश के इस कदम पर हमला बोला है, उसको आसानी से समझा जा सकता है।
उत्तर प्रदेश में हाल के चुनावी नतीजों ने अखिलेश की सोशल इंजीनियरिंग का बेहतर और उल्लेखनीय नतीजा दिया है। जिसने राज्य में भाजपा के नतीजे और जीत के अंतर पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है। हालाँकि भाजपा ने अपने गठबंधन सहयोगियों के साथ सरकार तो बना ली है लेकिन उत्तर प्रदेश की स्थिति ने पार्टी के भीतर और बाहर कई सवाल खड़े कर दिए हैं। लोगों का एक ही सवाल है कि 'यूपी में भाजपा में क्या गलत हुआ?'
उत्तर प्रदेश में बीजेपी की 33 सीटों की तुलना में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी 37 सीटें हासिल करने में कामयाब रही। यह 2019 के लोकसभा चुनावों के विपरीत है, जहां भाजपा राज्य की 80 सीटों में से 62 सीटों पर विजयी हुई थी। 62 सीटों से घटकर 33 सीटों पर आ जाना भाजपा के लिए एक बड़ा झटका है, जो कि अखिलेश यादव की चुनावी रणनीति पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है।
उत्तर प्रदेश में सोशल इंजीनियरिंग की शुरुआत 2007 में मायावती ने की। जब उन्होंने राजनीतिक शक्ति को मजबूत करने के लिए रणनीतिक रूप से दलितों और ब्राह्मणों का गठबंधन बनाया था। यह ऐतिहासिक संदर्भ राज्य में चुनावी नतीजों को शक्ल देने में सोशल इंजीनियरिंग रणनीति के स्थायी प्रभाव को बताता है।
मायावती को यूपी की राजनीति में अपनी वास्तविक क्षमता का पता तब चला जब 2007 में सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले पर सवार होकर बसपा ने अपने दम पर बहुमत की सरकार बनाई। बसपा के संस्थापक कांशीराम ने पार्टी का नारा दिया था- "तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार।" लेकिन मायावती ने इस नारे को बदलकर "हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है" कर दिया। इसी नारे का असर 2007 में दिखाई पड़ा था। लेकिन बाद के चुनावों में मायावती की यह सोशल इंजीनियरिंग चल नहीं पाई।
2024 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश की सोशल इंजीनियरिंग अलग तरह की थी। इस चुनाव में अखिलेश ने सपा को यादव प्रभाव से मुक्त किया। सपा पर यादव पार्टी का दाग था। लेकिन इस बार सपा के 62 लोकभा उम्मीदवारों में सिर्फ पांच यादव थे, जो सभी उनके अपने परिवार से थे।
फैजाबाद (अयोध्या) और मेरठ जैसे महत्वपूर्ण लोकसभा क्षेत्रों में दलित उम्मीदवारों को मैदान में उतारने का अखिलेश यादव का निर्णय एक रणनीतिक मास्टरस्ट्रोक साबित हुआ, जिसने यूपी के राजनीतिक परिदृश्य को डावांडोल कर दिया और न सिर्फ भाजपा, बल्कि मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए एक कड़ी चुनौती पेश कर दी। अयोध्या में राम मंदिर भी बन गया। प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक ने इस चुनाव में हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण की हर कोशिश कर डाली लेकिन सब नाकाम रही। अखिलेश और इंडिया गठबंधन ने अपना पूरा ध्यान मुद्दों पर रखा और उन्हें विजय मिली। जनता हिन्दू-मुस्लिम नारे से अब परेशान लगती है। क्योंकि उसकी समस्याएं तो पहले की ही तरह बनी हुई हैं।