कोरोना काल में आप न मदद मांगें-न करें, वरना देशद्रोही क़रार दिए जाएंगे
नदियों में लाशें मिल रही हैं, लोग अस्पताल के बाहर फुटपाथ पर दम तोड़ रहे हैं, सड़कों पर ऑक्सीजन के लंगर लग रहे हैं, लेकिन सरकार को लोगों की नहीं, बस अपनी छवि की फ़िक्र है। दिल्ली में नौ लोग बस इसलिए गिरफ़्तार कर लिए गए क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री के विरुद्ध एक पोस्टर लगाया था। पोस्टर में कहा गया था कि अपने बच्चों के लिए ज़रूरत रहते उन्होंने वैक्सीन विदेशों में क्यों भेज दी।
संभव है, आप इस बात से सहमत न हों कि प्रधानमंत्री ने वैक्सीन विदेशों को निर्यात कर कोई ग़लती की, लेकिन क्या असहमति या विरोध के एक मामूली पोस्टर की वजह से आप लोगों को जेल में डाल देंगे?
यह इकलौता क़दम नहीं है जो सरकार की बढ़ती हुई बौखलाहट दिखा रहा है। इन दिनों दिल्ली पुलिस उन लोगों से पूछताछ में जुटी है जो इस कोविड काल में दूसरों की मदद कर रहे हैं- उनके लिए अस्पताल, दवाएं या ऑक्सीजन जुटा रहे हैं।
श्रीनिवास बीवी
युवक कांग्रेस के अध्यक्ष श्रीनिवास बीवी को हाल-हाल तक बहुत कम लोग जानते थे। लेकिन बीते कुछ दिनों में सोशल मीडिया पर पीड़ितों की मदद के लिए दिया जाने वाला हर दूसरा संदेश जैसे उनके नाम पर टैग किया जा रहा है। हर किसी को उनसे उम्मीद है और बहुत सारे मामलों में वे इस उम्मीद पर खरे भी उतर रहे हैं।
दूतावासों ने भी मांगी मदद
हालत ये है कि फिलीपींस और न्यूज़ीलैंड दूतावासों के लोगों को भी ऑक्सीजन की ज़रूरत पड़ी तो उन्होंने सरकारी एजेंसियों पर नहीं, ऐसे मददगारों पर भरोसा किया। यहां तक कि बीजेपी के मंत्री और सांसद फग्गन सिंह कुलस्ते ने ऑक्सीजन के लिए कांग्रेस नेता मुकेश शर्मा से अपील की। लेकिन दिल्ली पुलिस शुक्रवार को श्रीनिवास के दफ़्तर यह जानने के लिए पहुंच गई कि वे ऑक्सीजन और दवाओं की कालाबाज़ारी तो नहीं कर रहे हैं।
दिलीप पांडेय से भी पूछताछ
इसके दो दिन पहले आम आदमी पार्टी के नेता दिलीप पांडेय से भी पूछताछ की गई। बस इसलिए कि इन दिनों वे भी ख़ुद कोविडग्रस्त होने के बावजूद लोगों की मदद करके नायक बने हुए हैं। और तो और, शाहिद सिद्दीक़ी ने ट्वीट कर जानकारी दी कि उनकी पत्नी के लिए रेमडिसिविर के दो इंजेक्शन का इंतज़ाम कांग्रेस के लोगों ने किया तो पुलिस ने उन्हें भी पूछताछ का नोटिस भेज दिया।
दिल्ली पुलिस की सफ़ाई है कि यह काम वह दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश पर कर रही है। लेकिन क्या यह पूरा सच है? दिल्ली हाई कोर्ट ने दिल्ली पुलिस को ऐसा कोई आदेश नहीं दिया है कि वह इन लोगों से पूछताछ करे।
क्या कहा हाई कोर्ट ने?
दिल्ली हाई कोर्ट ने बस यह किया कि नेताओं द्वारा ऑक्सीजन या दवाओं की कालाबाज़ारी के संदेह को लेकर सीबीआई जांच की मांग के लिए डाली गई एक अर्ज़ी पर याचिकाकर्ता को सुझाव दिया कि वे यह मामला दिल्ली पुलिस के पास ले जाएं। यह भी जोड़ा कि अगर दिल्ली पुलिस के पास ऐसी कोई शिकायत है तो वह एफआइआर दर्ज कर उसकी जांच करे। उसने सरकार से इस मामले में एक रिपोर्ट भी मांगी।
जाहिर है, न्यायपालिका ने ठीक कहा कि अगर कालाबाज़ारी हो रही है तो इसकी जांच पुलिस करेगी। लेकिन एक तरफ़ पुलिस ने अदालत के निर्देश की ग़लत व्याख्या की और दूसरी तरफ़ कालाबाज़ारी करने वालों को छोड़कर उनसे पूछताछ में जुट गई जो दरअसल इन दिनों बहुत सारे लोगों के लिए मसीहा बने हुए हैं।
कहने की ज़रूरत नहीं कि ऊपर के किसी दबाव या इशारे के बिना पहले से ही बहुत सारे बोझ उठा रही दिल्ली पुलिस यह अति उत्साह दिखाने को तैयार नहीं होती।
इससे क्या नतीजा निकालें?
सरकार को दवाओं या ऑक्सीजन की कालाबाज़ारी रोकने में कोई दिलचस्पी नहीं है। उसकी चिंता बस यही है कि लोगों की मदद का श्रेय किसी और के हिस्से न चला जाए। दिल्ली पुलिस का यह भी कहना है कि उसने बीजेपी नेताओं से भी पूछताछ की- जिसकी पुष्टि गौतम गंभीर और हरीश खुराना जैसे नेता कर रहे हैं- लेकिन समझना मुश्किल नहीं है कि जांच में संतुलन दिखाने के लिए इतना भर नाटक तो अपरिहार्य होता है।
देखिए, कोरोना संकट में सरकार की भूमिका पर बातचीत-
वैसे भी गौतम गंभीर जो कर रहे थे, वह वाकई एतराज़ योग्य था। वे अपने घर पर फेबी फ्लू बांट रहे थे। कहना मुश्किल है, यह बंटवारा कितने ज़रूरतमंदों के बीच हुआ और कितना ब्लैक करने वाले लूट ले गए, क्योंकि क़ायदे से ऐसी दवा डॉक्टर के पर्चे के बिना किसी को नहीं मिलनी चाहिए। इसी तरह गुजरात के सूरत में बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष ने पांच हज़ार रेमडिसिविर बांटे। इस पर राज्य के हाई कोर्ट ने राज्य सरकार से जवाब भी मांगा।
इन नेताओं से कोई नहीं पूछ रहा कि इस आसान लोकतांत्रिक लूट का अधिकार इन्हें किसने दिया। सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए उन्होंने एक ज़रूरी दवा या इंजेक्शन का ऐसा इस्तेमाल कैसे किया? निस्संदेह कुछ बीजेपी नेताओं ने भी संकट की इस घड़ी में लोगों की मदद के लिए भाग-दौड़ की होगी, बताया जा रहा है कि अब गौतम गंभीर के यहां भी ऐसी मदद की एक व्यवस्था बनाई गई है।
लेकिन दिल्ली में या पूरे देश में ऑक्सीजन सिलेंडर, ऑक्सीजन कंसन्ट्रेटर या रेमडिसिविर या दूसरे इंजेक्शन ब्लैक में बेचे जा रहे हैं, उनकी कई-कई गुना क़ीमत वसूली जा रही है, उन्हें लाखों में लोग ख़रीद रहे हैं और यह एक ‘ओपेन सीक्रेट’ है।
लोग टीवी चैनलों पर बता रहे हैं कि उन्होंने किस मजबूरी में किन दलालों से इंजेक्शन ख़रीदे। इसी तरह एंबुलेंस सेवाओं को लेकर रिपोर्ट आ रही है कि वे कैसे लोगों से 25 किलोमीटर के पंद्रह हज़ार रुपये तक वसूल रही हैं। लेकिन उन्हें पकड़ने की कोई कोशिश होती नज़र नहीं आ रही।
बस गुड़गांव में एक टैक्सीवाला पकड़ा गया जिसने पटियाला तक जाने के सवा लाख रुपये ले लिए थे। इन सबको छोड़ कर दिल्ली पुलिस उनकी जांच करने में जुटी है जो वाकई लोगों की मदद कर रहे हैं।
फिर दोहराना होगा, जब सरकारी संस्थाओं की ऊर्जा बस यह देखने में जाया होगी कि सरकार या प्रधानमंत्री की छवि ख़राब करने वाला कोई पोस्टर तो नहीं लगाया जा रहा, कोई शख़्स दूसरों की मदद करके लोकप्रियता तो हासिल नहीं कर रहा, तब बाक़ी व्यवस्था छिन्न-भिन्न होगी ही। यह व्यवस्था छिन्न-भिन्न है इसलिए लोग समानांतर इंतज़ामों में जुटे हैं।
छवि चमकाने की राजनीति
छवि चमकाने की यह राजनीति जैसे बिल्कुल प्रतिशोध तक जाती दिख रही है। दिल्ली दंगों के आरोप में ऐसे बहुत सारे सामाजिक संगठनों के लोग अब भी जेल में हैं जिन्होंने तब नागरिकता कानून का विरोध किया था। उनमें से एक पिंजड़ा तोड़ की नताशा नरवाल के पिता महावीर नरवाल दम तोड़ गए, जबकि बेटी मिथ्या आरोप में जेल में बंद रही। अब पिता के देहावसान के बाद उन्हें ज़मानत मिल पाई।
सरकार की बौखलाहट के प्रमाण और भी हैं। न्यूज़ीलैंड और फिलीपींस दूतावास द्वारा कांग्रेस नेताओं से मदद मांगे जाने पर विदेश मंत्रालय प्रचार में सक्रिय हो गया। और तो और ऑस्ट्रेलिया के अखबारों में प्रधानमंत्री के विरुद्ध कुछ छप गया तो बताया जाता है कि भारतीय दूतावास वहां मीडिया को समझाने में लग गया।
मौजूदा सरकार और प्रधानमंत्री पर यह इल्ज़ाम पुराना है कि वे हमेशा प्रचार की मुद्रा में रहते हैं। यह बीमारी ऐसे तमाम नेताओं में होती है जिनके लिए अपनी छवि ही सबसे महत्वपूर्ण होती है। भले ही इस छवि की कोई भी क़ीमत देश को चुकानी पड़े। एस तेमेलकुरेन अपनी मशहूर किताब ‘हाऊ टु लूज़ अ कंट्री: सेवेन स्टेप्स फ्रॉम डेमोक्रेसी टु डिक्टेटरशिप’ में एक प्रसंग का वर्णन करती हैं। वे लिखती हैं-
‘मुझसे कई पोस्टरों और बिलबोर्ड्स का अंग्रेज़ी में अनुवाद कराने के बाद मेरी जर्मन पत्रकार मित्र ने पूछा क्या तुर्की में फिर से चुनाव होने जा रहे हैं। छोटे-छोटे रास्तों, सड़क मरम्मत के लिए लगे अवरोधकों, निगम के निर्माण स्थलों पर तरह-तरह की चीज़ें पसरी दिख रही थीं। उन सब पर एर्दोगॉन की तसवीरें थीं- कहीं बच्चों को चूमते, कहीं लाल फीता काटते, और साथ में उसको और इस्तांबुल के ज़िला मेयरों को संबोधित थैंक्यू मैसेज थे। 'कोई चुनाव नहीं है', मैंने जवाब दिया, 'लेकिन कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब हमें इस तरह के प्रचार का सामना नहीं करना पड़ता जैसे मानो, चुनाव में कुछ ही दिन बचे हैं।'
लोकप्रियतावादी नेता जो दोहरा खेल खेलता है, वह करीने से एकेपी के मेयरों के इन चापलूसी भरे संदेशों में झलकता है। जो अनवरत चुनावी माहौल वे बनाए रखते हैं उससे नेता को एक ही साथ दो भूमिकाएं अदा करने का मौक़ा मिलता है। वह अपने आप में सिर्फ राज्य ही नहीं हो जाता बल्कि इस तरह पेश आता है जैसे कोई विपक्ष का नेता राज्य सत्ता छीनने की कोशिश कर रहा है।
पीएम मोदी की भाषा
यहां एहसास होता है कि इस बौखलाहट के पीछे भी एक राजनीतिक गणित है- मोदी ने पक्ष और विपक्ष दोनों की भूमिका अख़्तियार कर ली है। चुनाव प्रचार में वे छींटाकशी के अंदाज़ में दीदी-दीदी कहते दिखाई पड़ते हैं, लेकिन टीवी पर जनता को संबोधित अपने भाषणों में संतों की सी भाषा बोलते नज़र आते हैं।
मोदी की जगह कौन?
यह अनायास नहीं है कि फिर से यह कहा जाने लगा है कि मोदी न हों तो उनकी जगह कौन ले सकता है। बेशक, इस प्रचार के पीछे भी उनका मीडिया सेल है जो तरह-तरह के दुष्प्रचार करता रहता है- इस आक्रामकता के साथ कि सामने वाला डर जाए। उसकी एक ट्रोल सेना है जो हमेशा हमला करने को तैयार रहती है।
ऐस तेमेलकुरेन अपनी इसी किताब में एक अन्य जगह लिखती हैं, “आख़िरकार किसी ट्रोल का काम बहुत ओछा है। उनका मक़सद किसी मुद्दे पर चर्चा करना या किसी तर्क का खंडन करना नहीं होता, बल्कि बेपनाह आक्रामकता और शत्रुता के साथ संवाद के मंच को आतंकित करना होता है ताकि विरोधी विचार बचाव में चले जाएं। ट्रोल कद्दावर डिजिटल सांड होते हैं जिनको इस तरह प्रशिक्षित किया जाता है कि वे समुचित संवाद की शालीनता, तार्किकता और तथ्यपरकता को सोशल मीडिया के संसार से खदेड़ दें और सोशल मीडिया के दूसरे उपयोगकर्ताओं- 'आम लोगों'- के लिए बेलिहाज क्रूरता के वैतनिक रोल मॉडल बन जाएं जो स्वेच्छा से खुद को अनैतिकता की जनसेना में सूचीबद्ध करा लें।”
साफ़ है कि इस कोविड काल में आम जन को कई तरह की चुनौतियां एक साथ उठानी पड़ रही हैं। उसे अपने लोगों के लिए इलाज की व्यवस्था करनी है और ऐसा करते हुए कोई शिकायत नहीं करनी है, वरना उस पर सरकार को बदनाम करने का आरोप लगाया जा सकता है।
उसे प्रधानमंत्री के किसी फ़ैसले पर टीका-टिप्पणी नहीं करनी है, वरना उसे जेल में डाला जा सकता है। और उसे उस ट्रोल आर्मी का सामना भी करना है जो पलक झपकते ही उसे गद्दार या देशद्रोही क़रार देने को तैयार बैठी है।