
शरजील इमाम और उमर खालिद के ट्रायल में इतनी देरी क्यों?
शरजील इमाम के ख़िलाफ़ अदालत ने 2019 के जामिया हिंसा मामले में आरोप तय किए हैं। यानी आरोप तय होने में ही घटना के बाद छह साल लग गए। शरजील इमाम 2020 के दिल्ली दंगा मामले में भी आरोपी हैं और इस मामले में ट्रायल तक नहीं शुरू हुआ है। इसी मामले में उमर खालिद भी आरोपी हैं। तो सवाल है कि पाँच साल में अभी ट्रायल भी शुरू क्यों नहीं हो पाया?
ये दोनों युवा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र हैं। ये पिछले क़रीब पाँच साल से जेल में हैं, लेकिन उनके ख़िलाफ़ ट्रायल अभी तक शुरू नहीं हो सका है। यह स्थिति कई सवाल खड़े करती है। आखिर न्याय दिलाने में इतनी देरी क्यों हो रही है? क्या यह व्यवस्था की कमजोरी है या जानबूझकर देरी करने की रणनीति?
इस सवाल का जवाब ढूंढने से पहले यह जान लें कि आख़िर शरजील इमाम का ताज़ा मामला क्या आया है। दरअसल, दिल्ली की एक अदालत ने 2019 में हुई जामिया हिंसा के लिए शरजील इमाम पर आरोप तय कर दिए हैं। सुनवाई के दौरान अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विशाल सिंह ने माना है कि शरजील का दिया भाषण जहरीला था, नफ़रत फैलाने वाला था और एक धर्म को दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा कर रहा था।
कोर्ट ने तो यहाँ तक कहा है कि 13 दिसंबर 2019 को शरजील ने भीड़ को उकसाने की पूरी कोशिश की थी। उसने कहा था कि उत्तर भारत के राज्यों में मुसलमानों की बड़ी आबादी के बाद भी शहर समान्य रूप से क्यों चल रहे हैं, अभी तक चक्का जाम क्यों नहीं किया गया। इसने कहा कि यह सोची समझी बड़ी साज़िश का हिस्सा है। इसने यह भी कहा कि इसने मुसलमानों को ही चक्का जाम करने के लिए क्यों कहा?
शरजील इमाम को जामिया में भड़काऊ भाषण मामले में पिछले साल यानी 2024 में जमानत मिली थी, क्योंकि उन्होंने अधिकतम सजा की आधी से ज़्यादा अवधि जेल में काट ली थी। लेकिन दिल्ली दंगों के मुख्य मामले में वह और उमर खालिद अभी भी हिरासत में हैं।
ट्रायल में देरी का रहस्य
शरजील इमाम और उमर खालिद को 2020 में दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगों की साज़िश रचने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। इन पर गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम यानी यूएपीए और भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत मामले दर्ज हैं। दिल्ली पुलिस का दावा है कि इनके भाषणों और गतिविधियों ने हिंसा को भड़काने में भूमिका निभाई। हालांकि, चार साल बाद भी इनके ख़िलाफ़ ट्रायल की प्रक्रिया पूरी तरह शुरू नहीं हुई है।
दिल्ली हाई कोर्ट में हाल की सुनवाई में यह सवाल उठा कि क्या केवल धरना आयोजित करना यूएपीए जैसे कड़े क़ानून को लागू करने के लिए पर्याप्त है। कोर्ट ने पुलिस से सबूतों के साथ आरोपियों की भूमिका साफ़ करने को कहा, लेकिन पुलिस अब तक ठोस जवाब देने में नाकाम रही है। विशेषज्ञों का मानना है कि ट्रायल में देरी के पीछे कई कारण हो सकते हैं।
- पहला, यूएपीए के तहत मामलों में जांच और सबूत जुटाने की प्रक्रिया जटिल होती है, जिसके लिए समय चाहिए।
- दूसरा, अभियोजन पक्ष और बचाव पक्ष दोनों की ओर से बार-बार स्थगन की मांग भी देरी का कारण बन रही है।
दोनों जेल में क्यों?
शरजील इमाम और उमर खालिद पर यूएपीए की धारा 13 (गैरकानूनी गतिविधि को बढ़ावा देना), धारा 17 (आतंकी गतिविधियों के लिए फ़ंडिंग), और धारा 18 (साज़िश रचना) के तहत आरोप हैं। इन धाराओं में सजा का प्रावधान गंभीर है:
- धारा 13: अधिकतम 7 साल की सजा।
- धारा 17 और 18: 5 साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा, मामले की गंभीरता के आधार पर।
इसके अलावा, इन पर आईपीसी की धारा 124A (राजद्रोह) भी लगाई गई थी, जिसमें अधिकतम उम्रकैद तक की सजा हो सकती है, हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने 2022 में इस धारा पर रोक लगा दी थी। फिर भी, यूएपीए के तहत सजा की संभावना ही इन मामलों को जटिल बनाती है।
दिल्ली पुलिस का दावा है कि इनके भाषणों और गतिविधियों ने हिंसा को भड़काया, लेकिन सबूतों को अदालत में पेश करने और ट्रायल को आगे बढ़ाने में लगातार देरी हो रही है। दिल्ली हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में इनकी जमानत याचिकाओं पर सुनवाई भी बार-बार टल रही है।
हाल की रिपोर्टों के मुताबिक़, 2024 और 2025 में इन मामलों की सुनवाई के दौरान कई बार जजों ने खुद को केस से अलग कर लिया। मिसाल के तौर पर सुप्रीम कोर्ट में उमर खालिद की जमानत याचिका पर सुनवाई के दौरान जस्टिस बेला त्रिवेदी ने मामले को आगे नहीं बढ़ाने की बात कही थी, और अन्य जजों के व्यस्त शेड्यूल के कारण सुनवाई टल गई। इसी तरह, दिल्ली हाई कोर्ट में भी जमानत याचिकाओं पर सुनवाई के लिए नई पीठें गठित की गईं, लेकिन प्रक्रिया में तेजी नहीं आई।
जजों का बार-बार रिक्यूज करना इन मामलों को और जटिल बना रहा है। हर बार जब कोई जज खुद को अलग करता है, तो नई पीठ गठित करनी पड़ती है, और नई पीठ को मामले की पूरी पृष्ठभूमि समझने में समय लगता है। इससे सुनवाई में महीनों की देरी हो रही है।
जजों के रिक्यूज के अलावा, अभियोजन पक्ष और बचाव पक्ष की रणनीतियां भी देरी का कारण बन रही हैं। दिल्ली पुलिस ने विशाल चार्जशीट और सैकड़ों गवाहों का हवाला देकर समय मांगा है, जबकि बचाव पक्ष के वकील बार-बार स्थगन की मांग करते हैं। इसके अलावा, यूएपीए के तहत जमानत की सख्त शर्तें और कोर्ट में लंबित मामलों का बोझ भी इस स्थिति को बढ़ावा दे रहा है।
दिल्ली हाई कोर्ट ने जनवरी 2025 में सुनवाई के दौरान पुलिस से पूछा था कि क्या केवल धरना आयोजित करना यूएपीए के तहत केस दर्ज करने के लिए पर्याप्त है। पुलिस ने साजिश का दावा किया, लेकिन सबूतों को व्यवस्थित करने में विफल रही। इससे ट्रायल और जमानत पर फ़ैसले में और देरी हुई।
न्याय में देरी, न्याय का इनकार?
कानूनी जानकारों का कहना है कि भारत में 'जमानत नियम है, जेल अपवाद' का सिद्धांत यूएपीए जैसे कानूनों के तहत कमजोर पड़ जाता है। इस कानून में जमानत मिलना बेहद मुश्किल है, क्योंकि अभियोजन को केवल प्रथम दृष्टया सबूत दिखाने होते हैं। उमर खालिद की जमानत याचिका को दिल्ली हाई कोर्ट ने 2022 में खारिज कर दिया था, और सुप्रीम कोर्ट ने भी उन्हें राहत नहीं दी।
दिल्ली पुलिस का तर्क है कि यह देरी आरोपियों की ओर से भी हो रही है, जो ट्रायल में बहस के लिए तैयार नहीं होते। लेकिन बचाव पक्ष का कहना है कि अगर पुलिस के पास पुख्ता सबूत हैं, तो ट्रायल को तेजी से पूरा करना चाहिए। क़रीब पाँच साल तक बिना ट्रायल के जेल में रखना मानवाधिकारों का उल्लंघन हो सकता है।
शरजील इमाम और उमर खालिद के मामले न केवल कानूनी, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक बहस का हिस्सा बन गए हैं। ट्रायल में देरी और कड़े कानूनों का इस्तेमाल यह सवाल उठाता है कि क्या यह न्यायिक प्रक्रिया है या सजा से पहले सजा? अगर ये दोनों दोषी हैं, तो ट्रायल जल्द पूरा कर सजा क्यों नहीं दी जाती? और अगर दोषी नहीं हैं, तो उन्हें आजादी क्यों नहीं मिलती? लेकिन मौजूदा स्थिति में, यह अनिश्चितता ही उनके और उनके समर्थकों के लिए सबसे बड़ी सजा बन गई है।
(इस रिपोर्ट का संपादन अमित कुमार सिंह ने किया है।)