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अर्णब गोस्वामी के समर्थन में क्यों खड़ी है बीजेपी?

अर्णब गोस्वामी के समर्थन में क्यों खड़ी है बीजेपी?

मुंबई पुलिस ने जब से अर्णब गोस्वामी को गिरफ़्तार किया है, बीजेपी के नेता इसे प्रेस की आज़ादी पर हमला बता रहे हैं और उन्होंने इसकी तुलना आपातकाल से कर दी है। 

देश के सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडे़कर ने जिस तत्परता से अर्णब गोस्वामी के मामले पर ट्विटर पर प्रतिक्रिया दी और उसके बाद केंद्रीय गृह मंत्री/रक्षा मंत्री समेत केंद्रीय मंत्रिमंडल के उनके सहयोगियों ने बेहद तेज़ी से सुर में सुर मिलाया। इसने उन तमाम लोगों को चौंका दिया, जो देश में पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न राज्यों में पत्रकारों पर सरकारी दमन के मामलों में उनके ग़ायब रहने पर चकित थे।

अर्णब को महाराष्ट्र पुलिस द्वारा आत्महत्या के लिए उकसाने के एक मामले में गिरफ़्तार किये जाने पर जावड़ेकर के दल बीजेपी की सड़क समेत सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाओं ने लोगों को विस्मित किया। क्योंकि पत्रकारों पर सरकारों के दमन के आधार पर देशों की सालाना रैंकिंग करने वाली संस्था ग्लोबल प्रेस फ़्रीडम इंडेक्स के अनुसार इसी बरस भारत इस रैंकिंग में दो पायदान और लुढ़ककर 180 देशों की लिस्ट में 142वें स्थान पर जा पहुँचा है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा देश में लॉकडाउन की घोषणा होने के बाद से ही मौजूदा केंद्रीय सरकार पर मीडिया कर्मियों के मामलों में विभिन्न राज्यों की सरकारों (बहुतायत बीजेपी शासित/ केंद्र शासित क्षेत्रों) द्वारा की गई गिरफ़्तारियों और उन पर हमलों के मामलों में अनदेखी की ख़बरों ने भारत की सीमा से बाहर जाकर भी शोर मचाया। दुनिया के लगभग हर बड़े अख़बार मसलन- गार्डियन, वाशिंगटन पोस्ट, न्यूयार्क टाइम्स, ल मोंद, जापान टाइम्स आदि ने इस पर विशेष ख़बरें कीं। 

जोरों पर सरकारी दमन

गार्डियन ने इसी 31 जुलाई को प्रकाशित एक रपट में हिमाचल प्रदेश के पत्रकारों का मसला उठाया। एक हिमाचली दैनिक समाचार पत्र के पत्रकार ओम शर्मा के हवाले से गार्डियन ने लिखा कि कैसे उन्हें भूखे मज़दूरों की दशा बयान करने वाली एक फ़ेसबुक पोस्ट के लिए विभिन्न धाराओं में अभियुक्त बना दिया गया। 

गार्डियन के अनुसार, ओम शर्मा की ही तरह पचासों पत्रकारों को देशभर में सरकार की भूमिका पर प्रश्न करती या आलोचना करती उनकी रपटों/ सोशल मीडिया पर टिप्पणियों के लिये या तो गिरफ़्तार कर लिया गया या गंभीर मुक़दमों में फँसा दिया गया।

टिप्पणी तक बर्दाश्त नहीं 

वाशिंगटन पोस्ट ने एक जून को अपने ओपिनियन पेज पर प्रकाशित लेख में दिल्ली की स्वतंत्र पत्रकार नेहा दीक्षित के हवाले से दर्ज किया कि महामारी के दौरान एकदम बुनियादी ज़रूरतों में भी प्रशासनिक असफलताओं पर किसी भी तरह की टिप्पणी सरकार को बर्दाश्त नहीं हुई। टिप्पणी करने वाले ऐसे पत्रकारों को न सिर्फ़ सोशल मीडिया पर डाँटा, डराया, धमकाया जाता है वरन उन पर विभिन्न मुक़दमों के माध्यम से पुलिस द्वारा प्रताड़ित किये जाने की घटनाएँ आम हैं। 

बड़े शहरों के मामले तो प्रकाश में आ जाते हैं पर ग्रामीण क्षेत्रों और अर्धशहरी इलाक़ों में पत्रकारों का काम बहुत ही जोखिम भरा है। 

देखिए, इस विषय पर टिप्पणी- 

ट्वीट करने पर ही मुक़दमा दर्ज

रपट में पत्रकार नीरज शिवहरे पर ज़िला प्रशासन द्वारा दर्ज केस का विवरण है जिसमें उन पर आरोप था कि उन्होंने पैसे की कमी के चलते एक परिवार द्वारा रेफ़्रिजरेटर बेचे जाने की घटना रपट कर दी थी, प्रशासन का तर्क था कि इससे अफ़रा-तफ़री मच सकती है और वे धर लिये गये। एक और हवाला पत्रकार ज़ुबैर अहमद का दिया गया जिन पर उनके ट्वीट को मुक़दमा दर्ज करने का आधार बनाया गया। ट्वीट में ज़ुबैर अहमद ने लिखा था कि अंडमान निकोबार प्रशासन ने कोरोना मरीज़ से फ़ोन पर बात करने वाले को चौदह दिन के लिये क्वारेंटीन कर दिया है।

दो अप्रैल के न्यूयार्क टाइम्स की रपट देश के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की केरल के एक न्यूज़ चैनल के प्रसारण को 48 घंटे रोके जाने के दंड से शुरू हुई। 

छह मार्च को मीडिया वन नामक चैनल के एंकर विनेश कुन्हीरमन ने जैसे ही समाचार पढ़ना शुरू किया कि उनके मैनेजिंग एडिटर ने हड़बड़ाहट में आकर उन्हें रोक दिया, स्क्रीन नीली पड़ गई और उसपर रुकावट के लिये क्षमा माँगने की पंक्ति चलने लगी थी जो अगले 48 घंटे तक चलती रही। इस चैनल ने फ़रवरी में दिल्ली में हुए दंगों में पुलिस की भूमिका की आलोचनात्मक कवरेज का गुनाह किया था। 

 - Satya Hindi

सरकार और बीजेपी खुलकर अर्णब के बचाव में है।

न्यूयार्क टाइम्स ने रपट लिखने से पहले कई हफ़्तों तक देश के सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर से संपर्क कर उनका पक्ष लेने का प्रयास किया। उनके स्टाफ़ ने पहले यह जानना चाहा कि संवाद की विषयवस्तु क्या है और बाद में व्यस्तता का हवाला देकर मना कर दिया। रपट में यह दर्ज है।

लगभग सभी विदेशी रपटों में कश्मीर का अलग से ज़िक्र है और सबमें स्वीकार किया गया है कि वहाँ की कवरेज करने में सरकार द्वारा बाधा पहुँचाने के सक्षम प्रयास किये गये।

पत्रकारों पर पुलिसिया एक्शन 

हमारे देसी मीडिया का तो सरकार से ख़ैर रोज़ का आमना-सामना है। द वायर ने ताज़ा रपट में नौ पत्रकारों पर पिछले दिनों की गई पुलिस कार्रवाइयों का ब्यौरा देकर विस्तार से इसे छापा है। ये पत्रकार एक महीने से एक बरस तक जेलों में रहे। प्रशांत कनौजिया तो दो बार उत्तर प्रदेश की सरकार द्वारा विभिन्न ट्वीट्स के कारण जेल भेजे गये। पहली बार सुप्रीम कोर्ट से और दूसरी बार दो महीने जेल काटने के बाद हाई कोर्ट से ज़मानत पर छूटे। 

सिद्दीक़ी कप्पन केरल की वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन के सचिव हैं। हाथरस मामले को कवर करने के लिये जाते समय उन्हें उनके तीन सहयोगियों समेत गिरफ़्तार करके यूएपीए लगा दिया गया है। केरल के दो सांसदों ने जावड़ेकर जी को इस बारे में पत्र लिखा लेकिन सार्वजनिक तौर पर इस बारे में जावडेकर जी के किसी तरह के हस्तक्षेप की कोई जानकारी नहीं है।

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अर्णब के पक्ष में प्रदर्शन करते महाराष्ट्र बीजेपी के कार्यकर्ता।

यूपी में लगाया जा रहा राजद्रोह 

21 अक्टूबर को द हिंदू ने एक बड़ी खबर छापी है जिसमें बताया गया है कि इंटरनेशनल प्रेस इंस्टीट्यूट ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा है जिसमें उसने इंटरनेशनल फ़ेडरेशन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स को भी शरीक किया है। पत्र में प्रधानमंत्री से गुज़ारिश की गई है कि विभिन्न राज्यों में पत्रकारों को राजद्रोह जैसे क़ानूनों में निरुद्ध किया गया है, उस मामले में वे दखल दें। इसमें ख़ासकर उत्तर प्रदेश सरकार का उल्लेख किया गया है, जो राजद्रोह क़ानून का पत्रकारों पर इस्तेमाल करने में असामान्य तत्परता दिखाती है। पत्र के अनुसार मार्च में लॉकडाउन घोषित करने के बाद से अब तक क़रीब पचपन पत्रकारों को विभिन्न मामलों में निरुद्ध किया गया है।

अर्णब गोस्वामी का मामला इन मामलों से एकदम अलग है। वे जो कर रहे हैं उसे एक स्वर से उन तमाम बड़े संपादकों/पत्रकारों ने भी पत्रकारिता स्वीकार करने से इनकार दिया है जिन्होंने महाराष्ट्र पुलिस की उनको गिरफ़्तार किये जाने की कार्रवाई की आलोचना की है।

उनकी आलोचना का सबब यह है कि पुलिस को किसी की भी ऐसी गिरफ़्तारी नहीं करनी चाहिए जिसमें दुर्भावना परिलक्षित हो।

लेकिन फिर भी इतने सारे लोगों द्वारा महाराष्ट्र पुलिस की कार्रवाई की आलोचना से वह मामला और वे पीड़ित नेपथ्य में धकेल दिये गये हैं जिनकी पीड़ा की अनदेखी इसलिये हुई क्योंकि मामले में अर्णब गोस्वामी अभियुक्त थे। पिछली सरकार ने यह मामला दरी के नीचे डाल दिया और इस सरकार ने इसी वजह से उसे धो-पोछ कर पुनर्जीवित कर दिया। 

सवाल यह है कि क्या इस देश में न्याय अब फुटबॉल है जिसे खेल खिलाने वाले मर्ज़ी से मैदान में या कूड़ेदान में रख सकते हैं आख़िर दो लोगों की आत्महत्या, सुसाइड नोट का मामला महाराष्ट्र जैसे रईस राज्य में सामान्य जाँच की दरकार तक नहीं रखता 

देश के क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने ट्वीट में लिखा “अर्णब के स्टेटस के पत्रकार से यह व्यवहार”। यानी सीआरपीसी (CrPC) अब स्टेटस पर निर्भर है

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