इन खंभों ने कितना कुछ देखा है
जब तुम इस मर्मर पर उँगलियाँ फिराते हो
क्या तुम उनकी बुदबुदाहट सुन पाते हो
बाइजेंटाइन साम्राज्य के प्रवचन
अपनी इबादतों में ऑटोमन की पढ़ी गई दुआएँ।
अरबी में लिखे विशाल चक्र
नाम अल्लाह और मुहम्मद का
और उन्होंने उन्हें बाहर ले जाने की कोशिश की
तब मालूम हुआ दरवाज़े छोटे थे
वे सोफ़िया के भीतर रचे गए
और उसी की बाँहों में रहेंगे वे
और अब छत पर ध्यान दो
उनकी कल्पना करो जिन्होंने हाड़ तोड़ा अपना
अपनी भौंहों से पसीना पोंछते हुए।
एक एक टाइल कैसे सजाई गई होगी
इतनी बारीक पच्चीकारी करने को
पैग़म्बर ईसा के चेहरे की।
और फिर मुअज्जिन को बुलाया गया
“अल्लाहू अकबर, अल्लाहू अकबर”
सोफ़िया के विशाल कक्षों में गूँजती
यह पुकार उठती और गिरती है
धीमे धीमे वे किब्ला की तरफ़ मुड़ते हैं
जिसके ऊपर दीवार पर सोयी हैं वर्जिन मेरी।
………
कितनों के क़दम यहाँ पड़े हैं
उन्होंने ख़ुदा के आगे सर झुकाया आनंद में और रोते हुए
दोनों ही, मुसलमान और ईसाई।
दोनों की ही आराम की जगह है यहाँ
जिससे वे सोफ़िया का आलिंगन महसूस कर सकें
वहाँ सोया है एक बाइजेंटाइन
और उसके क़रीब सोया है एक ऑटोमन।
(https://www.poemhunter.com/poem/hagia-sophia-s-embrace/)
मरियम डे हान कवि हैं। इसलिए सोफ़िया के खम्भों, दीवारों और दालान से उन्हें इतिहास फुसफुसाता हुआ सुनाई पड़ा। वे यहाँ एक कहानी सुन पाती हैं। लेकिन शासक एर्दोयान कवि की तरह कमज़ोर नहीं पड़ सकता। वह इतिहास की इस विडम्बना को समझ ले तो फ़ैसला ही नहीं ले पाएगा।
तो क्या अब दुनिया भर के मुसलमानों के लिए यह जश्न का मौक़ा है यह कि हागिया सोफ़िया या हाया सोफ़िया अब फिर से मसजिद है वह जो कल तक संग्रहालय थी उसके पहले मसजिद और उसके भी पहले एक गिरजाघर और उसके भी पहले बहुदेवोपासना में विश्वास करनेवालों का उपासना स्थल
कहते हैं हाया सोफ़िया में आप इस बात को अच्छी तरह समझ पाते हैं: कि पहले को मिटा देने की इंसानी हिमाक़त बस हिमाक़त है। पहला हमेशा बाद की परत से झाँकता रहता है। अपनी याद दिलाता हुआ।
तुर्की पर क़ब्ज़े के बाद ऑटोमन सल्तनत की नींव डालनेवाले मेहमद दूसरे ने बाइजेंटाइन सम्राट जस्टिनीयान के तामीर किए हुए इस गिरजे में मीनारें जुड़वाईं जिससे यह शानदार इमारत मसजिद जान पड़े और सारे भित्ति चित्रों को पुतवा दिया जिससे शबीहों पर निगाह पड़ने से मुसलमानों के पवित्र हृदय में इबादत के वक़्त नापाक ख़याल न आ सकें। उन्होंने शायद यह सोचा कि जो था, वह अब दफ़्न हो गया। लेकिन मेहमद दूसरे को यह ख़बर न थी कि तुर्की कभी गणराज्य होगा और यह मसजिद अजायबघर में तब्दील कर दी जाएगी और जिस कुछ से भी वह इंसानी निगाहों को बचाना चाहता था, उसी को इंसान फिर से उभारेगा
ओम थानवी ने बहुत संक्षेप में हाया सोफ़िया के प्रभाव का वर्णन किया है,
“हाया सोफिया के परिसर में चहलकदमी करते वक़्त जरा अहसास नहीं होता कि थोड़ी ही देर में रहस्य का कैसा आलोक आपके सामने पसरने वाला है। बाईं तरफ़ रखे बाइजेंटाइन स्तंभों को पार कर दाएँ प्रवेश के वक़्त भी सिर्फ़ ईसा मसीह का एक सुनहरा भित्तिचित्र दिखाई देता है। यहाँ उन चपटी ईंटों का लंबा-चौड़ा गलियारा है जो गिरजे को बनाने में इस्तेमाल हुई।
गलियारे को पार करते ही आता है हाया का विराट मंडप और गुंबद। कहते हैं वास्तुकारों ने पहली दफा पारंपरिक अष्टभुजा मंडप की जगह यहाँ चौरस चौकोर शैली अख्तियार की। गुंबद भी ऊपर तंबू की तरह न तान कर चपटे रूप में तैयार किया गया। ख़ूबी यह है कि काले संगमरमर के खंभे — जिन पर मंडप खड़ा है — दिखाई नहीं देते; वे उत्तर और दक्षिण की दीवारों के पार्श्व में हैं।
इन भव्य आकारों के बीच कला के सिद्ध नमूने हैं, भित्तिचित्रों और जड़ाई में बाइबिल के आख्यान। मंडप में घूमना और कलावीथी में आ ठहरना जैसे रह-रह कर काल और दिक् में डूबना और उतराना है। स्थापत्य के संसार में कुछ कर गुजरने के ख्वाहिशमंद ऑटोमन सुल्तानों को हाया सोफिया ने सवाल और जवाब दोनों मुहैया कराए। यानी यह अहसास पुख्ता हुआ कि कुछ कर दिखाना है। दिलचस्प बात है कि इस्ताम्बुल की दूसरी पहचान नीली टाइल वाली 'नील मसजिद' हाया के ठीक सामने स्थापित है, मानो मुक़ाबले में खड़ी हो।
मगर नील मसजिद से ज़्यादा कलात्मक और भव्य सुल्तान सुलेमान के वक़्त बनी सुलेमानिया मसजिद है। इसे वास्तुकार सिनान ने बनाया था। ताजमहल भी उसी दौर में, सत्रहवीं सदी के मध्य, बना। कहना न होगा, ताज के 'वास्तुकार' उस्ताद अहमद लाहौरी ने बाहर से जो शिल्पी, मिस्त्री, राजगीर और किताबती बुलाए, उनमें कई ऑटोमन सल्तनत से आए थे।”
तो हाया सोफ़िया चुनौती रही है और प्रेरणा भी। अचरज नहीं कि उसके सामने पड़ने पर आपको ताज महल की याद आए। लेकिन साथ ही वह एक सीख भी है: क्या नहीं किया जाना चाहिए, इसकी सीख।
अफ़सोस कि इंसान कभी सीखना चाहता नहीं। वही ग़लती जो मेहमद दूसरे ने की थी, सदियों बाद एर्दोयान दुहरा रहे हैं। हमारे एक दोस्त ने कहा कि जो ग़लती मेहमद ने की, वही एक तरह से कमाल अतातुर्क ने दुहराई जब तुर्की को धर्मनिरपेक्ष बनाने के क्रम में इसे एक धार्मिक स्थल की जगह धर्मनिरपेक्ष अजायबघर में तब्दील कर दिया। हमारे इन मुसलमान दोस्त के मुताबिक़ कमाल पाशा को हिम्मत दिखलाते हुए इसे वापस गिरजाघर का दर्जा देना चाहिए था।
एर्दोयान को मालूम है कि ईसाइयत की तरह इस्लाम भी ऐसा मज़हब है जो एक देश की सीमा में क़ैद नहीं। इसलिए वे एक और मसजिद देकर शायद दुनिया भर के मुसलमानों में अपना रुतबा पक्का कर रहे हैं। लेकिन इस क़दम ने मुसलमानों का सर झुका दिया है।
तुर्की के कथाकार ओरहान पामुक ने कहा,
“
मैं क्षुब्ध हूँ। तुर्की राष्ट्र को एकमात्र ऐसा मुसलमान मुल्क होने का फक्र था जो धर्मनिरपेक्ष है और यह (हाया सोफ़िया) उसका सबसे बड़ा प्रतीक था। लेकिन आज उन्होंने इस देश से वह गौरव छीन लिया है।
ओरहान पामुक, तुर्की के कथाकार
पामुक ने कहा, “यह कमाल अतातुर्क का सबसे महत्त्वपूर्ण और सोचा समझा फ़ैसला था जिसके ज़रिए वे बाक़ी दुनिया को बताना चाहते थे, ‘हम दूसरे मुसलमान देशों से अलग हैं, ….हम आधुनिक हैं ….। हम इसी तरह दीखना चाहते हैं।”
तुर्की की अदालत के फ़ैसले और फिर सरकारी फ़रमान के बाद पामुक ने अफ़सोस जताया, ‘मेरी तरह लाखों धर्मनिरपेक्ष तुर्क हैं जो इसके ख़िलाफ़ चीख रहे हैं लेकिन उनकी कोई नहीं सुनता।’ ‘इसे वापस मसजिद में तब्दील करके बाक़ी दुनिया को कहा जा रहा है कि बदनसीबी से अब हम धर्मनिरपेक्ष नहीं रहे।’
पामुक शायद ग़लत हैं। इस निर्णय का तुर्की में कोई व्यापक विरोध हुआ हो, इसकी ख़बर नहीं है। यह वक़्त एर्दोयान के लिए सबसे अधिक चुनौतियों से भरा है। इस्तांबुल में एक साल पहले ही उनकी अपमानजनक हार हुई है, आर्थिक दृष्टि से तुर्की संकट में है और कोरोना से पैदा हुई महामारी ने उनकी मुश्किलें और बढ़ा दी हैं।
पामुक संभवतः इसलिए भी ग़लत हैं कि उन्हीं के धर्मनिरपेक्ष तुर्की में एक सदी पहले हुए आर्मेनियायी ईसाइयों के क़त्लेआम की चर्चा अभी भी जुर्म है। ख़ुद पामुक को ऐसा करने के अपराध के लिए क़ैद से बचने को ज़ुर्माना भरना पड़ा था। आज तुर्की में ईसाई इतने कम हैं कि एर्दोयान के फ़ैसले पर वे मन मसोस कर रह जाने के अलावा शायद ही कुछ कर पाएँ। आज अगर हाया सोफ़िया का फ़ैसला लिया जा सका है तो उसकी एक वजह अपने हिंसा के अतीत को नज़रअंदाज़ करने में भी छिपा है।
इस वक़्त यह क़दम उठाकर एर्दोयान ने एक पुराना पहचाना हुआ दाँव खेला है। वह भावनात्मक उत्तेजना पैदा करके जनता और विपक्ष को दुविधा में डाल देने की कोशिश है। विपक्ष ने अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। एर्दोयान ने इसे राष्ट्र की संप्रभुता से जोड़ दिया है। अंतरराष्ट्रीय आलोचना भी उतनी तीव्र नहीं है, न अमेरिका की, न रूस की। क़रीबी ग्रीस की नाराज़गी उन्हें फ़ायदा पहुँचाएगी, यह एर्दोयान का ख़याल है।
यह सब कुछ कितना पहचाना हुआ लगता है अदालत का फ़ैसला और फिर सरकार का उसका अनुपालन। यह भी एर्दोयान ने चतुराई से इस इरादे को अपने शासन के शुरुआती दौर में प्राथमिकता नहीं दी। ‘हारेत्ज’ में लुई फिशमैन ने ठीक ही लिखा है कि एर्दोयान ने ऐसा करके अभी ख़ुद को विश्व स्तर पर राजनीतिक इस्लाम का अगुआ साबित किया है: “इस्लामी बिरादरी के लिए हागिया सोफ़िया को वापस मसजिद बनाया जाना इसका सबूत है कि इस्लाम पश्चिम से चले आ रहे अपने पुराने युद्ध में अब जीत रहा है और इसमें नए धर्मयोद्धा इज़राइल के ख़िलाफ़ जंग भी शामिल है। एर्दोयान ने अपने भाषण में कहा कि “हागिया सोफ़िया का पुनरुद्धार मुसलमानों की सारे सताए हुए, दबे कुचलों की भी उम्मीद की आग को फिर से सुलगाएगा।” “जिसमें अल अक़्सा की मुक्ति शामिल है।”
‘अल अक़्सा’ की मुक्ति, यानी येरूशलम पर फ़तह! यह आह्वान कितना फ़िलीस्तीनियों के लिए किया जा रहा है और कितना अपनी हुक़ूमत का क़ब्ज़ा और पक्का करने के लिए, यह कौन नहीं जानता! यह कहकर ही एर्दोयान यह साबित कर रहे हैं कि हाया सोफ़िया का मसला सिर्फ़ तुर्की का नहीं है। वे एक इस्लामी दुनिया के सपने को गढ़ रहे हैं।
फिशमैन के मुताबिक़ तुर्की का विपक्ष इस बहस में न पड़कर शायद ठीक ही कर रहा है। लेकिन क्या सच यही होगा या यह एक दूसरी लंबी प्रक्रिया को जन्म देगा
जो भी हो, हमें सीमा चिश्ती ने याद दिलाया कि जिस रोज़ तुर्की की अदालत सोफ़िया को वापस मसजिद का दर्जा दे रही थी उसी दिन भारत के सर्वोच्च न्यायालय में बनारस की ज्ञानवापी मसजिद और मथुरा की शाही ईदगाह के मामले की सुनवाई हो रही थी। विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ और दूसरे याचिकाकर्ताओं का कहना है कि 1991 का वह क़ानून रद्द कर देना चाहिए जो उपासना स्थलों की 1947 के पहले की स्थिति को बहाल रखने की बात करता है। इस मामले में कुछ मुसलमान समूह शामिल होने की कोशिश कर रहे हैं। उनका कहना है कि यह क़ानून वास्तव में भारत के मूल चरित्र की व्याख्या करता है और उसपर किसका हक़ है, यह भी बताता है। क्या इस सुनवाई का हश्र भी कुछ वैसा ही होगा जैसा बाबरी मसजिद की जगह की मिल्कियत के मामले का हुआ
तुर्की हो या पाकिस्तान, जहाँ अभी एक मंदिर के निर्माण पर विवाद खड़ा किया जा रहा है या भारत, अतीत के प्रेत जगाए जा रहे हैं। लेकिन प्रेत तो अनेक हैं और सबके जागने का मतलब वर्तमान के लिए क्या होगा, अंदाज़ करना मुश्किल नहीं है।
हाया सोफ़िया इसलिए पूरी दुनिया की चिंता का विषय होना ही चाहिए। यह इसलिए भी कि हमारे हुक्मरान हमें कितने कमज़ोर दिमाग़ का समझते हैं, यह जानते हैं कि किस तरह हमें ताक़त का भरम देकर हम पर ही क़ब्ज़ा किया जा सकता है!